आतंकियों की धमकी को हलके में न ले सरकारr

 सिद्धार्थ शंकर गौतम

देश की अस्मिता पर हमला करने वाले दुर्दांत आतंकी आमिर अजमल कसाब को दी गई फांसी पर विश्व भर में मिश्रित प्रतिक्रियाएं प्राप्त हो रही हैं। कसाब की फांसी से जहां राजनीतिक लाभ उठाने वाले बयानवीरों की चांदी हो रही है वहीं पाकिस्तानी तालिबानी संगठनों ने इसका बदला लेने की बात कही है। बात यदि भारत के परिपेक्ष्य में की जाए तो कसाब की फांसी सरकार की ढुलमुल छवि से इतर उसकी मजबूत व आतंकवाद से प्रति दृढ इच्छाशक्ति को परिलक्षित करती है वहीं अफजल और भुल्लर जैसे आतंकियों को बचाए रखने की मुहिम सरकार की घोर सेक्युलर राजनीति नजर आती है। हालांकि कसाब और अफजल या भुल्लर के गुनाहों की तुलना नहीं की जा सकी किन्तु वृहद् परिपेक्ष्य में देखने से तीनों का मकसद एक ही नजर आता है। अफजल और भुल्लर की फांसी की दया याचिका राष्ट्रपति के पास लंबित है और अब उनपर ख़ासा दबाव होगा कि कसाब के बाद वे इन दुर्दांत आतंकियों खासकर अफजल की दया याचिका का भी त्वरित निर्णय करें। यहां यह समझना ठीक होगा कि चूंकि कसाब पाकिस्तानी नागरिक था और उसे मुंबई के सीएसटी रेलवे स्टेशन पर गोलियां चलाते पूरी दुनिया ने देखा था लिहाजा उसके पक्ष में किसी भी मुस्लिम संगठन की भावनात्मक अपील देशद्रोह की श्रेणी में आता किन्तु अफजल के मामले में ऐसा नहीं है। संसद में हुए हमले का मास्टरमाईंड अफजल गुरु पर्दे के पीछे से पूरे ऑपरेशन को अंजाम देता रहा। फिर उसका भारतीय होना भी कई संगठनों के लिए अहम है। शायद यही वजह है कि अफजल की फांसी न तो एनडीए शासनकाल में हो पाई न ही संप्रग सरकार में इतनी एकजुटता रही कि वह अफजल को फांसी के फंदे तक ले जाए। कुल मिलकर चाहे कसाब हो अफजल; हमारे देश में वोट बैंक की राजनीति के लिए इन्हें मोहरा बनाया जाता रहा है और आगे भी बनाया जाता रहेगा। यह स्थिति निश्चित रूप से लोकतंत्रात्मक सत्ता हेतु आत्मघाती ही है। खैर इस मामले में हमारे राजनीतिज्ञ शायद ही सुधरें। फिलहाल तो मामला कसाब की फांसी के बाद भारत और वैश्विक समुदाय के संबंधों में आने वाले उतार-चढ़ाव से जुड़ा हुआ है। खासकर पाकिस्तान और वहां मौजूद तमाम आतंकी संगठनों की भावी प्रतिक्रिया क्या होगी, इस बारे में सरकार को गंभीरता से चिन्तनं-मनन करने की आवश्यकता है। वह भी ऐसे समय में जबकि वैश्विक आतंकवाद की कमर टूट चुकी है और वह सर उठाने के लिए अपनी ताकत को संगठनिक करने में लगा है।

 

ऐसी आशंकाएं भी व्यक्त की जा रही थी कि भारत में कसाब की फांसी पाकिस्तान में सरबजीत की दया याचिका पर प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न करेगी। हालांकि पाकिस्तान द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि कसाब और सरबजीत की तुलना नहीं की जानी चाहिए। किन्तु पाकिस्तान से अनेकों बार धोखा खाने के बाद अब उसकी बातों पर यकीन करना नामुमकिन ही है। जहां तक पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का सवाल है तो कसाब की फांसी से बौखलाए आतंकी संगठन भारत में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने में तेजी ला सकते हैं। पाकिस्तान पर इस वक्त अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का भारी दबाव होने की वजह से वहां की सरकार पर यह दबाव तो होगा ही कि वह भावी आतंकी घटनाओं की अधिकता को रोके किन्तु सैन्य शासन और उनके द्वारा समर्थन पाए आतंकी संगठन भला सरकार की क्यों सुनेंगे? यह पूर्व में साबित हो चुका है कि असम हिंसा से लेकर उसके बाद के सभी घटनाक्रमों में सीमा पार की भूमिका उजागर हुई है। फिर कसाब की फांसी के चंद घंटों बाद ही कश्मीर में जिस तरह पत्थरबाजी की घटना सामने आई है उससे यह साबित होता है कि आतंकी संगठनों ने भारत में अशांति फैलाने के मंसूबे को अंजाम देना शुरू भी कर दिया है। इन आतंकी संगठनों को देश में मौजूद देशद्रोही संगठनों की भी मदद प्राप्त हो रही है लिहाजा जो तनाव सीमा पर होना चाहिए उसकी शिकन देशभर में महसूस की जा सकती है। पूरा देश इस वक्त हाईअलर्ट पर है और सरकार के हाथ पांव फूले हुए हैं। यूं तो भारत सरकार को आतंकवाद के मसले पर अमेरिका सहित अन्य महाशक्तियों का समर्थन प्राप्त है किन्तु यह समर्थन वैश्विक नीतियों या वैश्विक आतंकवाद के मसले तक ही ठीक है। यदि देश में कहीं भी आतंकी वारदात होती है तो उससे निपटना तो सरकार और जनता को ही है। हालांकि देखा जाए तो कसाब को फांसी देते वक्त सरकार ने सभी पहलुओं का गहन अध्ययन किया ही होगा और अब यह सरकार और सुरक्षा एजेंसियों का दायित्व है कि वे देश के नागरिकों की सुरक्षा और जान-माल की समीक्षा करे ताकि आतंकी अपने मकसद में कामयाब न हो सकें। राष्ट्रहित के मुद्दों पर राजनीति आम बात है और कसाब की फांसी पर भी यही हो रहा है मगर सरकार को तालिबानी धमकी हलके में न लेते हुए अपनी ओर से पुख्ता इन्तेजामात करने ही चाहिए। जिस मजबूत और फौलादी इरादे से सरकार ने कसाब को फांसी दी है; उसी इरादे से वह अब आतंकियों से निपटे तभी देश आतंकवाद का डटकर मुकाबला कर पाएगा अन्यथा तो देश आने वाले वक्त में बारूद के ढेर पर बैठ खूनी दिवाली का मंजर देखेगा।

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

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