सूखे में पानी का धंधा

प्रमोद भार्गव

यह कितनी हैरानी में डालने वाली विंडबना है कि महाराष्ट्र के मराठावाड़ क्षेत्र में एक ओर जहां जबरदस्त पानी का संकट है, वहीं इसी क्षेत्र के जालान जिले में लगे 20 बोतल बंद पानी के संयंत्रों को सरकारी पेयजल की पार्इपलाइन से पानी दिया जा रहा है। जबकि यह जिला सबसे ज्यादा सूखे की मार झेल रहा है। लोग रेल के शौचालयों तक से पेयजल लेने को मजबूर हो रहे हैं। सूखे से प्रभावित इस क्षेत्र में बहुसंख्यक लोगों की आजीविका कृषि से चलती है। कृषि के लिए पानी की बात तो छोडि़ए, पीने के पानी तक के लाले पड़े हैं और इस भयावह सूखे में पानी का धंधा जोरों पर है। एक तरफ सरकार पानी की बर्बादी पर रोक लगाने की दृष्टि से कानूनी उपाय तलाश

रही है, वहीं दूसरी ओर कानून बनाकर पानी का निजीकरण करने में लगी है। प्राकृतिक संपदा को व्यकितवादी बना देने का यह उपाय उदारवादी अर्थव्यवस्था की क्रूरतम देन है।

संविधान के अनुच्छेद-21 में प्रत्येक नागरिक को जीने के अधिकार की मान्यता दी गर्इ है। लेकिन जीने की मूलभूत सुविधाएं क्या हों, इनके औचित्य को तय करने वाले न तो बिंदु तय किए गए और न ही उन्हें बिंदुवार परिभाषित किया गया। इसीलिए आजादी के 65 साल बाद भी जल की तरह भोजन,आवास,स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जीने के बुनियादी मुददे पूरी तरह संवैधानिक अधिकार हासिल कर लेने से वंचित हैं। यही वजह रही कि जब 2002 में केंद्र में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार थी, तब औधोगिक हितों को लाभ पहुंचाने वाली जल-नीति वजूद में लार्इ गर्इ और पेयजल के दोहन का व्यापार करने की छूट देशी व विदेशी निजी कंपनियों को दे दी गर्इ। भारतीय रेल भी ‘रेलनीर नामक उत्पाद लेकर बाजार में उतर आर्इ। इस कारोबार की शुरुआत छत्तीसगढ़ से हुर्इ। यहां शिवनाथ नदी पर देश का पहला बोतल बंद पानी का संयंत्र स्थापित किया गया। इस तरह इकतरफा कानून बनाकर मानव समूहों को जल के सामुदायिक अधिकार से अलग करने का सिलसिला चल निकला। योरोपीय यूनियन के दबाव में दी गर्इ थी। पानी को विश्व व्यापार के दायरे में लाकर पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर एक-एक कर विकासशील देशो के जल स्त्रोत उन्मुक्त दोहन के लिए इन कंपनियों के हवाले कर दिए गए। विकसित पश्चिमी देशो के लिए इसी योरोपीय यूनयन ने पक्षपाती मानदण्ड अपनाकर ऐसे नियम-कानून बनाए हुए हैं कि विश्व के अन्य देश पश्चिमी देशो में आकर पानी का कारोबार न करने पाएं। यह यूनियन विकासशील देशो के जल का अधिकतम दोहन करना  चाहती है, जिससे इन देशो की प्राकृतिक संपदा का जल्द से जल्द नकदीकरण कर लिया जाए। क्योंकि पानी अब केवल पेय और सिंचार्इ जल मात्र नहीं रह गया है, बलिक विश्व बाजार में ‘नीला सोना के रुप में तब्दील हो चुका है। भारत समेत दुनिया में जिस तेजी से आबादी बढ़ रही है और जल स्त्रोतों का घटने के साथ जिस तेजी के साथ निजीकरण हो रहा है, उतनी ही चालाकी से पानी के लाभ का बाजार तैयार किया जा रहा है, जिससे एक बड़ी आबादी को जीवनदायी जल से वंचित कर दिया जाए और आर्थिक रुप से सक्षम व्यकित को जल उपभोक्ता बन जाए। यही कारण है कि दुनिया में देखते-देखते पानी का कारोबार 35 हजार 500 अरब डालर का हो गया है। मसलन पानी की हर बूंद बिकने लगी है और हर घूंट पानी की कीमत वसूली जाने लगी है।

भारत में पानी और पानी को षुद्ध करने के उपकरणों का बाजार लगातार फैल रहा है। देश में करीब 85 लाख परिवार जल षोधित ;प्यूरीफायरद्ध उपकरणों का प्रयोग करने लगे हैं। इस बाजार पर यूरेका फोब्र्स का कब्जा है। करीब 62 लाख घरों में इसी का इस्तेमाल किया जाता है। बीते चार साल में हिंदुस्तान यूनीलीवर ने भी करीब 13 लाख प्यूरीफायर बेचे हैं। बोतल और थैली में बंद पानी का भारत में एक हजार करोड़ का बाजार तैयार हो गया है। इसमें हर साल 40 से 50 प्रतिषत की बढ़ोत्तरी हो रही है। देश में इस पानी के करीब एक सौ ब्रांड देशव्यापी हैं और 1200 से भी ज्यादा बंद पानी के संयंत्र लगे हुए हैं। देश का हर बड़ा कारोबारी समूह इस व्यापार में उतरने की तैयारी में है। फिलहाल इस क्षेत्र में भारतीय उधोगपतियों का ही बोलवाला है।

भारतीय रेल भी बोतल बंद पानी के कारोबार में शामिल है। इसकी सहायक संस्था इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड दूरिज्म कार्पोरेशन ;आर्इआरसीटीसी ‘रेल नीर नाम से पानी का उत्पादन करती है। इसके लिए दिल्ली के नांगलोर्इ और पटना के दानापुर में संयंत्र लगे हैं। उत्तम गुणवत्ता और कीमत में कमी के कारण रेल यात्रियों के बीच यह पानी लोकप्रिय है। रेल यात्री इस पेय के प्रमुख उपभोक्ता हैं। बावजूद रेल नीर घाटे में है। इस घाटे को एक सुनियोजित साजिश के रुप में देखा जा रहा है। दरअसल रेल नीर के रेल यात्री ही सबसे बड़े उपभोक्ता हैं। उन्हें ही वह जरुरत के मुताबिक पानी की आपूर्ति नहीं कर पाता है। इसीलिए रेलवे महाराष्ट्र के अंबरनाथ और तमिलनाडू के पालूर में नए जल उत्पादन संयंत्र लगा रही है। लिहाजा निजी कंपनियों की कुटिल मंशा है कि रेल नीर को ऐन-केन-प्रकारेण घाटे के सौदे में तब्दील कराकर सरकारी क्षेत्र के इस उपक्रम को बाजार से बेदखल कर दिया जाए। ऐसा संभव होता है तो कंपनियों को रेल यात्रियों के रुप में नए उपभोक्ता मिल जाएंगे। पानी की गुणवत्ता बनाए रखने की शर्त खत्म हो जाएगी और तुलनात्मक दृष्टि से मूल्य संतुलित रखने के झंझट से भी छूट मिल जाएगी।

वर्तमान में भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। यहां हर साल 230 घन किमी पानी धरती के गर्भ से खींचा जाता है, जो विश्व की कुल खपत के एक चौथार्इ से भी ज्यादा है। इस पानी की खपत 60 फीसदी खेतों की सिंचार्इ और 40 प्रतिषत पेयजल के रुप में होती है। इस कारण 29 फीसदी भूजल के स्त्रोत अधिकतम दोहन की श्रेणी में आकर सूखने के कगार पर हैं। औधोगिक इकाइयों के लिए पानी का बढ़ता दोहन इन स्त्रोतों के हालात और नाजुक बना रहा है। कर्इ कारणों से पानी की बर्बादी भी खूब होती है। आधुनिक विकास और रहन-सहन की पश्चिमी शैली अपनाना भी पानी की बर्बादी का बड़ा कारण बन रहा है। 25 से 30 लीटर पानी सुबह मंजन करते वक्त नल खुला छोड़ देने से व्यर्थ चला जाता है। 300 से 500 लीटर पानी बाथ टब में नहाने से खर्च होता है। जबकि परंपरागत तरीके से किए स्नान में महज 25-30 लीटर पानी खर्चता है। 50 से 60 लाख लीटर पानी मुंबर्इ जैसे महानगरों में रोजाना वाहन धोने में खर्च हो जाता है। जबकि मुंबर्इ भी पेयजल का संकट झेल रहा है। 17 से 44 प्रतिषत पानी दिल्ली, मुंबर्इ, कोलकाता, चेन्नर्इ, बैंगलुरु और हैदराबाद जैसे महानगरों में जल प्रदायक लाइनों के वाल्वों की खराबी से बर्बाद हो जाता है।

पेयजल की इस तरह से हो रही बर्बादी और पानी के निजीकरण पर अंकु लगाने की बजाए योजना आयोग के मोटेंक सिंह आहलूवालिया केंद्र व राज्य सरकारों को सलाह दे रहे हैं कि पानी की बर्बादी रोकने के लिए नए कानूनी उपाय जरुरी हैं और ताकि हर बूंद का दुरुपयोग रोका जा सके। लगभग इसी समय संयुक्त राष्ट्र द्वारा पानी और स्वच्छता को बुनियादी मानवाधिकार घोषित करने की पहली वर्षगांठ पर संयुक्त राष्ट्र की महासचिव बान की मून ने कहा कि लोगों को पानी एवं स्वच्छता के अधिकार मिल जाने का अर्थ यह नहीं है कि सबको पानी मुफ्त मिले। बलिक इसका मतलब यह है कि ये सेवाएं सबको सस्ती दर पर हासिल हों। साफ है, पानी को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाजार के हवाले कर दिए जाने की साजिश रची जा रही है। आम लोगों को गैर जागरुक ठहराकर पानी की बर्बादी का जिम्मेबार ठहराया जा रहा है। जिससे कानून बनाकर पानी के उपयोग और आपूर्ति को नियंत्रित किया जा सके। जबकि पानी की बर्बादी के कारण इतर हैं, जो उपर दर्षाए गए हैं।

महाराष्ट्र के जिस जालना जिले में सूखे की भयावह स्थिति है, उसी जिले में 20 बोतल बंद पानी के संयंत्र हैं। जिस पर भी विडंबना यह है कि इनमें से कुछ संयंत्र पृथ्वी की तलहटी से जल का दोहन करने की बजाय, पेयजल की पाइपलाइन से पानी लेकर जल के धंधे में लगे हैं। जालना समेत मराठावाड़ क्षेत्र में सूखे की स्थिति इतनी भयावह नहीं होती यदि ये संयंत्र इस क्षेत्र में न लगे होते ? यदि इन बोतल बंद पानी की औधोगिक इकाइयों पर जल्द से जल्द कानूनी अंकुश नहीं लगाया गया तो वह दिन दूर नहीं, जब महाराष्ट्र की तरह पूरे देश को सूखे के संकट का सामना करना होगा, क्योंकि इन संयंत्रों द्वारा किए जल दोहन की वजह से भूजल स्तर काफी नीचे गिर गया है। इस वजह से खेतों के नलकूप, कुएं, तालाब और नदियां भी सूख गर्इ हैं। नतीजतन आम आदमी पेयजल की त्रासदी भुगत रहा है।

1 COMMENT

  1. सरकारी नीतियों में सोच का आभाव ने इन हालत के लिए जिम्मेदार है.मंत्रीजी के हेलिकोप्टर के उतरने सर पहले छिडकाव हुआ ही था.इन प्लांट्स का विरोध कोई करे भी तो करता रहे,जब मंत्री व अधिकारीयों की जेबें पहले ही भरी जा चुकी हो,और निरंतर भारती जा रही हों तो जनता केवल चिल्लाएगी ही मिलेगा कुछ नहीं.

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