डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी: जीवन वृत्त

स्वतंत्र प्रभुतासम्पन्न भारत के निर्माताओं में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम उल्लेखनीय है। जो एक महान देशभक्त, शिक्षाविद, संसदविज्ञ, राजनेता, मानवतावादी और इन सबसे ऊपर राष्ट्रीय एकता और अखंडता के समर्थक थे। 6 जुलाई, 1901 को कलकत्ता में जन्मे श्यामा प्रसाद को विद्वत्ता, राष्ट्रीयता की भावना और निर्भयता अपने पिता श्री आशुतोष मुखर्जी से विरासत में प्राप्त हुई थी। जिनका कलकत्ता विश्वविद्यालय के उप-कुलपति और कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने के नाते बंगाल में एक विशिष्ट स्थान था। उनकी माता श्रीमती जोगमाया देवी एक श्रद्धामयी हिन्दू महिला थी जो अपने पति, परिवार और धर्म के प्रति पूर्णतः समर्पित थी। उच्च ब्राह्मण परिवार होने और समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त होने के कारण मुखर्जी परिवार का घर भवानीपुर, कलकत्ता में जहां एक ओर ‘‘पूजा-भाव’’ के लिए प्रसिद्ध था वहीं दूसरी ओर उसे सरस्वती का मन्दिर भी माना जाता था।

युवा श्यामा प्रसाद का लालन-पालन एक ऐसे वातावरण में हुआ था जहां उन्हें पूजा, अनुष्ठानों, धार्मिक कृत्यों और उत्सवों को देखने का सौभाग्य तथा अपने पिता और भारत के सभी भागों एवं विदेशों से आये महान विद्वानों के बीच अद्यतन और वैज्ञानिक विषयों पर हुई चर्चा को सुनने का सौभाग्य प्राप्त था। वास्तव में, इससे उनमें भारत की पुरातन संस्कृति के प्रति गहरी आस्था और पाश्चात्य विचारों और ज्ञान के प्रति लगाव पैदा हुआ। श्यामा प्रसाद के जीवन की विशेषता यह है कि उनमें हिन्दुओं के अध्यात्मवाद, सहनशीलता और मानवीयता, गुणों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं गहरी समझ के साथ सुन्दर समन्वय हो गया था। यह विशेषता शिक्षाविद् और संसदविद के रूप में उनके पूरे जीवन में परिलक्षित होती रही।

उनकी शिक्षा

श्यामा प्रसाद ने अपनी स्कूली शिक्षा मित्तर इन्स्टीट्यूट, भवानीपुर से ग्रहण की जिसकी स्थापना श्री विश्वेश्वर मित्तर ने विशेषकर उनके पिता श्री आशुतोष की प्रेरणा से की थी। सर अशुतोष के वात्सल्यपूर्ण संरक्षण में प्राप्त घर एवं विद्यालय में दिये गये उचित प्रशिक्षण से श्यामा प्रसाद के जन्मजात गुण एवं प्रतिभा उत्तरोत्तर निखरती गई। विद्यालय स्तर पर ही उन्होंने एफ.ए. और बी.ए. के पाठ्यक्रमों के लिए निर्धारित पुस्तकों को पढ़ लिया था। उनके पिता उन्हें अक्सर कलकत्ता विश्वविद्यालय ले जाया करते थे जहां उन्हें विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों के साथ विचारों के आदान-प्रदान का अवसर प्राप्त होता था।

सोलह वर्ष की आयु में उन्होंने मित्तर इंस्टीट्यूट से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की जिसमें उन्हें छात्रवृत्ति प्राप्त हुई और प्रेजीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता में प्रवेश प्राप्त किया। वर्ष 1919 में उन्हें इंटर आर्ट्स की परीक्षा में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ और 1921 में अंग्रेजी में बी.ए. आनर्स की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। परन्तु राष्ट्रीयता की उद्दात्त भावना ने श्यामा प्रसाद को एम.ए. में अंग्रेजी विषय लेने से रोक दिया। इसलिए एम.ए. में अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय भाषायें- बांग्ला और एक अन्य भारतीय भाषा लेकर उन्होंने वर्ष 1923 में एम.ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। एम.ए. में उन्होंने एक भारतीय भाषा अपने पिता की इस नीति के अनुसरण में ली थी कि बांग्ला और अन्य भारतीय भाषाओं को विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा में उचित स्थान प्राप्त हो, क्योंकि तब तक विश्वविद्यालय स्तर पर केवल अंग्रेजी का प्रभुत्व था। अप्रैल, 1922 में जब वह एम.ए. कर रहे थे, उनका विवाह सुधा देवी से हुआ जिन्होंने चार बच्चों को जन्म देकर 1934 में स्वर्ग सिधारा। श्यामा प्रसाद उस समय केवल 33 वर्ष के थे, फिर भी उन्होंने पुनर्विवाह न करने का निर्णय लिया।

विश्वविद्यालय में एक मेधावी विद्यार्थी के रूप में उनकी ख्याति फैल गई थी और इसी कारण उन्हें प्रेजीडेंसी कॉलेज पत्रिका का महासचिव नियुक्त किया गया जोकि युवा श्यामा प्रसाद के लिए बहुत बड़ा सम्मान था। कॉलेज पत्रिका का सम्पादक होने के नाते उन्हें अपने को अभिव्यक्त करने और कुछ समय के लिए पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने 1922 में एक बंगाली पत्रिका ‘बंग वाण’’ प्रारम्भ की और 1923-24 में उन्होंने पेट लावेल द्वारा ‘‘डिच’’ उप छद्म नाम से सम्पादित पत्रिका ‘‘केपिटल’’ के लिए नियमित रूप से लेख भी लिखे। प्रारम्भ में पत्रकारिता के प्रति उनका संबंध थोड़े समय ही रहा था किन्तु उन्होंने पांचवे दशक में पुनः पत्रकारिता का कार्य प्रारम्भ किया और उन्होंने कलकत्ता से अपना ‘‘द नेशनलिस्ट’’ नामक दैनिक समाचार पत्र निकालना आरम्भ किया।

वर्ष 1924 में उन्होंने बी.एल. उत्तीर्ण किया और इस परीक्षा में भी विश्वविद्यालय से प्रथम रहे। उन्होंने डी. लिट और एल.एल.डी. की उपाधियां भी प्राप्त कीं। 1926 में वह लिंकन्स इन (इंग्लैड) में कार्य करने लगे थे किन्तु 1927 में उन्हें वहां से ‘‘इंग्लिश बार’’ में बुला लिया गया। किन्तु उन्होंने वकालत नहीं की। इंग्लैंड में रहते हुए उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विश्वविद्यालयों के सम्मेलन में कलकत्ता विश्वविद्यालय का बखूबी प्रतिनिधित्व किया और तब से ही उनकी गिनती भारत के शीर्षस्थ शिक्षाविदों में की जाने लगी।

विद्यार्थी जीवन से ही वह कलकत्ता विश्वविद्यालय का कामकाज देखने में अपने पिता की सहायता करते रहे थे। किन्तु 1923 में अपने पिता की मृत्यु के बाद तो वह विद्यार्थी होते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में उतर आये। कुलपति के रूप में अपने पिता की शिक्षा योजनाओं और नीतियों की उन्हें गहरी समझ थी। 1924 में वह विश्वविद्यालय सीनेट और सिंडीकेट के लिए चुने गये और उन्होंने बंगाल विधान परिषद में कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। 1930 में जब कांग्रेस ने विधान मंडलों का बहिष्कार करने का निर्णय किया तो उन्होंने विधान परिषद से त्यागपत्र दे दिया परन्तु शीघ्र ही अपने विश्वविद्यालय के हितों की रक्षा के लिए स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में पुनः विधान परिषद के सदस्य बन गये किन्तु उनका मुख्य कार्य शिक्षा क्षेत्र की सेवा करना ही रहा।

1934 में श्यामा प्रसाद कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे कम आयु के कुलपति बने और इससे उन्हें अपने देशवासियों की शिक्षा के संबंध में अपने उद्देश्यों और आदर्शों को साकार बनाने का अवसर प्राप्त हो गया। कुलपति के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान रविन्द्र नाथ टैगोर ने दीक्षांत समारोह में बंगला में भाषण दिया और इसके साथ ही बंगला और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी के प्रभुत्व का युग समाप्त हो गया।

एक राष्ट्रवादी के रूप में

भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रांतीय भाग को वर्ष 1937 में लागू किये जाने और प्रांतीय विधान मंडलों के लिए चुनावों से देश में स्थिति ने एक नया मोड़ लिया। वह विश्वविद्यालय निर्वाचन क्षेत्र से पुनः बंगाल विधान मंडल में सदस्य बने और इससे उन्हें प्रांतीय स्वायत्ता के कार्यकरण का निकट से अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ। 250 सदस्यों के सदन में हिन्दुओं को केवल 80 स्थान दिये गये थे जिन पर अधिकतर कांग्रेस पार्टी के लोग निर्वाचित होकर आये थे। शेष सदस्य मुस्लिम और ब्रिटिश हितों की रक्षार्थ थे। मुस्लिम सदस्य मुस्लिम लीग और कृषक प्रजा पार्टी में बंटे हुए थे। यदि कांग्रेस पार्टी ने कृषक प्रजा पार्टी के साथ मिलकर सरकार बना ली होती तो बंगाल में मुस्लिम लीग के बिना ही स्थायी सरकार बन जाती। विधान मंडल में और उससे बाहर कांग्रेस इस स्थिति से जिस ढंग से निपटी उसने श्यामा प्रसाद को कांग्रेस की नीतियों और राजनैतिक विचारधारा के संबंध में नये सिरे से विचार करने के लिए मजबूर कर दिया।

अपनी सरकार बनाते हुए मुस्लिम लीग ने शैक्षिक ढांचे पर, जिसे उनके पिता और स्वयं उन्हांेने बड़ी लगन से तैयार किया था, प्रहार करने का निर्णय लिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्पष्ट और महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करके मुस्लिम लीग के साथ समझौता करने की नीति उनकी सहज राष्ट्रवादी भावना के प्रतिकूल थी और इसी कारण उन की अंतरात्मा ने उन्हें सक्रिय बना दिया। जब वह कांग्रेस नेताओं को इस बात के लिए मनाने में सफल न हुए कि मुस्लिम लीग को पूरी अवधि तक सत्ता में न रहने दिया जाये तो उन्होंने अकेली ही मुस्लिम लीग को गिराने का प्रयास करने का निर्णय किया। उन्होंने विधान मंडल में सभी गैर-कांग्रेस हिन्दू ताकतों को एकजुट किया। और कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर फजल-उल-हक के नेतृत्व में प्रगतिशील संयुक्त सरकार बनायी जिसमें वे स्वयं वित्त मंत्री बने। इस प्रयास से वे एक व्यावहारिक और दूरदर्शी राजनेता के रूप में प्रतिष्ठित हो गये।

इसी अवधि के दौरान, वीर सावरकर की प्रेरणा से वह हिन्दू महासभा में शामिल हुए और उन्होंने इस राष्ट्र विरोधी ताकतों को पराजित करने का साधन बनाया। इसके तुरंत बाद 1939 में वह इसके कार्यवाहक अध्यक्ष बने और घोषणा की कि हिन्दू महासभा का राजनैतिक लक्ष्य भारत को पूर्ण स्वाधीनता दिलाना है। महात्मा गांधी ने उनके हिन्दू महासभा में शामिल होने का स्वागत किया क्योंकि गांधी जी यह मानते थे कि मालवीय जी के बाद हिन्दुओं का मार्गदर्शन करने के लिये किसी योग्य व्यक्ति की जरूरत थी। गांधी जी श्यामा प्रसाद के पूर्ण राष्ट्रीयतावादी दृष्टिकोण से प्रभावित थे और बताया जाता है कि उन्होंने श्यामा प्रसाद जी से यह कहा था कि ‘‘पटेल हिन्दू समर्थक विचारधारा वाले कांग्रेसी हैं आप कांग्रेस की विचारधारा सहित हिन्दू सभा के सदस्य बने रहें।’’

1943 में, श्यामाप्रसाद ने पुलिस और सामान्य प्रशासन में प्रान्तीय सरकार के कामकाज में गवर्नर और नौकरशाही द्वारा किए गए हस्तक्षेप के विरोध में बंगाल मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और बहुप्रचारित प्रांतीय स्वायत्तता को ‘हास्यास्पद’ बताया। मंत्रिपद ठुकराने के उनके तरीके से यह साफ जाहिर हो गया कि किसी भी प्रकार का प्रलोभन उन जैसे व्यक्ति को अपने कत्र्तव्य-पथ से डिगा नहीं सकता। लार्ड लिनलिथगो के साथ हुए उनके पत्र व्यवहार, जिसमें उन्होंने बन्दी नेताओं को रिहा करने, जनता पर विश्वास करने और जापान की धमकी का सामना करने के लिए नेशनल डिफेंस फोर्स तैयार करने का आग्रह किया था, अपने आप में इस बात का सबूत है कि वह राष्ट्रीय हितों के प्रति दृढ़ता से समर्पित होते हुए भी दूसरों को अपनी बात मनवाने का प्रयास करते थे।

मानवतावादी के रूप में

1943 में बंगाल में पड़े अकाल के दौरान श्यामा प्रसाद का मानवतावादी पक्ष निखर कर सामने आया, जिसे बंगाल के लोग कभी भुला नहीं सकते। भले ही उनमें से कुछ को उनकी राजनीति पसंद नहीं थीं। बंगाल पर आए संकट की ओर देश का ध्यान आकर्षित करने के लिए और अकाल-ग्रस्त लोगों के लिए व्यापक पैमाने पर राहत जुटाने के लिए उन्होंने प्रमुख राजनेताओं, व्यापारियों समाजसेवी व्यक्तियों को जरूरतमंद और पीडि़तों को राहत पहुंचाने के उपाय खोजने के लिए आमंत्रित किया। फलस्वरूप बंगाल राहत समिति गठित की गई और हिन्दू महासभा राहत समिति भी बना दी गई। श्यामा प्रसाद इन दोनों ही संगठनों के लिए प्रेरणा के स्रोत थे। लोगों से धन देने की उनकी अपील का देशभर में इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि बड़ी-बड़ी राशियां इस प्रयोजनार्थ आनी शुरू हो गई। इस बात का श्रेय उन्हीं का जाता है कि पूरा देश एकजुट होकर राहत देने में लग गया और लाखों लोग मौत के मुंह में जाने से बच गए।

वह केवल मौखिक सहानुभूति प्रकट नहीं करते थे बल्कि ऐसे व्यावहारिक सुझाव भी देते थे, जिनमें सहृदय मानव-हृदय की झलक मिलती जो मानव पीड़ा को हरने के लिए सदैव लालायित और तत्पर रहता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने संसद में एक बार कहा थाः- ‘‘अब हमें 40 रू. प्रतिदिन मिलते हैं, पता नहीं भविष्य में लोक सभा के सदस्यों के भत्ते क्या होंगे। हमें स्वेच्छा से इस दैनिक भत्ते में 10 रूपए प्रतिदिन की कटौती करनी चाहिए और इस कटौती से प्राप्त धन को हमें इन महिलाओं और बच्चों (अकाल ग्रस्त क्षेत्रों के) के रहने के लिए मकान बनाने और खाने-पीने की व्यवस्था करने के लिए रख देना चाहिए।’’

अखंड भारत के लिए संघर्षशील व्यक्ति के रूप में

क्रिप्स प्रस्ताव, जिसमें पहली बार धर्म के आधार पर भारत के विभाजन के सिद्धांत को स्वीकार किया था, को अस्वीकार कर दिए जाने के कारण अधिकतर कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था और इसी से मुस्लिम लीग को ढुलमुल मुस्लिमों का दल जीतकर स्वयं को उनकी बात कहने वाली संस्था के रूप में स्थापित करने का उपयुक्त अवसर मिल गया। देश के विभाजन की मांग कर दृढ़ मुस्लिम लोग ने प्रांतीय विधानमंडलों के चुनाव इसी मुद्दे को लेकर लड़ने का निर्णय किया परिणामतः चुनाव में मुस्लिम लीग को सिंध, पंजाब और बंगाल में स्पष्ट बहुमत मिल गया जिसके कारण मुस्लिम लीग विभाजन की मांग को अधिक जोर ढंग से करने लगी।

श्री सी. राजगोपालाचारी द्वारा तैयार की गई योजना जिसे ‘सी.आर. फार्मूला’ नाम से जाना जाता है, में देश के विभाजन को व्यावहारिक रूप से स्वीकार कर लिया गया था। श्यामा प्रसाद की राय में यह बड़ी खतरनाक और भारी चिंता का विषय था। उन्होंने देश के विभाजन के विरूद्ध देशव्यापी अभियान छेड़ा। उन्हंे यह जानकार आश्चर्य हुआ कि ब्रिटिश केबिनेट मिशन ने, जिसके समक्ष वह देश-विभाजन के विरूद्ध बोल रहे थे, उनके सामने कांग्रेस कार्यकारी समिति का वह पूरा-संकल्प रखा, जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस ऐसे किसी भी पक्ष के साथ जोर-जबरदस्ती नहीं करेगी, जो भारत में रहने का इच्छुक न हो। उन्होंने वर्ष 1946 के चुनावों में कांग्र्रेस का इसलिए समर्थन किया था; क्योंकि सरकार पटेल ने उन्हें विश्वास दिलाया था कि कांग्रेस कभी भी विभाजन को स्वीकार नहीं करेगी। उन्हें तब तक यह पता ही नहीं चला था, कि कांग्रेस कार्यकारी समिति पहले ही मुस्लिम प्रांतों को भारत से अलग होने के अधिकार को मान चुकी है।

तत्पश्चात् श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत के हितों के सुरक्षा के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दीं। उनके बंगाल हिन्दु जगत का भरपूर समर्थन मिला। कुछ भागों में विरोध के बावजूद पाकिस्तान बनने की मांग मान लिए जाने स्थिति में बंगाल विभाजन की मांग इतनी जोर पकड़ गई कि ब्रिटिश सरकार, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के लिए इसका सामना करना असंभव हो गया। अतः उनके प्रयासों से आधा पंजाब और आधा बंगाल, भारत के लिए बचाया जा सका। उनकी यह उक्ति उनके प्रत्युत्तर की भावना को स्पष्ट करती है- ‘‘कांग्रेस ने भारत का विभाजन किया है और मैंने पाकिस्तान का विभाजन किया है।’’

एक मंत्री के रूप में

अगस्त, 1947 में गांधी जी ने श्यामा प्रसाद को प्रथम राष्ट्रीय सरकार में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने इस आशा से यह आमंत्रण स्वीकार किया कि वह स्वतंत्र भारत की नीतियों को, इसके आरंम्भिक चरण में ही प्रभावित कर सकेंगे और करोड़ों ऐसे हिन्दुओं के हितों की रक्षा कर सकेंगे, जो अपनी इच्छा के विरूद्ध पाकिस्तान में ही छूट गए थे। उनको उद्योग और पूर्ति मंत्रालय का प्रभारी मंत्री बनाना ही उनकी निष्ठा और देश के महत्वपूर्ण औद्योगिक और आर्थिक समस्याओं को समझने की उनकी शक्ति पर पूरा-पूरा विश्वास करना था।

केन्द्रीय मंत्रिमंडल में, उद्योग और पूर्ति मंत्री होने के नाते, उन्होंने देश में तीन विशाल औद्योगिक उपक्रमों अर्थात् चितरंजन लोकोमोटिव फैक्ट्रीज, सिंदरी, उर्वरक निगम और हिन्दुस्तान एयरक्राट्स फैक्टरी, बंगलौर की स्थापना करके देश के औद्योगिक विकास की मजबूत आधारशिला रख दी थी। वह प्रत्येक योजना को, जनहित में इसकी उपयोगिता और व्यवहारिकता के आधार पर आंकते थे, और इस संबंध में वह किसी भी हठधर्मिता या विचार से बंधे हुए नहीं थे।

नीति संबंधी प्रमुख मामलों में, विशेषकर पाकिस्तान के मामले में, पंडित नेहरू के साथ उनके मतभेद प्रारंभ में ही उभर कर सामने आ गए। शरणार्थियों के प्रति उनका मन इतना दुखी हुआ कि वह शारीरिक रूप से उस दौरान बहुत कमजोर हो गए जब पाकिस्तानियों द्वारा पूर्वी बंगाल के शांतिप्रिय हिन्दुओं का कत्लेआम किया जाना जारी था। जब उन्होंने पाया कि पंडित नेहरू उनकी इस सलाह को नहीं मान रहे कि सरकार पटेल की पाकिस्तान संबंधी इस मांग को स्वीकार किया जाए कि पूर्वी पाकिस्तान से भारत में आए हिन्दुओं की, पाकिस्तान में रह गई जमीन के बराबर भूमि की पाकिस्तान से मांग की जाए तथा इन शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं और इन अभागे शरणार्थियों को पाकिस्तान में उनकी छूटी हुई सम्पत्ति की एवज में संतोषजनक मुआवजा प्रदान किया जाए तो नेहरू की नीतियों से उनके मतभेद और बढ़ गए। वह नेहरू के साथ इन मतभेदों को विवाद के स्तर तक ले जाने में भी कभी नहीं हिचके। वर्ष 1950 में हुए नेहरू-लियाकत समझौते से यह मतभेद चरम सीमा तक पहुंच गए। इस समझौते पर हस्ताक्षर को न होने देने से न रोक पाने के कारण, उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया और सरकार के बाहर रहते हुए नेहरू की नीतियों के विरूद्ध विपक्ष को संगठित किया। इसका असर हुआ और नेहरू-लियाकत समझौते के मूल मसौदे में विधान सभाओं और सेवाओं में मुसलमानों के लिए आरक्षण की जो व्यवस्था की जा रही थी। उसे संशोधित कर इन प्रावधानों को समाप्त कर दिया गया।

19 अप्रैल, 1950 को संसद में अपने त्यागपत्र के बारे में उन्होंने जो वक्तव्य दिया, वह भारत-पाक संबंधों के बारे में एक गरिमायुक्त और भावात्मक दस्तावेज है। नेहरू-लियाकत समझौते से किसी भी समस्या का हल क्यों नहीं होगा, इसके बारे में उन्होंने 1950 में ही जो कारण बताए थे, वे आज भी उतने ही सत्य हैं।

जनसंघ के संस्थापक

मंत्रिमंडल से हटने के पश्चात् श्यामा प्रसाद ने अपनी शक्ति एक ऐसा राजनैतिक मंच तैयार करने के लिए लगाई, जहां से वे अपने विचारों और नीतियों से लोगों को अवगत करा सकें। हिन्दू महासभा वह पहले ही छोड़ चुके थे, क्योंकि महासभा ने उनके इस सुझाव को अस्वीकार कर दिया था कि इसे अपने दरवाजे जाति और नस्ल का विचार किए बिना सभी भारतीयों के लिए खोल देने चाहिए।

श्यामा प्रसाद ने विपक्ष में एक नए राष्ट्रीय नेतृत्व का सृजन करने का निश्चय किया। उनके प्रयासों के फलस्वरूप, अक्तूबर, 1950 में अखिल भारतीय जनसंघ की विधिवत स्थापना हुई। उन्हें इस नए संगठन का प्रथम अखिल भारतीय अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। जनसंघ को देश में राष्ट्रीय शक्तियों के नए प्रमुख संगठन के रूप में देखने की उनकी इच्छा थी और वे चाहते थे कि इसका आधार इतना व्यापक हो कि यह सभी को साथ लेकर एक राजनैतिक संगठन बनने में सक्षम हो सके। इसके दरवाजे उन सभी नागरिकों के लिए खुले हों, जिनकी जरूरत तथा इसकी महान संस्कृति और विरासत के प्रति पूरी निष्ठा हो।

नए दल की आवश्यकता को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा थाः कांग्रेस शासन में तानाशाही का एक मुख्य कारण, सुव्यवस्थित रूप से संगठित ऐसे विपक्षी दलों का अस्तित्व में न होना है, जो सत्ता दल पर प्रभावी ढंग से अंकुश रख सके और देश के सामने एक वैकल्पिक सरकार की सम्भावना को उजागर कर सके। श्यामा प्रसाद ने अपना शेष जीवन इस संगठन को तत्कालीन सत्तारूढ़ दल का विकल्प तैयार करने के लिए, अर्पित कर दिया।

एक संसदविद् के रूप में

श्यामा प्रसाद वर्ष 1952 में हुए प्रथम आम चुनाव में प्रथम लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। हालांकि उनके द्वारा स्थापित दल, जनसंघ के केवल दो ही अन्य सदस्य निर्वाचित हो पाये थे, लेकिन इससे वे निराश होने वाले व्यक्ति नहीं थे। डा. श्यामा प्रसाद विपक्ष के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति थे।

उनकी श्रेष्ठता को सभी जानते थे और उनके मित्रों तथा विरोधियों दोनों ने ही इस बात को स्वीकार किया कि भारत की प्रथम निर्वाचित संसद में वे विपक्ष के प्रमुख प्रवक्ता थे। उन्होंने संसद में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल का गठन करने हेतु, जिसके वे निर्वाचित नेता थे, उड़ीसा की गणतंत्र परिषद, पंजाब के अकाली दल, हिन्दू महासभा तथा अनेक निर्दलीय सांसदों सहित कई छोटी-छोटी पार्टियों को एक किया। वे सभी उन्हें अपना मुख्य प्रवक्ता मानते थे और इन सभी ने उन्हें विपक्ष की ओर से सभी प्रमुख प्रश्नों का उत्तर देने का अधिकार दिया था। यहां तक कि सत्तारूढ़ दल भी उन्हें विपक्ष का अनौपचारिक नेता के रूप में मानती थी।

राजनेता के रूप में उनकी महत्ता एवं उनकी कुशाग्रता, उनकी संसदीय प्रवीणता तथा वाकपटुता, देश की समस्याओं के प्रति उनकी गहन सूझबूझ और रचनात्मक दृष्टिकोण तथा संसद के बाहर उनके जनाधार ने उन्हें सरकार का एकमात्र वास्तविक प्रतिद्वंदी बना दिया था। सत्तारूढ़ दल भी संसद के समक्ष आने वाले विषयों एवं समस्याओं के प्रति उनकी गहन सूझबूझ एवं उनके विवेचन के कारण उनका सम्मान करता था। सरकार की नीतियों तथा कार्यों के प्रति उनका सूक्ष्म और मर्मज्ञ परीक्षण तथा सत्तारूढ़ दल के तर्कों का उनके द्वारा सहजता एवं निश्चयता से खंडन करना अत्यंत विश्वसनीय प्रतीत होता था।

टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा अत्यंत उल्लेखनीय श्रद्धांजलि दी गई, इसमें कहा गया कि ‘‘डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सरकार पटेल की प्रतिमूर्ति थे’’। यह एक अत्यंत उपर्युक्त श्रद्धांजलि थी क्योंकि डा. मुखर्जी नेहरू सरकार पर बाहर से उसी प्रकार का संतुलित और नियंत्रित प्रभाव बनाए हुए थे जिस प्रकार का प्रभाव सरकार पर अपने जीवन काल में सरदार पटेल का था। राष्ट्र-विरोधी और एक दलीय शासनपद्धति की सभी नीतियों तथा प्रवृत्तियों के प्रति उनकी रचनात्मक एवं राष्ट्रवादी विचारधारा तथा उनके प्रबुद्ध एवं सुदृढ़ प्रतिरोध ने उन्हें देश में स्वतंत्रता और लोकतंत्र का प्राचीर बना दिया था। संसद में विपक्ष के नेता के रूप में उनकी भूमिका से उन्हें ‘‘संसद का शेर’’ की उपाधि अर्जित हुई।

भारत की एकता के लिए शहीदः

इस महान राजनेता और संसदविद् के संसदीय जीवन में अंतिम कार्य वर्ष, 1953 में संपन्न हुआ। इस समय उनके दिमाग पर अलगाववादी गतिविधियों को समाप्त करने की बात को ध्यान में रखकर जम्मू एवं कश्मीर की समस्या पूरी तरह छायी हुई थी। उन्होंने जम्मू एवं कश्मीर प्रजा परिषद के मुद्दे पर बातचीत करने का निर्णय किया। जो मांग कर रही थी कि इस राज्य का भारत के साथ पूर्णतः विलय किया जाये और इस पर भी वही संविधान लागू हो जो अन्य राज्यों पर लागू है। वर्ष 1952 में अपने जम्मू दौरे के दौरान उन्होंने एक विशाल जनसमूह की बैठक में घोषणा की ‘‘मैं आपको भारतीय संविधान के अंतर्गत लाऊंगा अन्यथा इसके लिए मैं अपना जीवन बलिदान कर दूंगा’’। उनके शब्द भविष्यवाणी बने। जम्मू में व्याप्त स्थिति का जायजा लेने हेतु उन्होंने मई 1953 में पुनः जम्मू का दौरा करने का निर्णय किया। इस समय उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। हिन्दुओं के प्रति उनका प्यार इतना महान था तथा जम्मू एवं कश्मीर राज्य को भारतीय संघ में शामिल करने के प्रति उनका उत्साह इतना अप्रतिरोध्य था कि वे तुरंत जम्मू चल दिए जहां उन्हें गिरफ्तार किया गया। वे जेल में गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और भारतीय एकता के लिए शहीद हो गए।

उनकी मृत्यु पर श्रद्धांजलि

संसद, राज्य विधान मंडल, प्रेस एवं दलगत भावना से ऊपर उठकर जन नेताओं, दक्षिण-पूर्व एशिया के बौद्ध धर्म मानने वाले देशों के नेताओं और शासकों ने भी उनकी मृत्यु पर शोक प्रकट किया और इसे महान क्षति बताया तथा इस महान आत्मा को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की जो जीवनपर्यन्त अपनी मातृभूमि की सेवा में समर्पित रहे।

लोकसभा में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अप्रत्याशित निधन पर शोक प्रकट करते हुए तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर ने कहाः-

‘‘…. वे हमारे महान देशभक्तों में से एक थे और राष्ट्र के लिए उनकी सेवाएं भी उतनी ही महान थीं। जिस स्थिति में उनका निधन हुआ वह स्थिति बड़ी ही दुखदाई है। यही ईश्वर की इच्छा थी और इसमें कोई क्या कर सकता था?… उनकी योग्यता, उनकी निष्कपटता, अपने कार्यभार को कौशलपूर्वक निभाने की उनकी दक्षता, उनकी वाक्पटुता और सबसे अधिक उनकी देशभक्ति एवं अपने देशवासियों के प्रति उनके प्यार ने उन्हें हमारे सम्मान का हकदार बना दिया।’’

उनके निधन का उल्लेख करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनकी मृत्यु की परिस्थितियों का उल्लेख किया और उन्हें अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बताया। ‘‘उन्होंने डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को’’ इस सभा की महाविभूतियों में से एक बताया और उन्हें विपक्ष का एक ऐसा नेता बताया जिसने इस सभा की कार्यवाही में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विभिन्न मुद्दों पर डा. मुखर्जी के साथ अपनी सहमति और असहमति को स्वीकारते हुए पंडित नेहरू ने कहाः-

‘‘… चाहे हमने एक साथ काम किया अथवा हमारा किसी मुद्दे पर मतभेद रहा, हमने परस्पर एक-दूसरे के प्रति पूरा आदर किया और मतभेद के बावजूद अपने कार्यभार को उसी सम्मान के साथ निभाने का प्रयास किया जो मतभेद के बावजूद किया जाना चाहिए।’’

मुझे अनेक वर्षों तक सरकार में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और बाद में जब वे सरकार से अलग हो गये तब विपक्ष में…। हम दोनों में कभी-कभी अनेक मुद्दों पर गम्भीर मतभेद होते रहते थे और अनेक मुद्दों पर सहमति भी होती थी।

मेरे लिए यह अत्यंत खेद और दुख का विषय है कि उनके जीवन के आखिरी दिनों में एक अवसर ऐसा आया जब हम दोनों में काफी गम्भीर मतभेद हो गए। तथापि… हम ऐसी प्रतिभा से वंचित हो गए हैं जिसने देश में एक उल्लेखनीय और महान भूमिका अदा की, लेकिन उनकी असामयिक मृत्यु हो गई। इस तरह हम उनकी सेवाओं से वंचित हो गए।

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  1. HAL, Banglore was founded in 1940 by late Seth Walchand Hirachand. Why you people give credit to ShyamaPrasad Mukharji?

  2. श्यामा प्रशाद जी की मृत्यु संदेह की परिस्थितिओं में जेल में हुई और इसकी आज तक कोई तहकीकात तक ठीक तरह से नहीं हुई और इसमें कांग्रेस का चरित्र ही संदेह पूर्ण पाया गया और अँगरेज़ और मुस्लमान परस्त नेहरु का दामन ही दोषी है…. कांग्रेस के हाथ कई देशभक्तों के खून से रक्तरंजित हैं ….. और देश का दुर्भाग्य है कि यही देश विरोधी पार्टी बार बार सरकार बना कर विदेशी सोनिया / राहुल की अगुवाई में दोनों हाथों से लूट लूट कर स्विस बैंकों में लूट का पैसा भर रही है….कांग्रेस को समूल उखाड़ केर फ़ेंक दो और राष्ट्र का विकास करनेवाली पार्टी और ईमानदार उम्मीदवारों को वोट दो….श्यामा प्रशाद जी की मृत्यु संदेह की परिस्थितिओं में जेल में हुई और इसकी आज तक कोई तहकीकात तक ठीक तरह से नहीं हुई और इसमें कांग्रेस का चरित्र ही संदेह पूर्ण पाया गया और अँगरेज़ और मुस्लमान परस्त नेहरु का दामन ही दोषी है…. कांग्रेस के हाथ कई देशभक्तों के खून से रक्तरंजित हैं ….. और देश का दुर्भाग्य है कि यही देश विरोधी पार्टी बार बार सरकार बना कर विदेशी सोनिया / राहुल की अगुवाई में दोनों हाथों से लूट लूट कर स्विस बैंकों में लूट का पैसा भर रही है….कांग्रेस को समूल उखाड़ केर फ़ेंक दो और राष्ट्र का विकास करनेवाली पार्टी और ईमानदार उम्मीदवारों को वोट दो….श्यामा प्रशाद जी की मृत्यु संदेह की परिस्थितिओं में जेल में हुई और इसकी आज तक कोई तहकीकात तक ठीक तरह से नहीं हुई और इसमें कांग्रेस का चरित्र ही संदेह पूर्ण पाया गया और अँगरेज़ और मुस्लमान परस्त नेहरु का दामन ही दोषी है…. कांग्रेस के हाथ कई देशभक्तों के खून से रक्तरंजित हैं ….. और देश का दुर्भाग्य है कि यही देश विरोधी पार्टी बार बार सरकार बना कर विदेशी सोनिया / राहुल की अगुवाई में दोनों हाथों से लूट लूट कर स्विस बैंकों में लूट का पैसा भर रही है….कांग्रेस को समूल उखाड़ केर फ़ेंक दो और राष्ट्र का विकास करनेवाली पार्टी और ईमानदार उम्मीदवारों को वोट दो….श्यामा प्रशाद जी की मृत्यु संदेह की परिस्थितिओं में जेल में हुई और इसकी आज तक कोई तहकीकात तक ठीक तरह से नहीं हुई और इसमें कांग्रेस का चरित्र ही संदेह पूर्ण पाया गया और अँगरेज़ और मुस्लमान परस्त नेहरु का दामन ही दोषी है…. कांग्रेस के हाथ कई देशभक्तों के खून से रक्तरंजित हैं ….. और देश का दुर्भाग्य है कि यही देश विरोधी पार्टी बार बार सरकार बना कर विदेशी सोनिया / राहुल की अगुवाई में दोनों हाथों से लूट लूट कर स्विस बैंकों में लूट का पैसा भर रही है….कांग्रेस को समूल उखाड़ केर फ़ेंक दो और राष्ट्र का विकास करनेवाली पार्टी और ईमानदार उम्मीदवारों को वोट दो….

    • This article gives wrong information about foundation of Chitranjan Loco motive. In December, 1947, the Railway Board decided to locate the factory at Chittaranjan, near Mihijam, Mr Shyamaprasad Mukherji played no role in it.

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