सपने-प्रभुदयाल श्रीवास्तव

व्यर्थ रात‌ सूनी आँखों में,

बहुत देर तक सोकर आये|

सुबह सुबह बिस्तर से उठकर

सपने बहुत देर पछताये|

यदि रात पर्वत पर होते,

तारों का आकाश देखते|

निविड़ निशा के स्पंदन को,

दोनों हाथों से समेटते|

यदि किसी नदिया के तट पर,

बनकर रेत पड़े रह जाते|

लहरें आतीं हमसे मिलने,

हम लहरों से हाथ मिलाते|

किंतु व्यर्थ की चिंतायें थीं,

आगे हम कुछ सोच न पाये|

 

हमने जिसको दिन समझा था,

वह तो रात घोर थी काली|

किंतु मिली जब रात हमें तो,

उसके चेहरे पर थी लाली|

अंतर हम कुछ समझ न पाये,

क्या सच था और क्या था झूठा|

हमको तो जब जिसने बोला,

हमने रोपा वहीं अंगूठा|

दिन निकला तो सच को जाना

सच को जान बहुत बौराये|

 

पंख मिले इच्छाओं को तो,

ऊंची ऊंची भरी उड़ाने|

किंतु लक्ष्य की डोर हमेशा

मिला दूसरा कोई ताने|

आवाज़ों ने शोर किया तो,

दबे गले खूनीं पंजों से|

रहीं देखती खड़ीं दिशायें,

कौन बचाये भुजदंडों से|

मजबूरी के लाल किले पर

फिर से झंडा फहरा आयें|

 

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव
लेखन विगत दो दशकों से अधिक समय से कहानी,कवितायें व्यंग्य ,लघु कथाएं लेख, बुंदेली लोकगीत,बुंदेली लघु कथाए,बुंदेली गज़लों का लेखन प्रकाशन लोकमत समाचार नागपुर में तीन वर्षों तक व्यंग्य स्तंभ तीर तुक्का, रंग बेरंग में प्रकाशन,दैनिक भास्कर ,नवभारत,अमृत संदेश, जबलपुर एक्सप्रेस,पंजाब केसरी,एवं देश के लगभग सभी हिंदी समाचार पत्रों में व्यंग्योँ का प्रकाशन, कविताएं बालगीतों क्षणिकांओं का भी प्रकाशन हुआ|पत्रिकाओं हम सब साथ साथ दिल्ली,शुभ तारिका अंबाला,न्यामती फरीदाबाद ,कादंबिनी दिल्ली बाईसा उज्जैन मसी कागद इत्यादि में कई रचनाएं प्रकाशित|

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