डा. अंबेडकर के सपनों का भारत

डा. अंबेडकर के सपनों का भारत कैसा होगा? आज के घोर जातिवादी सामाजिक परिवेश में यह प्रश्न उठना या उठाया जाना बहुत ही आवश्यक है। मैं इस प्रश्न के उत्तर में विनम्रता से यही कहना चाहूंगा कि डा. अंबेडकर के सपनों का भारत किसी अगड़ी-पिछड़ी या दलित जाति को गाली देने वाला तो निश्चय ही नही होता। वह किसी जाति के वर्चस्व को तो ललकारता पर उसके व्यवहार और आचरण को शुद्घ पवित्र कर देश में ‘जाति तोड़ो-समाज जोड़ो’ का अभियान चलाने वाला भी होता। जो लोग स्वयं को अंबेडकरवादी कहते हैं वे वास्तव में अंबेडकरवादी न होकर उसी ब्राह्मणवादी सोच को आगे लेकर बढ़ रहे हैं, जिसने इस देश की वर्णव्यवस्था को मिटाकर देश में जन्म आधारित जातिव्यवस्था को प्रोत्साहित किया था। जबकि अंबेडकरजी इस जन्म आधारित जाति व्यवस्था के विरोधी थे। वह उस आर्य वैदिक परंपरा के समर्थक थे जिसके अंतर्गत व्यक्ति को अपने कर्म से वर्ण अपनाने की छूट थी और नीच कर्म करने वाला ब्राह्मण परिवार का व्यक्ति भी शूद्र हो जाता था जबकि शुभ कर्म करने वाला शूद्र ब्राह्मण हो जाता था।

अब जो लोग ब्राह्मण को आंख मूंदकर गाली दे रहे हैं कि इन्होंने जाति व्यवस्था फेेलाकर देश का अहित किया और इसी आधार पर मनु स्मृति को दोषी भी मान रहे हैं वे भी गलती पर हैं। उन्हें ‘ब्राह्मण’ को दोषी नही कहना चाहिए। इसके लिए जन्म आधारित व्यवस्था के अंतर्गत स्वयं को ब्राह्मण मानने वाला व्यक्ति दोषी है। ब्राह्मण की परिभाषा के लिए हमें मनुस्मृति को पढऩा पड़ेगा और देखना पड़ेगा कि उस परिभाषा के अनुसार कितने लोग आज ब्राह्मण हैं? वास्तविक ब्राह्मण तो पूर्व में भी पूजनीय था आज भी है और आगे भी रहेगा। यदि हमने वास्तविक ब्राह्मण-ज्ञानी, विद्वानों का तिरस्कार करना आरंभ कर दिया तो अनर्थ हो जाएगा। जैसा कि हमने अपने वैज्ञानिकों का तिरस्कार करके भी देख लिया है जिसका परिणाम ये आया कि हमारे वैज्ञानिकों ने विदेशों की ओर पलायन करना आरंभ कर दिया। ब्राह्मण समाज का मार्गदर्शक है, अत: उसका सम्मान अनिवार्य है। पर ध्यान रहे कि जो दम्भी, पाखण्डी और अज्ञानी होकर भी स्वयं को पूजनीय मानता है उससे समाज का छुटकारा आवश्यक है। अंबेडकरजी ऐसे ही लोगों से छुटकारा दिलाकर समतामूलक समाज की संरचना के पक्षधर थे।

आजकल सोशल मीडिया में पोस्ट चोरी कर करके अपने नाम से दूसरे की बौद्घिक संपदा को प्रकाशित करने की बीमारी बड़े जोर से फेेली है। विचारों में मौलिकता नही है, चिंतन में उच्चता नही है और लोग तेरी मेरी पोस्ट चोरी कर करके दबादब फेंकते रहते हैं। अंबेडकरजी ऐसी बौद्घिक संपदा की चोरी को भी घातक मानते थे। क्योंकि उन्होंने देखा था कि लोगों ने मूल, वेदों, स्मृतियों, उपनिषदों आदि के साथ बौद्घिक संपदा की चोरी करते-करते अर्थ का अनर्थ करके रख दिया था। मनुस्मृति को आलोचना इसीलिए झेलनी पड़ी है कि बौद्घिक संपदा की चोरी करने वाला अर्थात पोस्ट चुराकर अपने नाम से डालने वालों ने उसका अर्थ का अनर्थ करके रख दिया था। इसका अभिप्राय है कि विचारों में गंभीरता और मौलिकता का होना आवश्यक है। ब्राह़मण वर्ग की मौलिकता भंग हो गयी तो उसने अपना कुछ स्थानों पर एकाधिकार करने की चेष्टा की। जैसे मंदिरों पर या अन्य धार्मिक संस्थानों पर। इसे आजकल पोस्ट चुराने वाले लोग कह रहे हैं कि यह ब्राह्मणों का एकाधिकार उनके आरक्षण को इंगित करता है। उनका आशय होता है कि ब्राह्मण ने अपने लिए सर्वप्रथम आरक्षण कर लिया और इसे समाप्त किया जाना चाहिए। हमारा मानना है कि ऐसा कहने से हिंदू समाज किसी वर्ग विशेष की बपौती सिद्घ हो जाता है। इसलिए पोस्ट चुराने की नकल में अकल का प्रयोग करने की आवश्यकता है। हिंदू धर्म आर्यधर्म अर्थात वैदिक धर्म है। जिसे किसी की बपौती नही कहा जा सकता। यह किसी वर्ग विशेष के द्वारा या किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा संचालित धर्म नही है। यह सनातन इसलिए है कि प्रकृति के नियमों को समझने और उनके अनुसार चलने की क्षमता केवल इसी धर्म में है। बौद्घिक मार्गदर्शन निश्चित रूप से हर युग में ‘ब्राह्मण’ (वास्तविक विद्वानों) के ही हाथ में रहा है और रहेगा। घर से लेकर सामाजिक संगठनों और राष्ट्रीय स्तर से अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक सारी व्यवस्था को संचालित करने वाला पूर्व में भी ब्राह्मण था और आज भी ब्राह्मण है। उसे आगे भी ब्राह्मण ही रहना है। इसलिए बौद्घिक मार्गदर्शन ब्राह्मण का एकाधिकार है, उसकी योग्यता के लिए स्वयं ही सुरक्षित है, यह किसी जाति का विशेष अधिकार नही है, अपितु योग्यतम व्यक्ति का विशेषाधिकार है और योग्यतम को सम्मान मिलना ही चाहिए। इसे इसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। इसलिए कहना चाहिए कि ब्राह्मण की योग्यता को हम नमस्कार करते हैं।

जैसे पोस्ट चुराने वालों ने सोशल मीडिया पर अपना कब्जा कर लिया है, वैसे ही समाज में कुछ लोगों ने योग्यता पर अपना कब्जा करने का प्रयास किया है जिसे अमानवीय अप्राकृतिक और अनैतिक ही कहा जाएगा। इस व्यवस्था के विरूद्घ आंदोलन की आवश्यकता है। क्योंकि यह व्यवस्था वास्तव में भारतीयता के विरूद्घ है और मानवता का शोषण करने वाली है। वास्तविक ब्राह्मण का सम्मान करते हुए ‘जाति तोड़ो और समाज जोड़ो’ अभियान चलाना चाहिए।

डा. अंबेडकर जी अपने जीवनकाल में आर्यसमाजी विचार धारा के समाचार पत्र ‘तेज’, ‘अर्जुन’, ‘मिलाप’, ‘प्रताप’ आदि से प्रभावित रहे। इनके विचारों को वह अक्सर उद्घृत करते थे। उन्होंने अस्पृश्यता निवारण के लिए संघर्ष किया तो आर्यसमाज ने इसमें उनका साथ दिया। आज अंबेडकरवादी अस्पृश्यता निवारण पर क्या विचार रखते हैं? कहा जा सकता है कि अस्पृश्यता निवारण के स्थान पर इसे बढ़ा-बढ़ाकर जातीय विद्वेष फेambedkarलाने का प्रयास किया जा रहा है ‘दलित साहित्य’ के नाम पर ऐसी प्रचार सामग्री को फैलाया जा रहा है कि जिसे पढक़र दलितों को हिन्दू समाज से दूर रहने की प्रेरणा मिल रही है। यह तो ईलाज नही है, यह तो बीमारी को और भडक़ाने की स्थिति है क्या अंबेडकर जी ऐसी स्थिति के समर्थक थे? और क्या इस प्रकार की मनोवृत्ति से समतामूलक समाज की संरचना का डा. अंबेडकरजी का सपना साकार हो सकता है? नही। तब क्या किया जाए? मेरा विचार है किहमें पुन: सहभोजों की परंपरा को जीवित कर वैदिक मूल्यों पर आधारित सामाजिक संरचना को पुनर्जीवित करने के लिए प्रयासरत होना चाहिए। सेमीनारों का आयोजन हो और विषय केवल एक हो ‘जाति तोड़ो समाज जोड़ो’। उभरता हुआ और ‘उगता हुआ भारत’ डा. अंबेडकर के सपनों का भारत होगा। किसी को गाली मत दो-अपितु गाली देने वालों के मार्गदर्शक बनो। यही डा. अंबेडकर का सपना था। याद रहे डा. अंबेडकर मुस्लिम साम्प्रदायिकता के घोर शत्रु थे-वह किसी भी मूल्य पर इस महानाशिनी से एकता करने या इसके साथ समन्वय करने के विरोधी थे-पर उनके जाने के पश्चात हमने ‘अंबेडकरवाद’ को मुस्लिम साम्प्रदायिकता का समर्थक मान लिया है। यदि यह प्रवृत्ति नही सुधरी तो हम अंबेडकरजी के सपनों को अपने आप ही भंग कर देंगे और देश फिर से विभाजन की ओर बढ़ जाएगा। डा. अंबेडकरजी के सपनों के भारत को तलाशने के लिए चिंतन बैठकों का आयोजन हो और ऐसी व्यवस्था की जाए जिससे वैदिक धर्म की समतामूलक चिंतन धारा इस देश की राजनीति की मार्गदर्शिका बन जाए। अभी हम अंबेडकर और अंबेडकरवाद को समझ नही पाये हैं।

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