खास को यूं आम मत बन बनाओ …प्लीज…!!

बचपन में अपने हमउम्र बिगड़ैल रईसजादों को देख कर मुझे उनसे भारी ईष्या होती थी। क्योंकि मेरा ताल्लुक किसी प्रभावशाली नहीं बल्कि प्रभावहीन परिवार से था। मैं गहरी सांस लेते हुए सोचता रहता … काश मैं भी किसी बड़े बाप का बेटा होता , या एट लिस्ट किसी नामचीन मामा का भांजा अथवा किसी बड़े चाचा का भतीजा ही होता तो मैं भी ऐसी शरारतें कर पाता। फिर आशावादी दृष्टिकोण मेरे मन को समझाता … अभी तो पूरी पिक्चर बाकी है मेरे दोस्त… इतना निराश होने की भी जरूरत नहीं है। किसी बड़ी हस्ती का बेटा, भतीजा या भांजा न बन सका तो क्या हुआ … क्या पता कल को मेरा रिश्ता किसी बड़े ससुराल से जुड़ जाए। मैं किसी बड़ी हस्ती का दामाद, जीजा या साढ़ू ही बन जाऊं। लिहाजा जिंदगी की लाख जिल्लतें झेलता हुआ मैं अभी ख्याली पुलाव में उलझा हुआ ही था कि धुर्तों की एक टोली मेरे घर शादी का रिश्ता लेकर आ धमकी। मुझे लगा कि शायद किस्मत बदलने का मेरा नंबर आखिरकार आ ही गया। बात लेने – देने की हुई तो मैने कहा कि कम से कम मुझे इतना तो दे ही दीजिए कि गृहस्थी के हल में जुतने लायक साम्थर्य मैं जुटा सकूं। इस पर शातिरों ने हंसते हुए जवाब दिया … बच्चे हम न तो दहेज के खिलाफ हैं और न ही हमारे पास पैसों की ही कोई कमी है… लेकिन ऐसा है कि हमारे खानदान में शादी में ज्यादा कुछ देने का रिवाज नहीं है। इस पर पलटवार करते हुए मैने कहा …. ठीक है दहेज नहीं देंगे तो कुछ ऐसा सामान तो दीजिएगा जिससे जिंदगी की गाड़ी आसानी से खींची जा सके …। बदले में जवाब मिला कि हमारे यहां शादी में सामान देने को दोष माना जाता है। आखिरकार मेरी अल्पबुद्धि को लगा कि ये लोग दरअसल कान घुमा कर पकड़ना चाहते हैं। बंदे न तो दहेज के खिलाफ हैं और न हीं इनके पास पैसों की कमी है तो फिर प्राब्लम क्या है… निश्चय ही इनका इरादा कुछ और है। जो चीजें शादी में दी जाती है हो सकता है उससे कई गुना ज्यादा ये शादी के बाद दें। बस फिर क्या था … राजी – खुशी मैं चढ़ गया सूली पर। लेकिन जल्द ही मुझे इस बात का अहसास हो गया कि मैं भयानक चक्रव्यूह में फंस चुका हूं। इसी का साइड इफेक्ट कहें कि भरी जवानी क्या किशोरावस्था में ही मैं बुढ़ापे की गति को प्राप्त होने लगा। अपने देश में अभिजात्य व ताकतवर व र्ग के साथ भी अक्सर यही दोहराने की कोशिश की जाती है। बेचारे कितनी मेहनत से किसी मुकाम पर पहुंचते हैं। लेकिन कभी कहा जाता है कि आम – आदमी के बीच रह कर उनकी परेशानियों को समझने की कोशिश करें तो कभी विशेष नहीं बल्कि साधारण विमान से यात्रा के उपदेश का महाडोज पिलाया जाता है। किसी बड़े नेता को सनक सवार हुई तो झट आदेश जारी कर दिया कि उनकी पार्टी के माननीय गांव – कुचे में जाकर गरीबों के घरों में सिर्फ रुकें ही नहीं बल्कि वहीं जो मिल जाए वही खाकर गुजारा करें। बीच में चलन चला कि सभी बड़े लोग अपना – अपना मोबाइल नंबर सार्वजनिक करें। नतीजा क्या हुआ… । बेचारों को क्या – क्या नहीं झेलना पड़ा। आधी रात को फोन करके लोग गली – कुचों की प्राब्लम नौकरशाहों व राजनेताओं को सुनाने लगे। बड़ी मुश्किल से मोबाइल स्विच आफ, नॉट रिचेबल अथवा नॉट रिस्पांडिंग करके सिरदर्द से छुटकारा मिला। लेकिन अब तो हद ही हो चुकी है कि मामला उनके बाल – बच्चों तक जा पहुंचा है। कहा जा रहा है कि बड़े लोगों के बच्चे भी सरकारी स्कूलों में पढ़ें। दलीलें पेश की जा रही है कि इससे समाज में समानता कायम होगी। हो सकता है सरकारी स्कूलों की दशा भी सुधर जाए। यह तो सरासर खास को आम बनाने की त्रासदी ही है। साधारण श्रेणी में यात्रा या गरीबों के घरों में कुछ खा – पी लेने तक तो बात ठीक थी, लेकिन यह क्या …। अब बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने भेजें। कहां तो गांव – कस्बों में भी लोग बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने से कतराते हैं और अब ….। हे भगवान….। क्या यही दिन देखने के लिए आम से खास बने थे। फिर भी आशावादी दृष्टिकोण रखते हुए ताकतवरों को निश्चिंत रहना चाहिए। आखिरकार साधारण श्रेणी में यात्रा व गरीबों के घर रुकने के सिलसिले का हश्र तो सबको पता ही है।govt school

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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

1 COMMENT

  1. इस देश में न्यायालय ही एक संस्था है जो हर समस्या का हल निकालने मैं सक्षम है. किन्तु न्यायालय की भावनाओं का आदर कहाँ तक होगा कठिन है?यदि राहुल गांधी मनमोहन सरकार का अध्य्दादेश नहीं फाड़ते तो बिहार के ६ वर्ष के लिए चुनाव से अयोग्य माने गए भाई साहेब अभी मुख्यमंत्री पद की हुंकार के साथ चुनाव में होते,वैसे उन्हें अपने किये और अपने पर हुई कारवाही का ज़रा भी रंजोगम छूकर भी नहीं गया है. नेताओं और अधिकारियों की एक ऐसी जमात खड़ी हो गयी जो हमेशा ”खास” ही बनी रहेगी ;;आम;कदापि नही.

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