11 से 13 मार्च, 2016 तक राजस्थान के नागौर नगर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा का वार्षिक सम्मेलन सम्पन्न हुआ। संघ की सर्वाधिक अधिकार प्राप्त सभा होने के नाते महत्वपूर्ण निर्णय प्रायः इसमें ही होते हैं। इस बार सभा की विशेषता यह रही कि इसमें स्वयंसेवकों के गणवेश में खाकी नेकर की जगह भूरी पैंट को स्थान मिला है। कुछ लोग इसे ऐसे ले रहे हैं, मानो संघ में सब कुछ ही बदल गया है।
सच तो यह है कि जीवंत संगठन होने के नाते संघ में ऐसे परिवर्तन कई बार हुए हैं। इतना जरूर है कि पहले मीडिया इतना प्रभावी नहीं था। वह संघ को कुछ खास महत्व भी नहीं देता था। फिर इस समय दिल्ली में संघप्रेमियों की सरकार है। इसलिए इस विषय को जरूरत से अधिक क्रांतिकारी कहा जा रहा है। जो लोग संघ का लम्बे समय से जानते हैं, वे ऐसे कई परिवर्तनों के साक्षी हैं।
संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार संघ को सेना जैसा अनुशासित युवा संगठन बनाना चाहते थे। अतः उन्होंने कई पूर्व सैनिकों की सहायता ली। वे पूर्व सैनिक ही संघ के विद्यार्थी स्वयंसेवकों को परेड सिखाते थे। उन दिनों राजनीतिक या अराजनीतिक, सभी युवा दलों की वेशभूषा में ढीली खाकी नेकर ही चलती थी। सेना में भी कई जगह इसका प्रचलन था। अतः स्वाभाविक रूप से संघ में खाकी नेकर आ गयी। इतना ही नहीं, कक्षा नौ-दस तक लड़के ऐसी नेकर पहन कर ही स्कूल जाते थे।
पूर्व सैनिकों के कारण संघ में अंग्रेजी आज्ञाएं तथा बैंड में अंग्रेजी धुनें चलने लगीं। उस समय स्वयंसेवक खाकी नेकर के साथ खाकी कमीज भी पहनते थे। कंधे पर आर.एस.एस. का बैज भी होता था। बड़े अधिकारी उस पर ‘क्रास बैल्ट’ लगाते थे। डा. हेडगेवार एक चित्र में इसी वेश में पगड़ी पहने दिखायी देते हैं। 1940 में सिन्दी में एक महत्वपूर्ण बैठक हुई, जिसमें संघ की कार्यप्रणाली के साथ ही संस्कृत प्रार्थना तथा संस्कृत आज्ञा जैसे कई परिवर्तन हुए। इससे पहले हिन्दी और मराठी की मिलीजुली प्रार्थना प्रचलित थी।
साठ के दशक का तो मुझे ही ध्यान है, तब बाल स्वयंसेवक गणवेश में कपड़े के सफेद जूते तथा नीले मोजे पहनते थे। उनकी चमड़े की बैल्ट भी कम चैड़ी होती थी। युवा स्वयंसेवक काले चमड़े के मिलट्री बूट, घुटने तक ऊंची खाकी पोंगली (फुटलैस) व खाकी पट्टी पहनते थे; पर 1973-74 में हुए परिवर्तन से बाल और तरुणों की गणवेश समान हो गयी। मिलट्री बूट की जगह चमड़े के सामान्य काले जूते तथा खाकी मोजे आ गये। कुछ साल बाद चमड़े की अनिवार्यता समाप्त होकर प्लास्टिक या रैक्सीन के जूतों को भी जगह मिल गयी।
पहले नेकर तथा कमीज सूती ही होती थी; पर सस्ते और धोने में आसान होने से फिर टैरिकाॅट चल पड़ा। रैडिमेड जांघियों ने लंगोट की अनिवार्यता समाप्त कर दी। पीतल के बक्कल वाली चमड़े की पेटी देश में एक-दो जगह ही बनने से उनकी उपलब्धता में बड़ी परेशानी होती थी; पर अब उसके बदले रैक्सीन की पेटी आ गयी है। यह सस्ती पड़ती है तथा इसे पाॅलिश नहीं करना पड़ता। पूरी बाहों वाली सफेद कमीज और काली टोपी अभी तक वैसी ही है। सिख स्वयंसेवक टोपी के बदले काली पगड़ी बांधते हैं।
केवल गणवेश में ही नहीं, संघ के कार्यक्रमों में भी भारी बदल हुई है। किसी समय प्रशिक्षण वर्गों में भाला, तलवार, छुरिका, वेत्र-चर्म जैसे शस्त्रों का संचालन सिखाते थे; पर अब नियुद्ध, खेल, योगासन और प्राणायाम आदि का चलन है। लाठी पहले गणवेश का ही हिस्सा थी; पर अब उसकी अनिवार्यता नहीं है। यद्यपि वर्गों में उसे चलाना आज भी सिखाते हैं।
संघ की शाखाओं में आजकल ‘एकात्मता स्तोत्र’ बोला जाता है। वह भी दो बार बदल चुका है। इससे पहले ‘प्रातःस्मरण’ बोलते थे; पर जब सायं और रात्रि शाखाओं की संख्या बढ़ी, तो वहां प्रातः स्मरण बोलना बड़ा अजीब लगता था। अतः उसे भी बदला गया। भोजन से पूर्व बोले जाने वाले मंत्र में भी बदल हुई है।
अर्थात परिवर्तन संघ की सतत प्रवाहित होने वाली प्रक्रिया का एक सामान्य हिस्सा है। यह ठीक है कि अपने स्थापना काल से खाकी नेकर स्वयंसेवक की बाहरी पहचान बनी हुई है। देश, धर्म और समाज पर आये किसी भी संकट में स्वयंसेवक यही नेकर पहन कर सेवा में लग जाते हैं; पर धीरे-धीरे यही पहचान भूरी पैंट को मिल जाएगी। सच तो यह है कि स्वयंसेवक बाहरी पहचान से कम और अपने हृदय की शुद्ध भावना से अधिक पहचाना जाता है। जब तक यह भावना बनी रहेगी, तब तक वेश में परिवर्तन गौण बात है।
– विजय कुमार