विचार और व्यवहार के बीच झूलती भारतीय राजनीति

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भारतीय राजनीति और राजनेता अजीब असमंजस में हैं। विचार पर दृढ़ रहें या व्यावहारिक बनें। पांच राज्यों के चुनाव के बीच यह यक्षप्रश्न एक बार फिर सिर उठाकर खड़ा हो गया है।

आजादी से पहले भारत में कांग्रेस ही एकमेव दल था। उसका मुख्य लक्ष्य आजादी प्राप्त करना था। इसलिए विभिन्न विचारों वाले नेता वहां साथ मिलकर काम करते थे। कांग्रेस के अंदर ही हिन्दू महासभा जैसे छोटे समूह भी थे। कुछ मुद्दों पर अलग सोच रखने के बावजूद वे स्वयं को कांग्रेस का अभिन्न अंग मानते थे। इसलिए कांग्रेस अधिवेशन के साथ उनके अधिवेशन भी उन्हीं व्यवस्थाओं के बीच सम्पन्न हो जाते थे।

गांधी जी इसे समझते थे। इसलिए स्वाधीनता मिलने के बाद उन्होंने कांग्रेस को भंग करने को कहा था। जिससे समाजवादी, साम्यवादी, राष्ट्रवादी आदि अपने दल बनाकर जनता में जाएं। फिर जनता जिसे पंसद करेगी, वह राज्य करे। पर नेहरू जी कांग्रेस के नाम और गांधी जी की पुण्याई का मेवा खाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने कांग्रेस भंग नहीं होने दी। दुर्भाग्य से गांधी जी की हत्या हो गयी और पटेल भी जल्दी ही चल बसे। इससे नेहरू कांग्रेस तथा देश के सर्वेसर्वा बन गये।

परन्तु नेहरू की निरंकुशता और परिवारवाद से परेशान होकर कई लोग उनसे छिटकने लगे और फिर उन्होंने क्रमशः अपने राजनीतिक दल बनाये; पर इनके विचार कांग्रेस जैसे ही थे। एक निश्चित विचारधारा वाला एक ही दल था साम्यवादी; पर विदेशी प्रेरणा और हिंसाप्रिय होने के कारण उनका प्रभाव धीरे-धीरे घटता गया और वे कई टुकड़ों में बंट गये। किसी समय उनके प्रतिनिधि उ.प्र., पंजाब, बिहार आदि में भी जीतते थे; पर फिर वे बंगाल, केरल और त्रिपुरा तक सीमित होकर रह गये। अब इन राज्यों में भी वे सिमट रहे हैं। अर्थात एक विचार आधारित दल मृत्यु के कगार पर है। दूषित विचारधारा के कारण उसका मरण देशहित में ही है।

विचार आधारित एक दूसरा दल ‘भारतीय जनसंघ’ डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बनाया। वे नेहरू जी की मुस्लिमपरस्त नीतियों से नाराज थे। इस दल को शुरू से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का साथ मिला। संघ यद्यपि राजनीति से दूर रहना चाहता था; पर गांधी जी हत्या के झूठे आरोप में नेहरू जी ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। तब संघ के समर्थन में एक भी व्यक्ति संसद में नहीं बोला। इससे संघ को लगा कि हमारे भी कुछ लोग संसद में होने चाहिए। ऐसे में जब डा. मुखर्जी ने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सहयोग मांगा, तो उन्होंने श्री दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख, सुंदरसिंह भंडारी जैसे कुछ वरिष्ठ कार्यकर्ता उन्हें दे दिये।

शुद्ध विचारधारा और संघ के तंत्र के चलते ‘भारतीय जनसंघ’ और उसके चुनाव चिन्ह ‘दीपक’ ने हिन्दीभाषी क्षेत्रों में अपनी जड़ें जमा लीं। इसे पहली बड़ी सफलता 1967 में मिली, जब कई राज्यों में संविद सरकारें बनीं। उनमें जनसंघ भी एक प्रमुख घटक के रूप में शामिल हुआ। इससे जनसंघ वालों की सादगी, प्रामाणिकता और कार्यशैली का जनता को पता लगा। इसके बावजूद उसकी छवि हिन्दी और हिन्दूवादी, ब्राह्मण और वैश्य वर्ग द्वारा समर्थित शहरी पार्टी की बनी रही।

1975 में आपातकाल लगा, तो उसके विरुद्ध हुए आंदोलन में संघ तथा जनसंघ वालों की सबसे बड़ी भूमिका रही। इसका लाभ 1977 में हुए चुनाव में मिला; पर उसके बाद कई राज्यों में जाति और परिवार आधारित दल बनने लगे। इसके दो कारण थे। एक तो वे जनसंघ की बढ़ती शक्ति से भयभीत थे। दूसरा इन्हें लगता था कि परिवारवादी कांग्रेस में वे कभी शीर्ष पर नहीं पहुंच सकते। मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, जार्ज फर्नांडीज, शरद यादव, प्रकाश सिंह बादल, चंद्रशेखर, देवीलाल, चरणसिंह, बाल ठाकरे आदि के दल ऐसे ही हैं। ये दल कांग्रेस द्वारा खाली की जा रही जमीन घेरने लगे। जैसे कांग्रेस सत्ता के लिए कभी पंूजीवाद तो कभी साम्यवाद की गोद में बैठी दिखी, वही हाल इन दलों का भी है। विचारधारा के नाम पर इनका एक ही सिद्धांत है कि, ‘‘जहां मिलेगी तवा परात, वहीं कटेगी सारी रात।’’

आपातकाल हटने पर संघ और उसके समविचारी संगठन तेजी से बढ़े। इनमें सबसे महत्वपूर्ण रही विश्व हिन्दू परिषद द्वारा संचालित ‘एकात्मता रथ यात्रा’ और ‘श्रीराम मंदिर आंदोलन’। मंदिर आंदोलन से हिन्दुत्व का भारी ज्वार उठा। इसका सीधा लाभ जनसंघ के नये अवतार भारतीय जनता पार्टी को हुआ। राज्यों के बाद अब वह केन्द्र में भी दस्तक देने लगी। कांग्रेस की जिस जमीन को पहले क्षेत्रीय दल हड़प रहे थे, वहां अब भा.ज.पा. काबिज होने लगी।

भा.ज.पा. को इस भूमिका में लाने का प्रमुख श्रेय लालकृष्ण आडवाणी को है। जब उन्होंने पार्टी की कमान संभाली, तो संघ ने भी कई प्रमुख कार्यकर्ता उन्हें दिये। उन सबने मिलकर भा.ज.पा. को आगे बढ़ाया। इसके बावजूद वह एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पा रही थी। यानि जो विचारधारा उसका आधार बनी, वही अब उसकी बाधा बन रही थी। अतः उसने केन्द्र में सरकार बनाने के लिए सत्तामुखी स्वभाव के कुछ घरेलू और जातीय दलों को साथ लेना प्रारम्भ किया। इसलिए समय-समय पर मायावती, पासवान, नीतीश कुमार, बादल, ठाकरे, अजीतसिंह, सोनेलाल पटेल, पटनायक आदि भा.ज.पा. के साथ आते और जाते रहे। आज स्थिति यह है कि सोनिया कांग्रेस और कम्युनिस्टों को छोड़कर शायद ही कोई दल हो, जो कभी न कभी, कहीं न कहीं, भा.ज.पा. से गले न मिला हो।

इन दलों के साथ से जहां भा.ज.पा. का जनाधार बढ़ा, वहां उनके कुछ दुर्गुण भी इधर आ गये। इससे उसके विचारों में भी नरमी आयी है। समान नागरिक संहिता, गोरक्षा, राममंदिर, भारतीय भाषा में शिक्षा आदि विषय अब पीछे छूट गये हैं। कांग्रेस आदि के जिस परिवारवाद को भा.ज.पा. वाले कोसते थे, वह अब यहां भी आ गया है। कांग्रेस या अन्य दलों से भा.ज.पा. में आने वालों का अपने परिजनों के लिए टिकट मांगना समझ में आता है। संभवतः वे भा.ज.पा. में आये ही इसी शर्त पर हैं; पर उ.प्र. के दो बड़े और पुराने नेताओं द्वारा जिद करके अपने बच्चों को टिकट दिलवाना हैरान करता है। यद्यपि भा.ज.पा. में शीर्ष पर अभी परिवारवाद नहीं है; पर नीचे से वह जिस तरह ऊपर की तरफ बढ़ रहा है, वह खतरे का संकेत है।

यद्यपि मोदी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में इसका विरोध किया था; पर जो हुआ, वह सबके सामने है। अतः कई लोग अब पूछ रहे हैं कि क्या भा.ज.पा. ने भी सत्ता के लिए विचारधारा छोड़ दी है ? अन्य दलों से जैसे लोग आये या बुलाये जा रहे हैं, उसका अंत कहां होगा ? एक बड़े अखबार ने लिखा है कि उत्तराखंड में मुकाबला ‘सोनिया कांग्रेस’ और ‘मोदी कांग्रेस’ में है। युद्ध में शत्रु का मनोबल तोड़ने के लिए ऐसे हथकंडे भी जरूरी हैं; पर क्या भा.ज.पा. वालों ने इसका अंतिम परिणाम सोचा है ? किसी ने लिखा है –

न खुदा ही मिला न बिसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे।

कहीं ऐसा तो नहीं कि छोटी लड़ाई जीतने के चक्कर में भा.ज.पा. वाले वैचारिक युद्ध हार जाएं ? विचार और व्यवहार का यह द्वंद्व कहां तक जाएगा, इस पर सबको चिंतन करना होगा।

– विजय कुमार

1 COMMENT

  1. भाजपा को कांग्रेस का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए बल्कि कांग्रेस द्वारा निर्मित रास्ते को ध्वस्त करने का प्रयास करना चाहिए , आज भाजपा के पास कांग्रेस se बड़ा बोटबैंक है /

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