शान के लिए दान ?

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-निर्मल रानी-

daan

परोपकार, दान, गरीबों की सेवा, बेसहारों को सहारा देने जैसी बातें लगभग सभी धर्मों के महापुरुषों द्वारा बताई गई हैं । साथ-साथ यह भी बताया गया है कि दान करने वालों को अपने दान का ढिंढोरा हरगिज़ नहीं पीटना चाहिए। इस्लाम धर्म में हज़रत अली का कथन है कि यदि कोई व्यक्ति अपने एक हाथ से दान करता है तो कोशिश यह होनी चाहिए कि उसके दूसरे हाथ को भी दान दिए जाने का पता न चले। यदि कोई व्यक्ति पुण्य अर्जित करने की गरज़ से दान देता है तो भी उसे यह मान लेना चाहिए कि ईश्वर उसके द्वारा दिए जाने वाले दान अथवा पुण्य कार्य को देख रहा है। दान का ढिंढोरा पीटने से या उसका
बढ़चढ़ कर बखान करने से समाज में चंद लोगों को किसी व्यक्ति के ‘महादानी’ होने का तो पता ज़रूर चल जाता है परंतु धार्मिक व नैतिक दृष्टिकोण से किसी दानी द्वारा अपने दान का ढिंढोरा पीटना कतई मुनासिब नहीं है। हां यह उसका अधिकार ज़रूर है कि वह चाहे तो अपने दान का ढिंढोरा पीट सकता है,उसका विज्ञापन आदि दे सकता है। वैसे भी वर्तमान दौर में दान की परिभाषा कुछ ऐसी ही बन चुकी है कि आम तौर पर दानी व्यक्ति दान देता ही सिर्फ नाम और शोहरत के लिए है। आपको विभिन्न समाचार पत्र ऐसे मिल जाएंगे जिनके मालिकों द्वारा तरह-तरह की आपदा में सहायता पहुंचाने हेतु फंडिंग शुरू ही जाती है। प्रत्येक दानदाता का नाम प्रकाशित होता है। और जो अधिक दान देता है उसका बाकायदा चित्र भी समाचार पत्र प्रकाशित करते हैं। दान देकर अपना नाम रौशन करने की परंपरा भी कोई नई नहीं है। देश में हज़ारों धर्मस्थान, धर्मशालाएं, अस्पताल, अनाथालय आदि ऐसे देखे जा सकते हैं जिनमें यदि किसी व्यक्ति ने सौ-डेढ़ सौ रुपये का ट्यूब रॉड अथवा चार या पांच सौ रुपये कीमत का पंखा दान किया है तो वह उस ट्यूब रॉड की फट्टी पर अथवा पंखे के ब्लेड पर अपना व अपने दिवंगत माता-पिता का नाम पेंट द्वारा लिखवा देता है। हिमाचल प्रदेश में नैना देवी जैसे देश में कई मंदिर ऐसे हैं जहां दातागण एक पत्थर के टुकड़े पर अपना या अपने पूर्वजों का नाम लिखवाकर वहां छोड़ आते हैं जिसका प्रयोग स्थानीय प्रबंधन समिति द्वारा उचित स्थान पर किया जाता है। देश के प्रसिद्ध पर्यट्न स्थल कन्याकुमारी का विवेदानंद रॉक जोकि समुद्र में स्थित है वहां से लेकर देश के बड़े से बड़े मंदिरों अथवा प्रमुख धर्मस्थलों पर बाकायदा पत्थर की एक बड़ी शिला पर दानी सज्जनों के नाम लिखे देखे जा सकते हैं। सवाल यह है कि इस प्रकार का दान अथवा ऐसे दान पर विश्वास करने वाले दानी सज्जन क्या दान की वास्तविक नीति के अनुरूप दान करते हैं? या समय के साथ-साथ दान देने की परिभाषा भी बदल चुकी है?

दरअसल दान दिया ही उस व्यक्ति को जाता है अथवा उस स्थान पर दिया जाता है जहां दान दिए जाने की ज़रूरत है । निश्चित रूप से दान लेने वाला व्यक्ति दान
देने वाले व्यक्ति का मोहताज होता है। ऐसे में किसी को दान देकर
उसका बखान करने का सीधा सा अर्थ है दान लेनेे वाले व्यक्ति को अपमानित
करना या उसे नीचा दिखाना। धर्मशास्त्रों में दान की जो व्या या की गई
है उसके अनुसार मनुष्य को अपनी हक-हलाल की कमाई में से की गई
बचत का कुछ हिस्सा दान करना होता है। अन्यथा पुरातनकाल में तो तमाम
ऐसे अवतारी महापुरुष हुए हैं जिनकी ईश्वर परीक्षा इस ढंग से लेता है
कि यदि उन्हें दो-तीन दिन बाद भोजन नसीब होता था तो भोजन शुरू करने
के समय पर ही फकीर दरवाज़े पर भीख मांगने के लिए आ जाता था। और
दो-तीन दिन का भूखा वह वास्तविक खुदापरस्त अपनी भूख मिटाने के बजाए
फकीर को अपना भोजन खुदा की राह में भेंट कर दिया करते थे।
आज तो ऐसे दानियों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। परंतु दरअसल
हमारे समाज में दान देने के पाठ ऐसे ही पीरों-फकीरों व संतों
द्वारा पढ़ाये गये हैं। वर्तमान समय में दान देने की भी अनेक श्रेणियां
हैं। एक तो वह कथित दानी लोग हंै जो अपने दरवाज़े पर आने वाले
पेशेवर भिखारियों को अथवा गऊ माता के नाम पर मांगने वालों को या
शनि देवता के नाम पर बाल्टी लेकर घूमने वालों को अपने दरवाज़े पर
दान देकर पुण्य कमाने व ईश्वर को प्रसन्न करने की कल्पना करते हैं।
कुछ लोग ऐसे हैं जो विभिन्न शहरों व कस्बों में संस्थाएं बनाकर
गरीबों की मदद करते हैं। लायंस क्लब या रोटरी क्लब तथा इन जैसी
कई स्थानीय संस्थाएं कहीं अपाहिजों को कृत्रिम अंग उपलब्ध कराती
हैं,कहीं ट्राई साईकल अपाहिजों को भेंट की जाती हैं,कोई
सर्दियों में गरीबों को कंबल व गर्म कपड़े वितरित करती हैं कोई
संस्था बेसहारा व गरीब लोगों को मु त राशन बांटती हैं,कुछ
संस्थाएं गरीब मरीज़ों का इलाज कराती हैं। कई धार्मिक संस्थाएं तो
बाकायदा नि:शुल्क अथवा नाममात्र शुल्क पर अस्पताल संचालित करती हैं।
रेडक्रास नामक अंतर्राष्ट्रीय सहायता संस्था तो पूरे विश्व में युद्ध
पीडि़तों,बाढ़ पीडि़तों तथा भूकंप पीडि़तों से लेकर गरीबों व
अपाहिजों हेतु विश्व स्तर पर अपना नेटवर्क चलाती है। वहीं बिल
गेटस,वारेन बफेट तथा अज़ीम प्रेमजी जैसे दुनिया के कई बड़े उद्योगपति
ऐसे हैं जो अरबों डालर का दान देकर मानवता के कल्याण हेतु
तरह-तरह की योजनाएं चलाते रहते हें। परंतु इनका मकसद नाम कमाना
या प्रसिद्धि मात्र के लिए इस प्रकार के पुनीत कार्य करना नहीं होता।
बल्कि यह सच्चे मन से और पूर्ण समर्पण व आस्था के साथ अपना कार्य संचालित
करते हैं। मीडिया स्वयं इन सबके द्वारा जनहित हेतु किए जा रहे
कार्यों का बखान करता रहता है। जबकि इनके अपने एजेंडे में यह बातें
शामिल नहीं होतीं।

स्थानीय स्तर पर लगभग प्रत्येक शहर में कुछ दानी सज्जन
ऐसे भी होते हैं जो न तो शोहरत चाहते हैं, न ही उन्हें किसी
प्रकार की वाहवाही या प्रशंसा की ज़रूरत होती है। मिसाल के तौर
पर हरियाणा के एक अस्पताल में लगभग दस-बारह रिटायर्ड बुज़ुर्गों का
एक ग्रुप जो अपने ही पैसों से तथा अपने ही शरीर से गरीब व असहाय
मरीज़ों को प्रतिदिन प्रात:काल एक ब्रेड व आधा लीटर दूध का एक
पैकेट अपने हाथों से अस्पताल में उनके बेड पर जाकर वितरित करता
है। इस ग्रुप ने अपनी संस्था का न तो केाई नाम रखा है न ही कोई
रसीद बुक प्रकाशित करवाई है। इन वरिष्ठ नागरिाकों में रिटायर्ड
बैंक अधिकारी, फौजी तथा अन्य कई लोग शामिल हैं। यदि कोई व्यक्ति
इनके कार्यों से खुश होकर स्वेच्छा से अपनी मनचाही रकम दान करता
है तो यह उसे स्वीकार भी कर लेते हें। परंतु अपने कार्य हेतु रसीद
छपवा कर दान वसूल करना इनकी योजना का हिस्सा नहीं है। अंबाला
शहर के सिविल अस्पताल में प्रात:काल अस्पताल शुरु होने से पूर्व यह
बुज़ुर्ग निर्धारित समय पर अस्पताल में इकट्ठा हो जाते हें। और पूरी
श्रद्धा के साथ अपना काम शारीरिक रूप से शुरु कर देते हैं। इनके साथ
शहर के ही कुछ ऐसे ही बड़बोले तथाकथित धर्मात्मा लोग भी जुड़े
जिन्होंने इनको मामूली धनराशि देकर उनके साथ मरीज़ों की सेवा
करनी चाही। परंतु ऐसे व्यक्तियों द्वारा कुछ ही दिनों बाद इन
बुज़ुर्गों के सामने वही प्रचलित प्रस्ताव रखे गये। यानी कमेटी
बनवाईए,बैंक खाता खुलवाईए और कमेटी का चुनाव कराईए आदि। इन
बुज़ुर्गों ने उन ‘महापुरुष’ को तुरंत अपने ग्रुप से बाहर का रास्ता
दिखाया तथा इस प्रकार के किसी भी पेशेवर संस्था जैसा कार्यकलाप करने
से इंकार कर दिया। इन सभी में आपस में पूरी पारदर्शिता है, सेवा भाव
है तथा अपने पैसे खर्च कर दिल से गरीबों की सेवा करने का पूरा जज़्बा
है। इनके नि:स्वार्थ सेवाभाव को देखकर जहां शहर के अनेक लोग
इनके साथ जुड़ने लगे हैं वहीं अंबाला शहर के प्रसिद्ध धर्मस्थान बड़ा
ठाकुरद्वारा के महामंडलेश्वर श्री प्रेमदास शासत्री जी ने भी इन्हें
इनके पुनीत कार्यों हेतु अपना आशीर्वाद दिया है।

लिहाज़ा हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम जो भी दान दें वह नि:स्वार्थ भाव से तथा किसी शोर-शराबे,विज्ञापन अथवा दिखावे के बिना दें। यदि परोपकार का विज्ञापन किया जाए या जिसके साथ परोपकार किया जा रहा है अथवा जिसे दान दिया जा रहा है उसका ढिंढोरा पिट गया तो जहां दान प्राप्त करने वाला व्यक्ति स्वयं को अपमानित व हीनभावना का शिकार महसूस करता है वहीं दानदाता के दान की महिमा भी कम हो जाती है। लिहाज़ा दान केवल दान देने के मकसद से किया जाना चाहिए न कि अपनी शान बढ़ाने के लिए।

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