डॉ. हरिवंशराय बच्चन: जन्मदिन विशेष

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harivansh raiक्या भूलूँ, क्या याद करूँ
प्रस्तुति – प्रतिमा शुक्ला

‘‘मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता
शत्रु मेरा बन गया है, छल रहित व्यवहार मेरा’’

यह पंक्तियाँ जैसे ही जेहन में उतरती हैं, कविवर डॉ. हरिवंशराय बच्चन का व्यक्तित्व व कृतित्व साकार हो जाता है। बच्चनजी का साहित्य पढ़ने से यह बात स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। काव्य रचनाओं के साथ-साथ उनके जिस साहित्यिक रूप ने इस उक्ति को प्रमाणित किया, वह है उनकी आत्मकथा। इतिहास में शायद ही किसी रचनाकार की आत्मकथा में अभिव्यक्ति का ऐसा मुखर रूप दृष्टिगोचर होता है। जीवन की आपा-धापी के बीच युगीन परिस्थितियों का ताना-बाना उसी रूप में प्रकट करना, यह किसी सच्चे ईमानदार रचनाकार का ही कर्म हो सकता है।
जीवन की आपा-धापी में कब वक्त मिला,
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला …
हर एक लगा है अपनी दे-ले में।
और यही दे-ले, आपको क्या भूलूँ क्या याद करूँ से लेकर नीड़ का फिर-फिर निर्माण करती हुए बसेरे से दूर ले जाकर दश-द्वारों वाले सोपान पर ठहरती है। यह आत्मकथा किसी एक व्यक्ति की निजी गाथा नहीं, अपितु युगीन तत्कालीन परिस्थितियों में जकड़े, एक भावुक कर्मठ व्यक्ति और जीवन के कोमल-कठोर, गोचर-अगोचर, लौकिक-अलौकिक पक्षों को जीवन्त करता महाकाव्य है।
अपनी पत्नी श्यामा के प्रति आप विशेष रूप से कृतज्ञ रहे, जो आपकी प्राथमिक काल की तुकबंदियों को पढ़कर बच्चन को इसी क्षेत्र में रमने की प्रेरणा देती रहीं। अपनी अस्वस्थता के कारण बच्चनजी की पहली पत्नी श्यामा चल बसीं। उनके साथ गुजरे जीवन के उन क्षणों को बच्चन ने बड़ी भावुकता से ऐसे साकार किया कि वे सभी युगलों के लिए एक प्रतीक बन गए।
बच्चन कहते हैं, मैंने श्यामा को जब पहले दिन देखा था तभी मुझे वह सरलता साकार लगी थी। टेढ़ी दुनिया से कुछ अलग, जैसे किसी को अपने को पूर्ण समर्पित कर निश्चिंत होने को आतुर… उसके विषय में मेरे पास कहने को बहुत कुछ है। पर मैं जान रहा हूँ कि कितना भी कहकर न मुझे तृप्ति होगी न उसके प्रति न्याय होगा।
डॉ. हरिवंश राय बच्चन हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनका जन्म 27 नवंबर, 1907 को इलाहाबाद के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय तथा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद सन1941 से 1952 तक वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंगे्र्रजी के प्राध्यापक रहे।
उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डब्ल्यू.वी. येट्स एंड ऑकल्टिजमश् विषय पर शोध किया। फिर कुछ महीने आकाशवाणी, इलाहाबाद में काम करने के बाद 1955 में वे भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में विशेष कार्याधिकारी (हिंदी) नियुक्त हुए। सन 1966 में उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया।
1926 में 19 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ था जो इस समय 14 वर्ष की थी, दुर्भाग्य वश 1936 में श्यामा की टीबी के कारण मृत्यु हो गई। श्यामा की मृत्यु नें उनके काव्य में घोर निराशा और वेदना भर दी थी, किंतु यह अंधकार शीघ्र ही छट गया और वे पुनरू मधुरता, आस्था और विश्वास के गीत गाने लगे। 1941 में बच्चन ने तेजी सूरी से विवाह किया जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थीं। बच्चन नें 1973 में अपना काव्य सृजन लगभग समेट लिया था। हिन्दी कविता और साहित्य के इस मूर्धन्य कवि का निधन 18 जनवरी 2003 को मुम्बई में हुआ।
बच्चनजी सन 1935 में मधुशाला के कारण ख्यात हुए। यह रचना तब से लेकर आज तक पाठकों को मदमत्त करती आ रही है। उनकी अन्य रचनाओं में मधुकलश, मधुकाव्य, खादी के फूल प्रमुख हैं। बच्चनजी ने अपनी आत्मकथा चार खंडों में लिखी। ये खंड सन 1969 से 1985 की अवधि में प्रकाशित हुए। इनके नाम हैं- क्या भूलूँ क्या याद करूँ (जन्म 1936 तक), नीड़ का निर्माण फिर (1951 तक), बसेरे से दूर (1955 तक) और दशद्वार से सोपान तक (1985 तक)
उन्हें पद्म भूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार, अफ्रीका-एशिया लेखक संघ कॉन्फ्रेंस का लोटस पुरस्कार, साहित्य वाचस्पति उपाधि तथा प्रथम सरस्वती सम्मान से नवाजा जा चुका है।
पंतजी ने अमिताभ का नामकरण किया था। तेजी तो बड़ी तीव्र गति से बदल रही थीं। मैंने उन्हें प्रेयसी के रूप में जाना ही था कि वे पत्नी हो गईं, पत्नी होते उन्हें देर नहीं लगी कि उनमें मातृत्व का बीजारोपण हो गया। नारी बड़ी लचीली होती है, वह परिवर्तनों को बड़ी आसानी से झेल लेती है। पुरुष इतना नमनीय नहीं होता। प्रेमी से पति और पति से भविष्य पिता इस परिवर्तन के प्रत्यक्ष होने पर भी मेरा मन अभी अपने प्रेमी रूप पर ही अटका था।

उन्होने कहा -विवाह के कई वर्षों बाद तक जो मैं प्रेम की कविताएँ लिखता रहा, शायद उसका एक रहस्य यही है। फिर मैं कवि था, कलाकार था। मेरे भौतिक जीवन के विकास के साथ, समानांतर मेरा एक वांगमय जीवन भी चल रहा था। जीवन सहसा घटित का अनभ्यस्त नहीं, कला की दुनिया उससे अपनी पटरी नहीं बिठा पाती। मेरे वांगमय जीवन को कला की सहज, स्वाभाविक, क्रमानुगत गति से ही बदलना था। इसकी ओर शायद मैं पहले भी संकेत कर चुका हूँ। मुझे समझने में थोड़ा मेरे कवि को भी समझना होगा।
मधुशाला की कुछ पंक्तियां
यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला
पी न होश में फिर आएगा सुरा- विसुध यह मतवाला
यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला
किस पथ से जाऊँ? असमंजस में है वह भोलाभाला
अलग- अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतलाता हूँ –
राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला

2 COMMENTS

  1. पिछले दिनों अमेरिका में रह रहे हिंदी के महान कवि श्री गुलाब खण्डेलवाल जी से बात हो रही थी! उन्होंने बच्चनजी से जुड़ा एक प्रसंग सुनाया! १९६३ में दिल्ली आये थे तो श्री बच्चन जी से मिलने चले गए! बच्चन जी ने देखते ही कहा,”गुलाब बड़े समय से आये हो!आज दिल्ली में भारत की सभी भाषाओँ का एक सर्वभाषीय कवि सम्मलेन होगा! और उसमे हिंदी कविता पाठ तुम्हे करना होगा!” शाम को कवि सम्मेलन हुआ! और नियत समय पर गुलाब जी भी पहुँच गए! कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रधान मंत्री पं. नेहरू थे! और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी भी अध्यक्ष के नाते मौजूद थे! मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में कह दिया कि राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रतिनिधि के रूप में गुलाब जी यहाँ हैं! इतना सुनते ही नेहरू जी बुरी तरह से भड़क गए और उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त जी को हटाकर माईक लेकर चिल्ला कर कहा कि कौन कहता है कि हिंदी राष्ट्रभाषा है!कहीं पर भी हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया गया है! नेहरूजी के व्यव्हार से राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी बुरी तरह आहत हुए! और सारा वातावरण एकदम सन्नाटे में बदल गया! तो यह थी प्रथम प्रधान मंत्रीजी कि हिंदी के प्रति भावना जिसने आजतक हिंदी को उसके सम्मानित स्थान से वंचित रखा है!

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