लोकतांत्रिक मर्यादा का चीरहरण करता विपक्ष

politiciansसुरेश हिन्दुस्थानी

भारत देश में विपक्षी दलों द्वारा किया गया भारत बंद का प्रयास लोक ने पूरी तरह से नकार दिया। इससे कहा जाता है कि देश एक बार फिर लोक जीत गया और विपक्ष पूरी तरह से पराजित हो गया। इससे यह प्रमाणित हो गया है कि देश की जनता पूरी तरह से जाग्रत हो चुकी है, उसे किसी भी प्रकार से मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। राजनीतिक दल खासकर विपक्षी राजनीतिक दलों को अब इस बात का चिन्तन करना चाहिए कि देश की जनता किस प्रकार की राजनीति चाहती है।

केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए बड़े नोट बंद करने के बाद देश के विपक्षी राजनीतिक दलों ने ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास किया कि जैसे पूरा देश ही परेशान हो गया हो। यह बात सही है कि बड़े नोटों को बंद करने से काले धन के रुप में पैसा एकत्रित करने वालों के लिए न तो उगलते बन रहा है और न ही निगलते। देश के राजनीतिक दलों को कम से कम राष्ट्रीय हितों के मामलों पर राजनीति करने से बाज आना चाहिए। वैसे कांगे्रस के बारे में एक बात शत प्रतिशत सही मानी जाती है कि उसने हमेशा अंगे्रजों कर फूट डालो और राज करो की नीति का ही अनुसरण किया है। कांगे्रस ने भारतीय समाज को हमेशा ही दिग्भ्रमित किया है। कौन नहीं जानता कि आज देश के कई राजनेताओं के पास काली कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा है। इतना ही नहीं कांगे्रस के शासनकाल में मंत्रियों के परिजन भी सरकार की सुविधाओं का भरपूर दुरुपयोग करते रहे। इसी दुरुपयोग के चलते कई लोग अवैध कमाई के फेर में मालामाल हो गए।

बड़े नोटों को अमान्य करने के केन्द्र सरकार के निर्णय के विरोध में विरोधी राजनतिक दल संसद से लेकर सड़कों पर हंगामा और प्रदर्शन कर रहे हैं, जिसकी वजह से संसद के दोनों सदनों में लगातार गतिरोध जारी है। यह बात सही है कि विपक्ष मन से नोट बंदी मामले में बहस नहीं चाहता, क्योंकि बहस करने से उन्हें ऐसी सब बातों का सामना करना होगा, जो उनके शासनकाल में हुईं। लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तो यहां तक कह दिया कि सबसे ज्यादा काला धन पिछली सरकार के समय में पैदा हुआ। इस बात को सुनते ही कांगे्रस के सदस्यों ने हंगामा याुरु कर दिया। जबकि यह बात सही थी कि पिछली सरकार के दौरान काला धन सबसे ज्यादा जमा हुआ। कांगे्रस सहित अन्य विपक्षी दलों में इस सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं है। इससे जाहिर होता है कि विपक्ष नोटबंदी के मामले में बहस को तैयार नहीं है और उसका उद्देश्य सिर्फ सरकार को घेरने का है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत विपक्ष का सरकार की बातों से सहमत या असहमत होना उचित है, लेकिन केवल हंगामा करने के लिए असहमत होना न्याय संगत नहीं माना जा सकता। इसके लिए प्रावधानिक नियमों का पूरी तरह से पालन करना भी विपक्ष की जिम्मेदारी है। उसे विरोध का भी अधिकार है, लेकिन संसद का सत्र जब चल रहा है तो विपक्ष को संसद में चर्चा करके सरकार से जवाब तलब करना चाहिए। नियमों की आड़ लेकर बहस से दूर भागना उचित कैसे ठहराया जा सकता है। अपनी जिद पकड़कर संसद में गतिरोध जारी रखना संसदीय लोकतंत्र के तहत ऐसा रवैया अमान्य है। संसद परस्पर विचार-विमर्श के लिए है। गंभीर मसलों पर बहस के लिए है और निर्णय करने के लिए है। इसके जरिए ही देश की नियति का निर्धारण होता है। जहां तक भारत की जनता की बात है तो उसे विपक्ष की अच्छी और बुरी बात का ज्ञान है। आज जनता को सरकार और विपक्ष की पल पल की जानकारी घर बैठे ही मिल रही है, इसलिए विपक्ष किसी भी प्रकार से जनता के ऊपर भ्रमित करने वाली बातों को नहीं थोप सकती।

यह मांग उचित हो सकती है लेकिन पूरी बहस के दौरान प्रधानमंत्री का उपस्थित रहना शायद संभव नहीं है और यह मांग अव्यावहारिक भी है। प्रधानमंत्री के अनेक कार्यक्रम पूर्व निर्धारित होते हैं। पूरी बहस के दौरान प्रधानमंत्री कैसे सदन में बैठा रह सकता है, यह हमारे विवेकशील विपक्ष को सोचना चाहिए। ऐसी मांग से भी जाहिर होता है कि विपक्ष केवल विरोध के लिए विरोध और हंगामा कर रहा है। उसे बहस में कोई रूचि नहीं है।

देश में #नोटबंदी के निर्णय के बारे में समस्त देश की जनता यह भलीभांति समझ रही है कि केन्द्र सरकार का यह कदम कालेधन और भ्रष्टाचार को समाप्त करने का साहसिक कदम है।

वर्तमान में देश में विरोधी दलों द्वारा जिस प्रकार की राजनीति की जा रही है, वह देश को पीछे ले जाने की कवायद मानी जा सकती है। इसे लोकतांत्रिक मर्यादा का चीरहरण भी कहा जा सकता है। विपक्ष द्वारा किए गए भारत बंद का आहवान देश की जनता ने पूरी तरह से नकार दिया। यहां तक कि देश के व्यापारियों ने भी इससे किनारा करके विपक्ष को यह जता दिया कि वह भारत बंद के विरोध में है। वास्तव में देखा जाए तो विपक्ष यहां पर पूरी तरह से चूक गया। क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया यही कहती है कि जनता की भावनाओं को पूरी तरह से ध्यान रखा जाए। लोकतांत्रिक परिभाषा का अध्ययन करने से पता चलता है कि भारत की असली सरकार जनता ही है, लेकिन हमारे विपक्षी दल जनता की भावनाओं को कोई महत्व देते हुए दिखाई नहीं दे रहे। इसे लोकतांत्रिक मर्यादाओं का हनन ही कहा जाएगा। पूरी तरह से बेशर्म बनकर लोकतांत्रिक परंपराओं की बलि चढ़ाई जा रही है। हद तो यह है कि सेना को भी गंदी राजनीति के कीचड़ में घसीटा जा रहा है। सर्जिकल स्ट्राइक पर राजनीति इसका उदाहरण है। पिछले तीस दशक के दौरान देश में राजनीति का चरित्र बिल्कुल बदल गया है।

भारत देश लोकतांत्रिक है, इसका मतलब यही है कि इस देश में लोक की आवाज को प्रमुखता दी जानी चाहिए, लेकिन विपक्षी दलों ने लोक की आवाज को नकार कर जिस प्रकार से केन्द्र सरकार का विरोध किया है, उसे प्रथम दृष्टया अलोकतांत्रिक ही कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कही जा सकती। विपक्षी दलों ने बाजार बंद करके एक प्रकार से अलोकतांत्रिक कार्य किया है, क्योंकि जनता पूरी तरह से बाजार बंद के खिलाफ रही। भारत में ऐसा संभवत: पहली बार हुआ है कि विपक्षी दलों की आवाज को अनसुना कर बाजार पूरी तरह से खुला दिखाई दिया। इससे विपक्षी दलों को सबक लेना चाहिए।

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