दुःख को सुख में बदलने का नजरिया

0
413

ललित गर्ग –

आजतक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हुआ, जिसका जीवन समस्यामुक्त हो। हर व्यक्ति किसी-न-किसी समस्या से ग्रस्त और त्रस्त है। इसीलिये दुःख को जीवन का शाश्वत या आर्यसत्य बताया है। दुःख का निवारण कैसे हो? इसकी खोज में अनंत काल से मनीषियों ने अपना जीवन लगाया और पाया कि दुख का कारण है और इसका निवारण भी है। दुख के कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है चाह, इच्छा या कामना। चाहे का न होना और अनचाहे का हो जाना दुःख का मूल कारण है। हम जन्म से ही कुछ-न-कुछ चाहते हैं और चाह की पूर्ति न होने पर हम दुःखी होते हैं।
चाह का बदला रूप है आकांक्षा। हम जीवन में ऊंचा पद, यश, कीर्ति चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा नाम अखबार में छपे, टी.वी. पर आए। दुनिया का ऊंचे से ऊंचा पद या पुरस्कार पाने की लालसा प्रत्येक व्यक्ति में दिखाई देती है। वैज्ञानिक, साहित्यकार, चित्ऱकार, संगीतकार, कलाकार, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी आदि सबमें होड़ लगी है। सफल तो एक होता है, शेष सभी दुखी होते हैं। आकांक्षा, प्रगति या विकास की जननी है परन्तु दुख का मूल भी है।
आकांक्षा अपने आप में बुरी नहीं है परन्तु जब यह ममत्व एवं संग्रह की प्रवृत्ति से जुड़ जाती है तो यह न केवल स्वयं के लिए दुख का कारण बनती है वरन् पूरे समाज में विग्रह और विषमता का कारण बनती है। संग्रह की प्रवृत्ति से पैदा होता है लोभ और कपट। निजी और सामाजिक व्यवहार में, व्यापार और उद्योग तथा सभी क्षेत्रों में प्रामाणिकता के स्थान पर जन्म होता है धोखाधड़ी, मिलावट, आपाधापी और जनविरोधी व्यवस्थाओं का। संग्रह करने वाला स्वयं तो दुखी होता ही है दूसरे भी दुखी होते हैं क्योंकि वे ही बनते हैं धोखाधड़ी व शोषण के शिकार।
आकांक्षा जन्म देती है अहं और लोभ को। अहं से पैदा होता है क्रोध और संघर्ष। विजयी बनने की आकांक्षा उचित-अनुचित की सीमा समाप्त कर देती है। संघर्ष जब हिंसात्मक हो जाता है तब मूक वर्ग जिसमें गरीब समाज भी शामिल है हिंसा के शिकार बनते हैं, भोग-उपभोग के साधन बनते हैं, शासित व दमित होते हैं। शासक बन जाते हैं शोषक और शासित बन जाते हैं शोषित या शोषण के साधन। जब तक आकांक्षा और संग्रहवृत्ति बनी है, शोषण का चक्रव्यूह बना रहेगा।
सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था का आधार शोषण होने से व्यक्ति चाहकर भी शोषण के जाल से मुक्त नहीं हो पाता। शोषण की अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधन यथा भूमि, जंगल, जानवर, खदान, उपकरण, पूंजी आदि पर कुछ लोग कब्जा कर शासक या मालिक बन जाते हैं और शेष लोग मजदूर या काम करने वाले। जिनका साधनों पर कब्जा है, उन्हें रोटी, कपड़ा, मकान की चिंता नहीं है परन्तु मजदूर और साधनहीन को तो सुबह होते ही मजदूरी पर जाना है, नहीं तो शाम का चूल्हा ही नहीं जलेगा।
साधनों की प्रचुरता के बावजूद सुखी महसूस न करने पर आनंद की खोज में कुछ लोग अन्यत्र भटकते हैं। कुछ लोग यश-कीर्ति में आनंद खोजते हैं तो कलाकार, साहित्यकार, राजनेता, समाजसेवी आदि बनते हैं। जो इसमें भी सुखी नहीं होते वे अंतर की खोज प्रारंभ कर अध्यात्म में रमण करते हैं। परन्तु ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है जो अध्यात्म में सही जगह पर पहुंच जाएं।
सुख मिलेगा कहां से? जब चिंतन ही सकारात्मक नहीं है तो दुखी होते रहना ही स्थिति है। आदमी अपने मन पर कंट्रोल कर ले तो उसे सुख ही सुख है। हमारी समस्या यह है कि मन और भावों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। दुख स्वयं चलकर नहीं आता। उसे हम आमंत्रण देकर बुलाते हैं।
सबको अपनी थाली खाली प्रतीत होती है तथा दूसरों की थाली में अधिक चिकनाहट का अनुभव होता है। कुछ लोग अपने परिवार के वातावरण से व्यर्थ ही असंतुष्ट और दुखी प्रतीत होते हैं, पर जब वे उनकी अंतरंग स्थिति से परिचित होते हैं तो स्वयं के अज्ञान पर हंसने लगते हैं।
दुख को सुख में बदलने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास बहुत जरूरी है। एक ही परिस्थिति और घटना को दो व्यक्ति भिन्न-भिन्न आकार से ग्रहण करते हैं। जिसका चिंतन सकारात्मक होता है, वह अभाव को भी भाव तथा दुख को भी सुख में बदलने में सफल हो सकता है। जिसका विचार नकारात्मक होता है, वह सुख को भी दुख में परिवर्तित कर देता है। दुख को सुख में बदलने का नजरिया महात्मा बुद्ध ने देते हुए कहा कि आप सिर्फ वही खोते हैं, जिससे आप चिपके रहते हैं। वारेन बफेट अपनी संपत्ति का लगभग 85 प्रतिशत हिस्सा दान कर चुके हैं फिर भी उन्होंने कुछ नहीं खोया बल्कि पाया एक ऐसा रूतबा, एक ऐसा सुख जो शायद ही दुनिया के किसी भी दौलतमंद को हासिल हो।
जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं में दृष्टिभेद से बहुत बड़ा अंतर हो जाता है। पिता ने दोनों पुत्रों को आधा-आधा गिलास दूध पीने को दिया। एक ने कहा- गिलास आधा खाली है। दूसरे ने कहा- आधा भरा है। दोनों का तात्पर्य एक था पर जिसका दृष्टिकोण नकारात्मक था, उसका ध्यान अभाव की ओर गया और जिसका चिंतन सकारात्मक था उसका भाव की ओर गया। शोध कहते हैं कि आपका बेसिक दृष्टिकोण आपकी जिंदगी के सारे फैसलों को प्रभावित करता है और आप सड़क से उठकर धीरूभाई अंबानी बनते हैं, अब्राहम लिंकन बनते हैं या इस देश की डेढ़ अरब आबादी का एक अरबवां हिस्सा, यह सिर्फ और सिर्फ आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
अपने अज्ञान के कारण आदमी सुख को भी दुख में परिवर्तित कर लेता है। एक गरीब आदमी ने लाटरी के दो-दो रुपये में दो टिकट खरीदे। संयोग की बात कहें या भाग्य की बात, एक टिकट पर उसे एक करोड़ रुपये की लाटरी निकल आई। परिणाम घोषित हुआ तो उसके मित्र ने सोचा चलो उसे बधाई दे आऊं। वह एक करोड़ के पुरस्कार वाले विजेता के मित्र के घर गया तो पाया कि वह उदास, निराश और सिर घुटनों में दिये चारपाई पर चुपचाप बैठा है। उसने कहा- ‘‘मुबारक हो भाई, तुम तो करोड़पति बन गए। थोड़ा हमारा भी खयाल रखना।’’
पुरस्कार विजेता मित्र ने कहा- ‘‘जले पर नमक क्यों छिड़क रहे हो। मैं तो अपने दुख से स्वयं दुखी हूं, क्यों मजाक उड़ाते हो?’’ मित्र ने चैंक कर कहा- ‘‘यह क्या कह रहे हो? एक करोड़ की लाॅटरी निकली और तुम उदास बैठे हो। आखिर बात क्या है?’’ उसने कहा- ‘‘दो रुपये मेरे व्यर्थ गए। लाॅटरी एक की निकली। भाग्य ने साथ नहीं दिया।’’
सुख में दुख निकालने का यह एक बहुत अच्छा दृष्टांत है। चिंतन की दरिद्रता आदमी को दुखी बनाती है। आकांक्षाएं इसी तरह दुख का कारण बनती हैं। निष्कर्ष यही है कि हमें अपने साथ होने वाली बुरी घटनाओं को या अच्छी घटनाओं को बहुत उत्साह और बहुत दुख से देखने की बजाय एक तटस्थ नजरिया रखना होगा। अगर आपके पास तटस्थ नजरिया है तो आपकी मानसिकता और मन दोनों को कोई उद्वेलित नहीं कर सकता। अब्राहम लिंकन कहते हैं कि हम शिकायत कर सकते हैं गुलाब के फूलों में कांटे हैं और हम खुश भी हो सकते हैं कि कांटों में फूल हैं।’ यह हमारे दृष्टिकोण पर ही निर्भर करता है। आंख का कोण बदलते ही नजरिया बदलता है, नजरिया बदलते ही सोच बदलती है और सोच ही तय करती है कि आप विजेता बनते हैं या फिर खाली हाथ रहते हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here