न महंगाई की फिक्र, न बंद से मतलब

-गौतम मोरारका

पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों और चौतरफा बढ़ती महंगाई के विरोध में विपक्षी दलों ने प्रभावशाली एकता दिखाते हुए सफलतापूर्वक भारत बंद को अंजाम दिया। लेकिन दूसरी ओर सरकार का रुख ऐसा है जैसे उसे देश भर में इस मुद्दे पर उबल रहे आक्रोश और असंतोष की कोई परवाह ही न हो। उसने न सिर्फ बंद की सफलता को कम करके देखने की कोशिश की है बल्कि इतने व्यापक स्तर पर राष्ट्र की जनता द्वारा की गई महंगाई विरोधी उपायों की मांग को भी नजरंदाज कर दिया है। किसी लोकतांत्रिक राष्ट्र में जनाकांक्षाओं का इस तरह खुला अनादर दुर्लभ ही देखा जाता है।

एक ऐसे देश में, जहां लगभग हर उपभोक्ता सामग्री का सीधा संबंध पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों से है, केंद्र सरकार ने इन पदार्थों के दाम बढ़ाने का एकतरफा फैसला कर लिया। इस बारे में विपक्षी दलों, विशेषकर मुख्य विपक्षी दल भाजपा से चर्चा की जा सकती थी लेकिन अहम मुद्दों पर राजनैतिक दलों को विश्वास में लेने की परंपरा अब खत्म सी हो गई है। बहरहाल, ऐसा लगता है कि सरकार ने अन्य राजनैतिक दलों की तो क्या खुद आम आदमी की चिंताओं और समस्याओं पर भी ध्यान देना बंद कर दिया है। तभी तो उसने पेट्रोलियम कंपनियों को हो रहे तथाकथित नुकसान की भरपाई के लिए उनके मूल्य बढ़ाने का रास्ता चुना, जबकि इसके लिए और भी कई, अपेक्षाकृत आसान विकल्प उपलब्ध थे।

पेट्रोलियम कंपनियों को होने वाले नुकसान को लेकर पिछले कुछ वर्षों से सरकारी पक्ष की ओर से काफी बयान आते रहे हैं। लेकिन वास्तव में यह नुकसान सिर्फ आंकड़ों की हेराफेरी के कारण ही है। ऐसे बयान देते समय इस तथ्य को नजरंदाज कर दिया जाता है कि देश में पेट्रोलियम पदार्थों पर जबरदस्त कर लगाए गए हैं और सन 2010-11 में इन करों से 1,20,000 करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त होने वाला है। सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों पर जो सब्सिडी खत्म की है वह तो इसकी एक तिहाई भी नहीं है। फिर कैसे मान लिया जाए कि सब्सिडी जारी रहने से कंपनियों और सरकार को बहुत बड़ा घाटा होने जा रहा है?

अगर पेट्रोलियम पदार्थों पर सब्सिडी खत्म करने का फैसला करना ही था तो भी मौजूदा समय उसके अनुकूल नहीं है। आम उपभोक्ता मुद्रास्फीति से पहले ही बहुत परेशान है। दैनिक आवश्यकताओं की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। अर्थव्यवस्था भी अभी तक मंदी के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई है। अब सब्सिडी खत्म करने के फैसले से अर्थव्यवस्था पर चौतरफा प्रभाव पड़ेगा और मध्य व निम्न वर्ग के लोगों के लिए हालात और भी मुश्किल हो जाएंगे।

सरकार को इस बात का अहसास होना चाहिए था कि उसके फैसले के पीछे भले ही कोई भी उद्देश्य हों, लेकिन पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत और बढ़ी तो वह आम आदमी पर कड़ा प्रहार होगा। अगर पेट्रोलियम पदार्थ महंगे करने के फैसले से किसी को लाभ होने जा रहा है तो वह सिर्फ पेट्रोलियम उद्योग के बड़े खिलाड़ी हैं जो सस्ते दरों पर ईंधन बेचने वाले सरकारी संस्थानों का मुकाबला नहीं कर पा रहे थे।

पेट्रोलियम सेक्टर में यदि कोई समस्या है भी तो कर ढांचे में जरूरी समायोजन करके उसे बेहतर तरीके से हल किया जा सकता था। तेल कंपनियों की कार्यक्षमता बढ़ाने और उनके पुराने बकायों की वसूली करके भी हालात काफी हद तक संभाले जा सकते थे। लेकिन सरकार ने सब्सिडी खत्म करने का अपेक्षाकृत आसान रास्ता चुना। अब बस यही उम्मीद की जा सकती है कि उपभोक्ता बाजार इसके मुद्रास्फीति-कारक प्रभावों से किसी तरह बचा रहे और सब्सिडी खत्म करने से मिलने वाले भारी राजस्व का बुध्दिमत्तापूर्ण इस्तेमाल किया जाए।

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