बैसाखी पर दौडा दौडी

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आज एक पत्थर मारकर आवागमन में विघ्न डालने जा रहा हूं। बिना पत्थर मारे कोई मेरी बात सुनेगा ही नहीं। कोई ध्यान देगा ही नहीं। संसार के आठवें आश्चर्य के विषय में लिखने की सोची है।

जानते हो, कि, संसार भर में एक देश ऐसा भी है, जो बैसाखी पर दौड रहा है। सारे के सारे देश के नागरिक, नर नारी जिन्हें विरासत में परमोत्कृष्ट चरण प्राप्त थे, परमात्मा नें इस देशपर बडी कृपा की थी, सभी देशों की अपेक्षा, इस देशको अत्त्युत्तम सशक्त सक्षम पैर मिले थे। ऐसे पैर कि जो और किसी के पास नहीं थे, आज भी किसीके पास नहीं है। केवल भूतकाल में ही नहीं, आज भी यह कथन सत्य ही प्रमाणित होगा। ऐसा हो नेपर भी, सारे के सारे नागरिक बैसाखी पर दौड रहे हैं। जो नहीं दौडते वे दुःखी है,वे भी दौडना चाहते हैं। क्यों? बडा अचरज हैं। इसे संसारका ८ वाँ आश्चर्य कहना चाहिए।

ऐसी स्थिति किसी और देशकी भी है क्या? जी नहीं। जापान अपने पैरोंपर खडा हो कर दौड रहा है।अभी अभी, हमारे साथ साथ ही प्रारंभ करता हुआ, इज्राएल अपने पैरों पर खडा हो गया, और अब दौड भी रहा है, बहुत आगे भी निकल गया है। जर्मनी, फ्रांस, चीन, रूस सारे अपने पैरोंपर दौड रहे हैं।

पर इस देशका प्रधान मंत्री भी बैसाखीपर ही दौडता है, उसका हर मंत्री बैसाखी पर दौडने में गौरव अनुभव करता है, हर पढा लिखा (?)विद्वान भी बैसाखीपर दौडे बिना अपने आप को सुशिक्षित नहीं मानता। नेता क्या अभिनेता क्या? और जब बैसाखीपर कठिनाई अनुभव करता है, जब आगे जा नहीं पाता, दौड नहीं पाता, तो बीच बीच में बैसाखी से उतरकर चल भी लेता है। अपना काम निकल जाने पर फिरसे बैसाखी पर चढ कर शेखी बघारता हुआ द ौडने लगता है। कभी आपने हमारे ही पैसों पर धनी हुए अभिनेता ओं के साक्षात्कार देखें हैं? प्रश्न हिंदी में पूछा जाता है। पर बहुतों का उत्तर बैसाखीपर आता है। अबे मूरख! तू सारे चल चित्र में हिंदी में बोल सकता है, तो कौनसे रोग के कारण अब बैसाखीपर चढ गया?

आपने अनुमान कर ही लिया होगा, यह बैसाखी अंग्रेज़ी की बैसाखी है।

बालकों का सारा बचपन खेल कूद में, बीतने के बदले, बैसाखीपर चढना सीखने में, फिर संतुलन सीखने में, फिर धीरे धीरे लडखडा कर चलना ,और फिर ठीक चलना,फिर दौडना सीखने में बीत जाता है। बिना खेल कूद के बचपन का परिणाम युवाओं के कुंठित मानस और व्यवहार में देखा जाता है। अब कहते हैं कि विश्वकी उन्नति की दौडका ऑलिम्पिक भी इसी बैसाखीपर दौड कर जीत कर दिखाओ।

इसी बैसाखी का, हमें बहुत लाभ(खाक) हुआ?

(एक) तो, हमारा समाज हीन ग्रंथिसे पीडित हो गया,

( दो) पश्चिमसे मति भ्रमित हुआ, या धौत बुद्धि हो गया , हतप्रभ हो गया, आत्म विस्मृत हो गया।

(तीन) और हम पीछड गये।

(चार)आज यदि हमारा साधारण {७० % से भी अधिक} बहुसंख्य नागरिक प्रति दिन २५ रूपयों से कम वेतन पर जीवित है, तो कारण है, यह बैसाखी।

(पांच) बैसाखी पर चढे हुए छद्म अफसर साधारण नागरिक को हीनता का अनुभव कराते हैं, तो कारण है यह बैसाखी। सारे देशकी असंतुलित उन्नति आयी तो सही, पर इस साधारण नागरिक के निकट से निकल गयी। उसे पता तक नहीं चला कि, ऐसी कोई उन्नति भी आयी हुयी थी, जिसका कुछ लाभ उसे भी प्राप्त हुआ हो।

(छः) इस देशके कृषक की ऐसी उन्नति हुयी, कि, वह आत्म हत्त्या कर रहा है।{धन्य धन्य }

और मंत्री क्या, अफसर क्या, नेता क्या, अभिनेता क्या, हर कोई बैसाखी पर चढा हुआ, अपने आपको आम जनता से बिलकुल दूर और ऊंचा अनुभव करता है। जैसे स्वतः कोई आकाशसे टपक पडा ना हो? बैसाखीपर चढे चढे बाते करता है।

यह बैसाखी के बीज की घुट्टी अंग्रेज़ी शिक्षा के माध्यमसे पिलायी गयी।

सूज्ञ पाठक भी अब तक, समझ ही गये होंगे, कि यह बैसाखी जिसकी चर्चा चल रही है, वह अंग्रेज़ी की बैसाखी है।

वैसे नेतृत्व का मूल नेत्र हैं। नेता वह है, जिसे नेत्र हैं। जो दूरकी भी, और निकटकी भी देख सकते हैं। और ठीक देखकर देशको दिशा देता हैं। दुर्भाग्य हमारा, हमारे नेतृत्वनें, निकटकी {चुनावकी}तो देखी पर दूरकी नहीं देख पाये।

॥ठोस उदाहरण॥

एक ठोस घटा हुआ ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। चौधरी मुख्तार सिंह एक देशभक्त हिन्दीसेवी एवं शिक्षाविद थे।

1946 में वायसराय कौंसिल के सदस्य चौधरी मुख्तार सिंह ने जापान और जर्मनी की यात्रा के बाद यह अनुभव किया था कि यदि भारत को कम (न्यूनतम) समय में आर्थिक दृष्टि से उन्नत होना है तो जन भाषा में जन वैज्ञानिक बनाने होगे । उन्होने मेरठ के पास एक छोटे से देहात में ”विज्ञान कला भवन” नामक संस्था की स्थापना की। हिन्दी मिड़िल पास छात्रों को उसमें प्रवेश दिया। और हिन्दी के माध्यम से मात्र पांच व र्षों में उन्हें एम एस सी के कोर्स पूरे कराकर ”विज्ञान विशारद” की उपाधि से विभूषित किया। इस प्रकार के प्रयोग से वे देश की सरकार को दिशा देना चाहते थे कि जापान की भांति भारत का हर घर ”लघु उद्योग केन्द्र” हो सकता है।

दुर्भाग्यवश दो स्नातक टोलियों के निकलने के बाद ही चोधरी साहब की मृत्यु हो गई और प्रदेश सरकार ने ”विज्ञान कलाभवन” को इंटर कॉलेज बना दिया। वहां तैयार किए गए ग्रन्थों के प्रति भी कोई मोह सरकार का नहीं था। पर इस प्रयोग ने यह भी सिद्ध तो किया ही (अगर यह सिद्ध करने की जरूरत थी तो) कि जनभाषा ही आर्थिक उन्नति का रहस्य है। जनविज्ञान, विकास की आत्मा है।

जनभाषा ही जनतंत्र की मूल आत्मा को प्रतिबिंबित कर सकती है, यह बात गांधी जी ही नहीं और नेता भी जानते थे। तभी तो राजाजी कहते थे, ’हिन्दी का प्रश्न आजादी के प्रश्न से जुड़ा है’। और तभी तो ”आजाद हिन्द फौज की भाषा हिन्दी” थी। तभी तो युवको को अंग्रेजी स्कूलों से हटा कर उनके अभिभावकों ने हिन्दी एवं राष्ट्रीय विद्यालयों में भेजा था। लाल बहादुर शास्त्री आदि देशरत्न ऐसे ही विद्यालय� �ं की उपज थे। हिन्दी परिवर्तन की भाषा थी, क्रान्ति का उद्बोधन थी उन दिनों। {विकिपीडिया,- एक मुक्त ज्ञानकोष से}

कुछ हिसाब लगाते हैं। चौधरी मुख्तार सिंह जी के ऐतिहासिक उदाहरण के आधार पर कुछ हिसाब लगाते हैं।

आज मिड़िल के, उपरांत ४ या ५ वर्ष तो शालामें ही पढना पडता है। उसके पश्चात ६ वर्ष M Sc करने में लग जाते हैं। तो हिंदी (या जन भाषा) माध्यमसे हर छात्र के ६ वर्ष बच जाते हैं।

(क) तो, करोडों छात्रों के ऐसे ६ वर्ष, बच पाएंगे,

(ख) अब्जों की मुद्रा बचेगी। हां जिन्हें अंग्रेज़ी माध्यमसे पढना हो, वे पढें, और अधिक वर्ष तक पढें, अपने बल पर, अपने पैसे खर्च कर, पढें, भारत का शासन उसे सहायता ना करें।

(ग) वास्तवमें भारत की गरीब जनता ही तो, उसे अनुदान दे रही है। {सरकार किसका धन देती है?}

(घ) हमारा आम नागरिक हीनता का अनुभव क्यों करता है? उसे ऐसा अनुभव कराने वाला खुद बैसाखीपर चढा हुआ छद्म अफसर है।

१) जिस दिनसे भारत हिंदी को एक क्रांतिकारी, प्रतिबद्धतासे पढाएगा; भारतका सूर्य जो ६३ वर्षोंसे उगनेका प्रयास कर रहा है, वह दशकके अंदर चमकेगा,अभूतपूर्व घटनाएं घटेगी। कोटि कोटि छात्रोंको अंग्रेजीकी बैसाखीपर दौडना(?) सीखानेमें, खर्च होती, अब्जोंकी मुद्रा बचेगी। सारा समाज सुशिक्षितता की राह पर आगे बढेगा। कोटि कोटि युवा-वर्षॊकी बचत होगी, बालपन के खेलकूद बिनाहि तरूण बनते युवाओंके ज� �वन स्वस्थ होंगे।

सारे देशको अंग्रेजी बैसाखीपर दौडानेवाले की बुद्धिका क्या कहे? फिर इसी बैसाखीपर, विश्वमें ऑलिम्पीक जीतना चाहते हैं ? श्वेच्छासे कोई भी भाषा का विरोध नहीं, पर कुछ लोगोंकी सुविधाके लिए सारी रेल गाडी मानस सरोवरपर क्यों जाए?

(२) अंतर राष्ट्रीय कूट नीति की पाठय पुस्तकों के अनुसार, साम्राज्यवादी देश, (१) सेना बल से (२)या, धन बल से (३) या, सांस्कृतिक (ब्रैन वाशिंग करकर) आधिपत्य जमाकर परदेशों पर शासन करते हैं।यह तीसरा रास्ता मॅकाले ने अपनाया था।हम बुद्धुओं को समझ ना आया।

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डॉ. मधुसूदन
मधुसूदनजी तकनीकी (Engineering) में एम.एस. तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त् की है, भारतीय अमेरिकी शोधकर्ता के रूप में मशहूर है, हिन्दी के प्रखर पुरस्कर्ता: संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती के अभ्यासी, अनेक संस्थाओं से जुडे हुए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS (युनिवर्सीटी ऑफ मॅसाच्युसेटस, निर्माण अभियांत्रिकी), में प्रोफेसर हैं।

21 COMMENTS

  1. Namaskar.(1) Yah Chintan Stage ka aalekh hai.
    (2) Badlav ki pahali avastha sahi JanakarI hotI hai.
    (3) Aur Sahi Janakari hi prastut ki gayi hai.
    (4) ****Fir bhi mere dwara likhit 80+ aalekh isee pravakta men Dekhane ka anurodh karata hun.***
    ****** Japan apni japani Bhasha men padha kar aage badha hai. *****
    Yah desh badhane ki baat hai. usake sath sath sabhi aage badhenge.
    Ek Saptah Pravas par rahunga.
    Uttar men deri ho sakatee hai.
    Dhanyavad
    Dr. Madhusudan

  2. डॉ. प्रतिभा जी सक्सेना -अनेकानेक धन्यवाद।
    आप टिप्पणी करती रहें। असहमति, त्रुटियां भी बिना हिचकाहट, दिखाती रहें।

  3. और तो और, अँग्रेजी ने बुद्ध को बुद्धा बना दिया, योग को योगा। मुखोपध्याय, सूट-टाई पहनकर मुखर्जी हो लिए और श्रीवास्तव बन गए श्रीवास्तवाज़। अब तो अरोड़ा भी अरोरा कहलाते हैं। देसाई जी खुद को ‘दिस्साई’ कहकर इतराते हैं। बाकि तो छोड़ो, हमारा नाम भी मिटटी में मिला दिया, कितना भी सुधारो, शशि को शाषी बोलते है| भारत में और बुरा हाल है| बच्चे अब चंदा मामा नहीं, मून देखते हैं। गैया ‘काऊ’ और चिया ‘स्पैरो’ बन गई है। भाषा व्याकरण ऐसा गड़बड़ाया कि अब “आँधी आता है तो पेड़ गिरती है।”, राष्ट्र आगे बढ़ता नहीं, ‘बढ़ती’ है।

  4. आप का कथन उचित तर्क-सम्मत है -इस पर मतभेद की कोई संभावना नहीं है .
    जो देश अपनी भाषा में नहीं बोल सकता वह अपने स्वाभिमान और संस्कृति को भी नहीं बचा सकता !

  5. आदरणीय मधुसुदन जी आपको तो अब धन्यवाद कहने में भी मुझे संकोच होने लगा है और मै धन्यवाद देना भी नहीं चाहूँगा …..

    सूरज को रौशनी दिखाना अपने आप में अपना उपहास उड़ना ही है.

  6. अनीश पटेल Says:==>”…………………मैँ शब्दोँ का जाल न बुनकर एक ऐसी योजना को साकार रूप देना चाहता हूँ, जो दो बूँद पिलाकर हमारे उस अलग समाज को पूर्णतः विकलाँग होने से बचाये। कृपया मेरे लिये पथ प्रदर्शित करेँ। आपका अनुयायी …अनीश पटेल..प्रतीक्षा मेँ।”मधुसूदन का उत्तर: मुझे निम्न पथ संभव लगता है।
    (१) प्रवक्ता वैचारिक बदलाव के बीज के रूपमें देखा जा सकता है।
    (२) स्थूल रुपसे मैं उत्तर दे रहा हूं, इस में सभी पक्षों को सुनकर बदलाव भी अपेक्षित हैं।
    (३) परंतु, “राष्ट्र भाषा” की आवश्यकता पर मैं दृढ हूं। इसमें बदलाव अपेक्षित नहीं।
    (४) तर्क के आधार पर इस सत्य को प्रस्थापित करना चाहता हूं।
    आप आगे के लेखोंकी प्रतीक्षा करें।
    मैं विचार/चिंतन/मनन, करते हुए, अलग, अलग पहलुओं पर सोच कर ही; अंतमें लिखता हूं।
    इस लिए विलंब भी होता है।
    क्रियान्वयन, जो आप सोच रहे हैं, इसका बीजारोपण ही हो जाय, इतनी ही इस प्रयास की अपेक्षा है।
    ===> इसमें कुछ पहल हो रही है। कुछ अगले लेखों में आगे की दिशा की दृष्टि से चर्चात्मक (लेख) पर विचार कर रहा हूं। प्रवक्ता वैचारिक बदलाव का ही साधन है। इस सोपान की सीढियां स्थूल रूपसे निम्न है।
    (क)स्पष्ट विचार —->वैचारिक स्वीकृति,—> सामुहिक वैचारिक बदलाव –> शासन द्वारा, क्रियान्वयन —->शिक्षा क्षेत्रमें बीजा रोपण —> कुछ वर्षॊं में समाज में भी बदलाव—> समृद्धि।
    (ख) साथमें पाठ्य पुस्तक एवं अन्यान्य विषयों की पारिभाषिक शब्दावलियां जो हमारी अनुपम समृद्ध संस्कृत धरोहर के कारण संभव है। उसकी पूर्ति शब्दावलि आयोग भी कर रहा है। इसी काम में जुटा हुआ है।
    धीरे धीरे सारा स्पष्ट होता जाएगा।
    आप अनुयायी नहीं, साथी हैं।

  7. आपको मैँ “गुरूजी” सम्बोधित करना चाहता हूँ । मुझे औपचारिक्ता पसंद नहीँ, इसलिए सिर्फ आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, एक सामान्यतः न कहे जाने वाले सच को कहने के लिये। मैँने देखा और महसूस किया है, इस वैशाखी को। यह वैशाखी एक अलग समाज को जन्म दे चुकी है, और इस वैशाखी को छू मात्र लेने वाले भी अपने को गौरवान्वित महसूस करने लगते हैँ । न्यायालय, दफ्तर , डाक कार्यालय मेँ नित्य अपमानित किये जाते हैँ, मेरे दादाजी, मातायेँ और जिनके पास यह नहीँ होती। मैँ शब्दोँ का जाल न बुनकर एक ऐसी योजना को साकार रूप देना चाहता हूँ, जो दो बूँद पिलाकर हमारे उस अलग समाज को पूर्णतः विकलाँग होने से बचाये। कृपया मेरे लिये पथ प्रदर्शित करेँ। आपका अनुयायी …अनीश पटेल..प्रतीक्षा मेँ।

  8. आपको मैँ “गुरूजी” सम्बोधित करना चाहता हूँ । मुझे औपचारिक्ता पसंद नहीँ, इसलिए सिर्फ आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, एक सामान्यतः न कहे जाने वाले सच को कहने के लिये। मैँने देखा और महसूस किया है, इस वैशाखी को। यह वैशाखी एक अलग समाज को जन्म दे चुकी है, और इस वैशाखी को छू मात्र लेने वाले भी अपने को गौरवान्वित महसूस करने लगते हैँ । न्यायालय, दफ्तर , डाक कार्यालय मेँ नित्य अपमानित किये जाते हैँ, मेरे दादाजी, मातायेँ और जिनके पास यह नहीँ होती। मैँ शब्दोँ का जाल न बुनकर एक ऐसी योजना को साकार रूप देना चाहता हूँ, जो दो बूँद पिलाकर हमारे उस अलग समाज को पूर्णतः विकलाँग होने से बचाये। कृपया मेरे लिये पथ प्रदर्शित करेँ। आपका अनुयायी …अनीश पटेल..

  9. अति उत्तम लेख.
    अंग्रेजो के तीन (प्रमुख) वायरस – क्रिकेट, चाय, अंग्रेजी.

  10. प्रेम सिल्ही, डॉ. राजेश कपूर, और “इंसान”–
    धन्यवाद सभीका करता हूं।
    (१) पर विशेषकर प्रेम सिल्ही जी ने समय निकाल कर दीर्घ टिप्पणी दी, कुछ बिंदु भी दर्शाए। आप ने व्यक्त किए विचारों पर सोच कर अगले लेख प्रयास करूंगा।प्रतीक्षा करें।
    अधिकतर शनि-रवि, मिलते हैं,और कुछ रात्रियां।
    ==तर्क के आधार पर हिंदी को प्रस्थापित करना इतना ही, ऐसा मंच कर सकता है।इसीको सही रूपसे किया जाए।==
    (२) कपूर जी, आपकी अपेक्षाएं पूरी करने का प्रयास करूंगा।
    (३) “इन्सान”
    विचार- के बाद–> कृति- के बाद –>कुछ परिणाम।
    इस प्रकार का सामान्य ढांचा होता है।
    प्रवक्ता के माध्यम से, विचारों का लेन देन हो, यही अपेक्षा है।
    ॥कर्मण्येवाधिकारऽस्ते ……॥
    सविनय।
    मैं, श्री. अनुनाद सिंह जी से सहमत हूं। आप उनका नाम भी लिखकर गुगल में डालेंगे, तो वेब साईट निकल आएगी।
    डॉ. मधुसूदन

  11. हिंदी के प्रति कटिबद्ध श्री. अनुनाद सिंह जी ,
    Er. Diwas Dinesh Gaur
    और Dr Shashi Sharma,
    जीवन की आपाधापी से समय निकाल कर, आप सभीने लेख पढा, और कुछ सराहना के शब्द भी लिखे। आप ने यदि पढा न हो, तो ’भारतीय बॉन्साई पौधे” पढने की बिनती।सभी को धन्यवाद।

  12. डॉ. मधुसूदन उवाच जी द्वारा लिखा यह लेख हमारे अंतःकरण को चुनौती देता है| लेकिन इस बीच बैसाखी पर दौडा दौडी में लोंगों ने हिंदी भाषा को भी बैसाखी थमा दी है| बैसाखी पर लोगों की दौड़ा दौडी भारतीयों को कहीं तो अवश्य ले जायेगी लेकिन आज ऑनलाइन हिंदी मीडिया ने हिंदी भाषा को जो बैसाखी थमाई है वह भाषा का सर्वनाश कर सकती है| वह वैसाखी है रोमन शैली| विचार करें रोमन शैली में हिंदी का प्रचलन टूटीफूटी हिंदी बोलने वाले अनपढ़ भारतीयों को पढ़ने लिखने के लिए रोमन शैली को सीखने समझने के लिए बाध्य होना पड़ेगा| मेरे देखने में आया है कि नवभारत टाइम्ज़ पर रोमन शैली में टिप्पणी लिखने की विशेष सुविधा दी गई है| मैंने ऐसे लेख पढ़े हैं जहां लेखक ने हिंदी को रोमन शैली में लिख देश को एक सूत्र में बाँधने का अनुपयुक्त सुझाव भी दिया है|

  13. मैं भोसले जी और इंजी. गौड़ जी से पूरी तरह सहमत हूँ कि यह लेख प्रवक्ता पर प्रकाशित अब तक का सर्व श्रेष्ठ लेख है. आपके इस लेख पर इतनी सकारात्मक टिप्पणियों का एक अर्थ यह है कि भारत जाग रहा है और सही दिशा में, सही सोच विकसित हो रही है. आप सरीखे देश भक्त विद्वानों के प्रयास व्यर्थ नहीं जा रहे. उत्तम परिणाम होने की परिस्थितियां स्पष्ट नज़र आ रही हैं. भारत में ये भारत विरोधी तंत्र अब बहुत देर तक टिकने वाला नहीं है. कृपया इसी प्रकार युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन करते रहें. इतिहास गवाह है कि भारत के नव निर्माण के आन्दोलनों का दिशा दर्शन सदा शिक्षकों और संतों ने किया है.
    – आपके आलेख को पढ़ कर सचमुच प्रशंसा के शब्द कम पद रहे हैं. अभिनन्दन स्वीकार करें.

  14. किसी परिवार में पिता के असंयम और अत्याचार, जैसे पत्नि अथवा बच्चों से मारपीट, परिवार के प्रति अपने कर्तव्य की अवेहलना, इत्यादि, तभी तक चलते रहते हैं जब तक संतान वयस्क नहीं हो जाती| ऐसा भी देखने में आया है कि परिवार में असहाय पहली व्यसक संतान घर में रोज रोज की झिक झिक से बचने हेतु घर छोड़ अन्यत्र चली जाती है| ऐसा प्रतीत होता है कि जवाहरलाल नेहरु के प्रयोगात्मक समाजवाद से उत्पन्न अभाव से बचने के लिए तथाकथित स्वतन्त्र भारत की पहली पढ़ी लिखी और प्रबुद्ध युवा पीड़ी ने पहली व्यसक संतान की भांति ही १९७० के दशक में देश छोड़ अमरीका और दूसरे पश्चिमी देशों में जा बसने का जो बीज बोया था वह वास्तविकता में उनकी सम्पूर्ण आज़ादी थी, अंग्रेजों द्वारा बनाए कानूनी चक्रव्यूह से और समाजवाद से|

    वैसे तो भारत में जीवन के किसी पहलू को लेकर असंतुष्टता प्रकट कर सकते हैं, लेकिन राष्ट्र भाषा का अभाव भारतीय मूलवस्तु को खुली चुनौती है| मैं समझता हूं कि देश ओर देशवासियों को लेकर सत्ता द्वारा भारत में स्वेच्छापूर्वक बहुआयामी कार्यकलाप अथवा प्रगति हेतु यथार्थ नीति कभी नहीं अपनाई गई है| मुझे तो न केवल उनकी देशभक्ति बल्कि उनकी योग्यता पर भी संदेह रहा है| मेरे उपरोक्त कथन में यह स्थिति सत्ता के लिए निर्वाचित लोगों की अपने कर्तव्य प्रति अवेहलना मात्र है| स्वतंत्रता के चौंसठ वर्षों बाद आज भारतीय वयस्क हो भारत माँ की पीड़ा का निवारण करने के लिए तत्पर हैं लेकिन उनको नेतृत्व कौन दे? भाषा को लेकर एक गैर सरकारी संस्था बनानी होगी जो अपने क्षेत्रीय अध्यायों द्वारा ऐसा अभियान चलाये जो प्रांतीय भाषाओं के साथ साथ हिंदी को समस्त भारत में उसकी वास्तविक राष्ट्रभाषा सी प्रतिष्ठा दिलवाये|

    हमें समाज के प्रत्येक स्तर पर जीवन की सभी गतिविधियों, विद्या, धर्म, शिष्टता, परिवार, आजीविका, उद्योग, शासन, नागरिकता व उसके अंतर्गत अधिकार व कर्तव्य, स्वस्थता, मनोरंजन, इत्यादि को उचित रूप से परिभाषित करने हेतु पीछे सरकती संकोची हिंदी को राष्ट्रभाषा अनुरूप प्रयोग में लाना होगा| हिंदी साहित्य को रुचिकर बना कर हिंदी भाषा को लोकप्रिय बनाना होगा| केवल वार्तालाप व साहित्य में हिंदी का प्रयोग प्रयाप्त नहीं इस लिए हिंदी भाषा को जीवन के प्रत्येक पहलू में अपनाते इसे सगर्व राष्ट्रभाषा होने की प्रतिष्ठा देनी होगी| मेरा स्वयं का विचार है कि हिंदी भाषा से अधिक हिंदी भाषीयों के सामाजिक व आर्थिक विकास में प्रयाप्त रूप से उपक्रम होने चाहियें| और यह सच है कि समृद्ध हिंदी भाषी अपने व्यवसाय व उद्योग में केवल हिंदी का प्रयोग कर भाषा को उसका उचित स्थान दिलवा सकता है| अन्यथा शंका बनी रहेगी कि हिंदी केवल गरीबी व लाचारी का प्रतीक बन पिछड़ न जाये| ऎसी स्थिति में हमें सदा के लिए बैसाखी के सहारे की आवश्यकता रहेगी|

  15. आदरणीय डॉ. मधुसुदन जी, मै भी भाई अजीत जी की बात से सहमत हूँ, सच में आपके द्वारा लिखित इस लेख की प्रशंसा में शब्द ही नहीं हैं| श्रेष्ठतम लेख| किन्तु झूठ नहीं कहूँगा पीढ़ा भी बहुत हुई| भारत व भारतीयता की यह दुर्गति देख किस भारतीय को पीढ़ा नहीं होगी?
    मई भी तकनीकी क्षेत्र से जुदा हूँ| पेशे से इंजिनियर हूँ| मैंने अपने इंजीनियरिंग के समय अंग्रेजी के प्रति विशेष समर्पण बहुत बार देखा, उस पर से शिक्षक गणों का विशेष स्नेह उन्ही छात्रों को मिलता था जो अंग्रेजी बोलने में महारथ हासिल हो| समय समय पर विशेष सेमीनार होते थे जहाँ ज्ञान के नाम पर केवल अंग्रेजी का प्रदर्शन होता था| मैंने भी बहुत बार इसमें भाग लिया, किन्तु विषय से अधिक मेरी भाषा पर अधिक ध्यान दिया गया| मै अंग्रेजी माध्यम में पढ़ा हुआ था अत: विशेष मुश्किल नहीं रहा, किन्तु मेरे कुछ मित्र गाँवों से शिक्षा लेकर आये थे aur unki ab tak की samast शिक्षा hindi माध्यम में ही हुई thii| ise में unhe विशेष duvidha kaa saamna karna padta था, saath ही we heen bhaawna से भी grasit hone lage| उस समय mujhe मेरी शिक्षा vyarth lagne lagi|
    किन्तु आपके लेख से ek nayi oorja mil rahi hai, मैंने aapka लेख “भारतीय बॉन्साइ पौधे” भी पढ़ा, सच में hriday को chhoone wala lekhan hai aapka| hame isi prakar laabhanvit karte rahen|
    बहुत बहुत dhanyvad…
    saadar…
    diwas…

  16. मधुसूदन जी,

    आपने बहुत सटीक उपमा दी है।

    अंग्रेजी के कारण भारत में स्कूलों में, कालेजों में, सेमिनारों में , संगोष्टियों में, संसद और विधान सभाओं में .. सर्वत्र चर्चा के नाम पर ‘रोना’ रोया जा रहा है। कहीं भी सहज बातचीत और चर्चा हो ही नहीं पा रही है।

    यदि हम विकास के पथ पर दुनिया में अग्रणी बनना चाहते हैं तो इस दुष्चक्र (विस्सस सर्कल) को तोड़ना ही होगा। अपने पैरों पर चलना होगा। सारा काम अपनी भाषा में करना होगा। इसमें कोई समस्या है ही नहीं। बस सरकारी इच्छाशक्ति चाहिये। जनता में इच्छाशक्ति जगनी चाहिये। दुनिया के तमाम देशों में यह काम रातोंरात कर दिया, हम आगा-पीछा सोचते रहे।

    इतना विचारोत्तेजक लेख लिखने के लिये साधुवाद।

  17. आदरणीय अजित भोसले जी, आप सच ही कहते हैं।
    ==”देख-देख कर दुखी होता रहा हूँ जो अपने बच्चे को शहर के तथाकथित सर्वश्रेष्ठ विद्द्यालय में प्रवेश हेतु रात भर केवल फार्म के लिय विद्द्यालय के बाहर लाइन में खड़े रहते हैं और उनमें से अधिसंख्य बच्चों का 10-12 सालों बाद हिंदी माध्यम के बच्चों की अपेक्षा बुरा हश्र होता है, भले ही पढ़ते समय हिंदी माध्यम के बच्चे हीनभावना से ग्रस्त रहते हो लेकिन इसी चक्कर में वे ज्यादा मेहनत करके अंग्रेजी माध्यम के बच्चों से ज्यादा सफल होते हैं, कोई भी चाहे तो सफलता का प्रतिशत देख सकता है, नशाखोरी, चरित्रहीनता, संस्कारहीनता, देशद्रोह ,धर्मद्रोह, समाजद्रोह जितना इन तथाकथित श्रेष्ठ schools में पनपता है माँ -भाषा में पढने वालों में नहीं,====
    ————————————————————
    मधुसूदन उवाच: ==मैं ने यहां अमरिका में भी यही अनुभव किया है। मैं परामर्श दाता प्रोफेसर भी हूं, भारतीय छात्रों से घनिष्ठ संबंध रखता हूं।कुछ जानकारी के आधारपर लिखता हूं। कारण है–
    (१) भारतीय गणित की परंपरा, जिसमें, अंग्रेज़ी की अपेक्षा, पहाडे याद करना, अधिक शीघ्रता से होता है, और गणित ही,ऊच्च शिक्षाकी भीत्ति है। भारतीय गणित की परंपरा, हमारी जन (गुजराती, मराठी इत्यादि) भाषाओं में बहुत ही सक्षम है। अंग्रेज़ी माध्यम वाले हमारे प्रतिस्पर्धी इसमें बहुत ही कच्चे पाए हैं।
    (२) भारतीय छात्र शनि-रवि (वीक-एन्ड) में भी पढते हैं, जब अमरिकन छात्र डेटींग पर शुक्रवार की रात, बीताते हैं।शराब भी चलती है। कहीं कहीं और बुरी आदते भी होती है।
    (३) वासनाओं का प्रभाव भी हमारी संस्कृति में न्यून मात्रा में ही है।फिर, वासना युक्त जीवन ध्येय वादी नहीं होता, तो तुरंत हार भी मानता है।
    (३) भारतीय छात्र जो हमारे अच्छे घरों के संस्कार से आते है, चुटकी में सफल हो पाते हैं।
    (४) हमारी वेदों के कालसे प्राप्त हुयी पाठांतर की पद्धति, जिसमें ==परिच्छेदोंको शब्द, शब्द याद करने की सरल विधियां जो हमें सीखाई गयी है। जो अंग्रेज़ी शालाओ में परंपरा से ही नहीं होती।पर्याप्त बिंदू हैं इसके। इसी विषय पर कभी …..लिखा जा सकता है। या और कोई भी लिखे।
    इस काम को देरी भले हुयी हो, आपने-हमने मिलकर इसे करना होगा।
    मैं ने “भारतीय बॉन्साइ पौधे” लेख, हमारी गुलामी पर, भेजा है। देखिए, आप का स्पष्ट मत जानना चाहूंगा।

  18. अजित जी।
    आपसे नितांत सहमति प्रकट करता हूँ। और मैं जो बीस वर्ष पहले नहीं मानता था– वह आज मानता हूं।क्यॊ कि यह मेरे चिंतनका सार है। मैं स्वयं गुजराती भाषी हूं, पर दीर्घ चिंतन और अध्ययन के पश्चात इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं।
    मैं स्वयं अंग्रेज़ी माध्यममें, अभियांत्रिकी का प्राध्यापक, आज वास्तविकता समझ पाया हूं, जो ऊंचे स्वरसे कहना चाहता हूं। आगे और भी कमसे कम ४ लेखोंकी प्रतिक्षा की बिनती।
    फिरसे दोहराता हूं।
    “भविष्य वाणी”– ===> जिस दिनसे भारत हिंदी को एक क्रांतिकारी, प्रतिबद्धतासे पढाएगा; भारतका सूर्य जो ६३ वर्षोंसे उगनेका प्रयास कर रहा है, वह दशकके अंदर चमकेगा,अभूतपूर्व घटनाएं घटेगी। कोटि कोटि छात्रोंको अंग्रेजीकी बैसाखीपर दौडना(?) सीखानेमें, खर्च होती, अब्जोंकी मुद्रा बचेगी। सारा समाज सुशिक्षितता की राह पर आगे बढेगा। कोटि कोटि युवा-वर्षॊकी बचत होगी, बालपन के खेलकूद बिनाहि तरूण बनते युवाओंके जीवन स्वस्थ होंगे।
    ==भाई मुद्रा भी बचेगी। ===जिन्हे संसार की अन्य भाषा पढना हॊ, अनुमति है, पर जनता के धनबल पर नहीं।==
    प्रोफ़ेसर– स्ट्रक्चरल इंजिनियरिंग
    युनिवर्सिटी ऑफ़ मॅसच्युसेट्स।
    यु एस ए

  19. लेख की सोच, हिंदी की महत्वपूर्णता की बात, अति सुंदर–

  20. मधुसूदन जी इस आलेख के लिए आपकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है, मैं प्रवक्ता के लेख नियमित रूप से पढता हूँ अगर कहूं की मैंने प्रवक्ता पर अबतक इस विषय में सर्वश्रेष्ठ लेख पढ़ा है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, निश्चित रूप से यह देश भूल गया है की उसकी टाँगे श्रेष्ठ हैं फिर भी वह बैसाखी की सुन्दरता पर इतना मोहित है की बैसाखी का उपयोग करने के लिए अपनी टाँगे कटवाने को भी तय्यार है, ज़हर कुछ इस कदर फ़ैल चुका है मन-मस्तिष्क में की कोई भी अपने कुदरती पेरों की और देखना तक नहीं चाहता है, फिर भी मैं यही कहूंगा इस सबके लिए भारत सरकारें ही जिम्मेदार हैं, आप एक भी ऊंचे लेवल की ऐसी परिक्षा नहीं बता पायेंगे जिसमे भले ही माध्यम हिंदी हो पर अंग्रेजी का एक पर्चा पास करने की बाध्यता ना हो, में ऐसे अनेकों लोगो को देख-देख कर दुखी होता रहा हूँ जो अपने बच्चे को शहर के तथाकथित सर्वश्रेष्ठ विद्द्यालय में प्रवेश हेतु रात भर केवल फार्म के लिय विद्द्यालय के बाहर लाइन में खड़े रहते हैं और उनमें से अधिसंख्य बच्चों का 10-12 सालों बाद हिंदी माध्यम के बच्चों की अपेक्षा बुरा हश्र होता है, भले ही पढ़ते समय हिंदी माध्यम के बच्चे हीनभावना से ग्रस्त रहते हो लेकिन इसी चक्कर में वे ज्यादा मेहनत करके अंग्रेजी माध्यम के बच्चों से ज्यादा सफल होते हैं, कोई भी चाहे तो सफलता का प्रतिशत देख सकता है, नशाखोरी, चरित्रहीनता, संस्कारहीनता, देशद्रोह ,धर्मद्रोह, समाजद्रोह जितना इन तथाकथित श्रेष्ठ schools में पनपता है माँ -भाषा में पढने वालों में नहीं, लेकिन आपकी और हमारी बात नक्कारखाने में बांसुरी की आवाज़ सिद्ध होती आई है और आगे भी होगी. क्योंकि अपने देश को अपनी संस्कृति को सम्मान दिलाने के लिए मजबूत रीढ़ के कर्णधारों की जरूरत होती है और कमसे कम मैं तो नहीं समझता की मजबूत रीढ़ के लोग कभी भारत की सत्ता संभालेंगे. मैं निराश हो चुका हूँ क्योंकि वर्तमान में जिसने भी देशप्रेम की या इमानदारी की बात की वह या तो जहां से चला गया (स्व.राजिव दीक्षित) या हाशिये पर पहुंचा दिया गया.

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