डॉ. लोहिया की धारा और विचारधारा

-सत्येनद्र सिंह ‘भोलू’

कहते है वक्त बड़ा बेरहम होता है और उसके साथ जुडा इतिहास निरंतर कुचक्र रचता है। महात्मा गांधी जैसे महापुरूष भाग्यशाली होते है जिनके नाम के साथ उनकी विचार धारा को वक्त स्वीकार करता है और इतिहास भी याद रखता हैं लेकिन उनके बारे मे क्या कजिनके नाम को याद रखने को इतिहास मजबूर तो होता है, लेकिन विचारधारा को वक्त लगभग धो डालता है। बीसवीं सदी के इतिहास में डॉ. राम मनोहर लोहिया ऐसे ही महापुरूष हुए है और उस बीसवीं सदी के बारे में डॉ. साहब ने कहा था ” यह दुनिया का सबसे बेरहम युग है और न्याय के लिए उठ खडा होने वाला युग भी” लेकिन डॉ. लोहिया जी के साथ बीसवीं सदी ने न्याय नही किया। यह उनकी शख्सियत थी जिसके कारण वे आज भी इतिहास के पन्ने पर नजर आते है। लेकिन उनकी नीतियों को इस देश ने याद नहीं रखा।

मित्रों, महात्मा गांधी के बाद डॉ. लोहिया ही एक ऐसे व्यक्ति थे जो स्वयं सर्वार यानी सबकुछ त्याग करने वाले थे। वैचारिक दृष्टिकोण से बापू और डॉ. लोहिया एकाकार थे। डा0 लोहिया बापू के बेहद करीब थे कई मामलों में नेहरु जी से ज्यादा। 1946 में जब गोवा में पुर्तगाल की लिस्बन सरकार ने डॉ. लोहिया को गिरफ्तार किया तो बापू तिलमिला उठे और साफ शब्दों में कह दिया कि ”जब तक लोहिया पणजी मे गिरफ्तार है, मैं चुप नहीं बैठ सकता।

डॉ. लोहिया मानते थे कि ज साधारण की उदासीनता के कारण ही हिन्दुस्तान विदेशी हमले का शिकार रहा। उन्होंने पिछड़े वर्ग मुसलमानों, महिलायें, आदिवासी, हरिजन जो नब्बे प्रतिशत थे, को संगठित कर जातिवाद पर जबरदस्त हमला किया। वे मानते थे कि जाति प्रथा के ऊपर सांस्‍कृतिक, राजनीतिक व आर्थिक हमला होना चाहिए जिससे एक दृढ़ समाज बने।

दृढ़ और मजबूत समा बनाने के लिए जनता की उदासीनता देश के प्रति खत्म होनी चाहिए। अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व का खात्मा होना चाहिए।

1949 में लंदन में एक पत्रकार वार्ता में डॉ. लोहिया ने कहा था कि तिब्बत चीन का हिस्सा नहीं अपितु भारत और चीन के बीच का बफर स्टेट है। उस समय एक आवाज उठी थी जो डॉ. लोहिया की थी उस समय की तत्कालीन कांग्रेस की सरकार ने डॉ. साहब की बात अनसुनी कर दिया जिसका परिणाम हुआ कि तिब्बत पर चीन का कब्जा हो गया।

आज जो पंचायती राज्य की संस्थापना हुयी है जिसका श्रेय कांग्रेसी लेते है वास्तव में ये सोच डॉ. लोहिया की थी। लोहिया जी की विचारधारा थी कि साधारण जनों का प्रशासन में आम हिस्सा लेने का एक मात्र उपाय देश की सार्वभौम सत्ता का विभाजन है। वे मानते थे कि सत्ता का विभाजन केवल केन्द्र और राज्य में न होकर जिले तथा गांव स्तर पर भी होना चाहिए। उनका मानना था राष्‍ट्र (देश) को चार खम्भों पर आधारित होना चाहिए। डॉ. लोहिया की इसी आवधारणा को विकेन्द्रीय प्रजातंत्र और चौखम्भा राज कहा जाता है।

डॉ. लोहिया जब केवल दस वर्ष के थे तब उन्होंने गांधी के सत्याग्रह में भाग लिया था और वह आयोजन लोकमान्य वालगंगाधर तिलक के निधन पर हड़ताल का था। सत्य के प्रति गांधी जी के आग्रह ने उन्हें काफी प्रभावित किया और वे जीवन पर्यत इसके हिमायती बने रहे। मित्रों ये कमाल की बात है लोहिया जी जिस समाजवाद के पैरोकार थे वही भावना अमर शहीद सरकार भगत सिंह की भी थी। क्रान्ति की भावना लोहिया जी में कूट-कूट कर थी, लेकिन वे मानते थे क्रान्ति रक्तिहीन होनी चाहिए।

डॉ. लोहिया कटर राष्‍ट्रवादी थे लेकिन विश्‍व सरकार का सपना देखते थे। वे दुनिया के तमाम मनुष्‍यों को एक हो जाने की बात किया करते थे। मानवता की दृष्टि से वे पूर्व-पश्विम, काले गोरे, अमीर-गरीब, छोटे-बडे राष्‍ट्र तथा नर-नारी के बीच दूरी मिटाना चाहते थे। वे कहते थे आणुविक हथियारों के साथ तलवार व पिस्तौल जैसे भी हथियार प्रतिबंधित हो, यही उनकी सप्तक्रान्ति का स्वरुप था। लोहिया जी स्पष्‍ट कहा करते थे कि प्रजातन्त्र और समाजवाद एक सिक्के के दो पहल है। यदि हम यह कहे कि डॉ. लोहिया कई सिद्वान्तों और क्रान्तियों के जनक थें तो कोई अतिष्योक्ति नहीं होगी। वे सभी अन्याय के खिलाफ एक साथ क्रान्ति की बात करते थे। चाहे वह लैंगिक विभेद हो, रंगभेद हो, आर्थिक असमानता हो, निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप हो या जातिप्रथा।

डॉ. लोहिया के व्यक्तित्व को समझने के लिए भारत माता से उनके आग्रह पूर्ण वाक्य पर नजर डालिए उन्होंने कहा ”हे भारत माता, हमें शिव का मस्तिक दो, कृष्‍ण का हृदय दो और राम का कर्म व वचन दो, हमें जीव की मर्यादा से रचो। ” यह वाक्य बताता है कि वे किस दर्जे के महापुरूष थे। उनकी स्पष्‍ट सोच थी कि भारतीय प्राचीन दर्षन के सत्यम, शिवम, सुन्दरम और आधुनिक विश्‍व के समाजवाद स्वतंत्रता और अहिंसा को दुनिया के समक्ष इस तरह रखना होगा कि दोनो ही दर्शन एक दूसरे का स्थान ले सके।

लोहिया दर्शन ऐसा है जिस पर कई ग्रंथ लिखे जा चुके है, लेकिन यह भी वास्तविकता है कि आज की युवा पीढ़ी अभी भी लोहिया से दूर है। वे विद्रोही युवा पीढ़ी तैयार करना चाहते थे। लेकिन आज जो पीढ़ी तैयार हुयी है। उसके भीतर सामाजिक अन्याय को लेकर कही विद्रोह नजर नहीं आता क्योकि उसे लोहिया का पाठ पढते नहीं दिया गया। आज जिस आधुनिकता के अंधे दौर में हम शामिल है वह समस्या ही ज्यादा पैदा कर रहा है, सकून नहीं दे रहा। लोहिया ने जिस समाजदर्शन की बात की थी वह मानवता को सुकून देने वाला था। उन्होंने भौतिक समाजवाद की बात की बात कही, उन्होंने राजनीतिक समाजवाद की बात कही, उन्होंने आर्थिक समाजवाद की बात कही लेकिन हमने सब कुछ भुला दिया अपने आपको पूंजीवाद, साम्यवाद और व्यक्तिवाद के बीच फंसा लिया हैं। इन तीनों से जब हम मुक्त होंगे तभी डॉ. लोहिया के संकल्प पूरे होंगे।

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