दूसरों के बारे में नहीं, स्वयं के बारे में सोचे

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ललित गर्ग –

कई व्यक्ति भरपूर सुख-सुविधाओं के बावजूद अपने जीवन से असन्तुष्ट रहते हैं। ऐसा क्यों है? क्या धन, पद, सम्मान, ऐश्वर्य और सुख-सुविधाएं जीवन को आनन्द नहीं दे पा रहे हैं? जीवन में ऐसी क्या कमी रह जाती है, जिसके कारण सुख की तलाश पूरी ही नहीं होती। इसका कारण है कि सुख की तलाश की दिशा सही नहीं है, हम सुख बाहर खोजते हैं, जबकि वह भीतर विद्यमान है। हम सुख भौतिकता में खोजते हैं जबकि सुख वहां नहीं है। आज का मनुष्य एक ध्येय लेकर चलता है और वह है उसका अपना आर्थिक लाभ, भौतिक आकांक्षाएं और इन्हीं की उधेड़बुन में वह सब कुछ भूल जाता है और गोरखधंधों में जुता रहता है। यही से समस्याओं का शुरूआत होती है।
मनुष्य जीवनभर यही सीखने की कोशिश करता रहता है कि दूसरों के साथ कैसे रहे, दूसरों से कैसा व्यवहार हो, दूसरों को कैसे प्रभावित किया जाये, लेकिन वह यह नहीं सीख पाता कि अपने साथ कैसे रहे, स्वयं से स्वयं का व्यवहार कैसा हो, स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार कैसे किया जाये। यही स्थिति हमारी समस्याओं की जड़ है। मनुष्य बहुत सारे कार्य करता है। मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च जाता है, गीता, कुरान, बाइबिल, गुरुवाणी भी जपता है। अपने शरीर की भी अवहेलना करके भी भाग-दौड़ में लगा रहता है। उसका सारा ध्यान संसार पर केन्द्रित होता हैं। भटक रहे हैं इधर-उधर। वे दिशाहीनता के शिकार हैं। अपने सुख और आनन्द के लिए एक घेरे में लगातार चक्कर लगा रहे हैं। जबकि सुख का स्रोत वहां है ही नहीं। खुद को हर पल में स्वीकार करना और स्व से प्रेम करना ही सुख का मूल है। ‘हम जैसे भी है, अपने आप में बेहतरीन है’- यही भावना, आत्मसम्मान और विश्वास जगाएं और अपने गुण-दोषों का आंकलन करें। दलाई लामा ने कहा कि “मैं इस आसान धर्म में विश्वास रखता हूं। मन्दिरों की कोई आवश्यकता नहीं, जटिल दर्शनशास्त्र की कोई आवश्यकता नहीं। हमारा मस्तिष्क, हमारा हृदय ही हमारा मन्दिर है, और दयालुता जीवन-दर्शन है।”
किसी व्यक्ति के स्वयं के साक्षात्कार न होने को दो तरह से समझा जा सकता है। पहले तो इस तरह के व्यक्ति स्वयं को समझ नहीं रहे हंै। वे सक्रिय हैं और खूब सक्रिय हैं। पर्याप्त कार्य कर रहे हैं। चूंकि वे स्वयं के बारे में भी कभी सोचते ही नहीं है ंअथवा वे अपनी क्षमताओं व सीमाओं से अवगत नहीं हैं। इसलिए अपनी धुन में, अपनी दिशा में घूम रहे हंै। जबकि अपने गुण या दोषों को खोजकर उसी अनुसार आगे बढ़ना चाहिए। क्योंकि जो कार्य कर रहे हैं उनसे बेहतर करने की सामथ्र्य हमारे भीतर विद्यमान है। हॉवर्ड शैंडलर क्रिस्टी ने कहा कि “हर सुबह मैं पंद्रह मिनट अपने मस्तिष्क में प्रभु की भावनाओं को समाहित करता हूं, और इस प्रकार से चिंता के लिए इसमें कोई स्थान रिक्त नहीं रहता है।”
इसे यों भी अभिव्यक्त किया जा सकता है कि हम केवल सांसारिक चीजों की ओर आकृष्ट है। निजी हितों के लिये दौड़ रहे हंै। अपने लाभ के लिए जायज-नाजायज कार्य कर रहे हंै। वह घर, रिश्ते, बच्चें, अपनी दुनिया तक को परे रख केवल कुछ बनने या कमा लेने को अपने जीवन का ध्येय बना चुके हैं। उसे सिवाय इसके और कुछ भी नहीं सूझता है, न उसके चिंतन की परिसीमाओं में अपने लाभ के अतिरिक्त उसके लिए कुछ शेष रह गया है।
यहां यह स्पष्ट है कि दोनों ही तरह के लोग भटके हुए हैं। दोनों ही तरीकों से जीवन जीने वाले भ्रमित हैं। ऐसा भ्रम, जीवन में एक बार प्रविष्ट होने के बाद पिंड नहीं छोड़ता। अंतिम सांस तक वे मनुष्य को घेरे रहते हैं। एक तरह से वे जीवन की तमाम सरसता को ही लील लेते हैं। स्वयं को जानने व स्वयं से साक्षात्कार करने के लिए हमें नए सिरे से विचार करना होगा। इस प्रचलित घेरे से बाहर आना होगा। इस तरह अपने आप में सुधार करते हुए हम न केवल अपनी परेशानियों और समस्याओं के हल कर सकेंगे, बल्कि सुख और आनन्द का भी अनुभव प्राप्त कर सकंेगे। दुनिया को जानने और स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार के बीच उचित संतुलन जरूरी है।
दुनिया को जानना भी जरूरी है दुनिया में स्वयं को स्थापित करने के लिए। जगत को जानकर मनुष्य उसमें अपने होने को प्रमाणित करता है। अपने होने को प्रमाणित तो किया ही जाना चाहिए। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। सेसील एम. स्प्रिंगर ने कहा कि “सबसे बड़ी बात है कि स्वयं को चुनौती दें। आप स्वयं पर हैरान होंगे कि आप में इतना बल या सामर्थ्य है, तथा आप इतना कुछ कर सकते हैं।”
स्वयं को पहचानना और स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार जीवन की सार्थकता है। जब हम अपने भीतर झांकते हैं और जीवन को समझने की चेष्टा करते हैं तो हमारी स्थिति बहुत भिन्न हो जाती है। इससे बड़ा दूसरा कार्य क्या हो सकता है कि व्यक्ति जीवन को ही समझ ले। यह समझ में आने के बाद अवश्य वह अपनी सार्थकता की ओर बढ़ेगा। कम-से-कम उस ओर बढ़ने की संभावनाएं तो बनेगी। इन संभावनाओं का अपना महत्व होता है। अन्तस् में विचारों के जन्म के बाद व्यक्ति जब इस प्रवाह में शामिल हो जाता है तो उसके ज्ञानचक्षु खुलने लगते हैं। अंधेरे के, अज्ञानता के, भ्रम के बादल छंट जाते हैं। उजास हमारे भीतर एक सुख-शांति और आनन्द भर देता है।
हमारा जीवन हमारा अपना जीवन तो है ही, समाज में भी उसकी कुछ जगह है और समाज को हमारा जीवन भी कुछ प्रभावित करता हैं समाज के चरित्र में हमारा चरित्र भी समाहित होता है। यह ठीक उस तरह से है जैसे हम सभी की अच्छाइयां समाज की अच्छाइयां हैं। हमारी बुराइयां समाज की भी बुराइयां हैं। क्योंकि हम सभी समाज के अभिन्न अंग हैं। हमारी हर अच्छी और हर बुरी बात का समाज पर अच्छा और बुरा असर होता है। इसलिए व्यक्तिगत स्तर की शुचिता और सर्व-कल्याण की भावना पर जोर दिया जाता है। मार्था वाशिंगटन ने कहा कि “स्थितियां कैसी भी क्यों न हों, मैं अभी भी आनन्दमग्न और खुश रहने के लिए प्रतिबद्ध हूं, क्योंकि मैंने अनुभव से यह सीखा है कि हमारी खुशियों और दुखों बड़ा हिस्सा हमारी सोच पर निर्भर करता है न कि हमारी परिस्थितियों पर।”
मनुष्य जब स्वयं से साक्षात्कार करेगा तो वह स्वयं की सार्थकता का अनुभव भी करेगा। यह प्रेरणा जीवन में अभ्युदयकारी परिवर्तन लाती है। इससे व्यक्ति सांसारिक राग-विषयों से ऊपर उठ जाता है। वह अनागत के भय से मुक्त होता है। संसार-सागर में रहते हुए व्यक्तिगत प्रलोभनों से ऊपर उठना मुश्किल है। यह मुश्किल तभी आसान होती है जब हम स्वयं से स्वयं का संवाद करते हैं, मिलन करते हैं, मित्रता करते हैं तो एक शक्ति का प्रस्फुटन होता है। यह स्थिति मनुष्य को किसी और ही लोक में ले जाती है जहां उसे परम सुख का अनुभव होता है, जिस सुख के आगे संसार के सारे सुख गौण हैं। अतः ऐसे किसी अवसर को खोना नहीं चाहिए। इसके साथ ही ध्यान देने की बात यह भी है कि यथास्थितियों से उबर कर जीवन को ऐसी अनिवार्यताओं के लिए स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार के लिये सजग व धीर-गंभीर होना चाहिए। इससे नवीन पथ का उन्मेष होगा और हम सार्थक दिशा में आगे बढ़ सकेंगे।

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