जनसेवा को आतुर

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विजय कुमार

पिछले रविवार को मैं समाचार पत्र के साथ चाय की चुस्कियों का आनंद ले रहा था कि अचानक फोन की घंटी बज उठी। सामान्यतः रविवार को फुरसत रहती है। ऐसे में खीर में कंकड़ की तरह कोई आ टपके, तो खराब तो लगता ही है; पर कुछ लोग ऐसे होते हैं कि उन्हें टाला भी नहीं जा सकता। ऐसे ही मेरे मित्र शर्मा जी हैं, जिन्होंने फोन किया था।

– क्यों वर्मा, तुम घर पर ही हो ?

– हां, हां।

– ठीक है, मैं अभी आता हूं।

मेरा कमजोर दिल कई शंका, कुशंका और आशंकाओं से भर उठा; पर जल्दी ही मैंने अपने आप को संतुलित कर लिया। अंदर जाकर एक कप चाय और बनाने को कहकर मैं उनकी प्रतीक्षा करने लगा।

थोड़ी ही देर में वे आ गये। उन्हें देखकर मैं कुछ चौंका। घर पर वे कैसे भी रहें; पर बाहर निकलते समय वे पैंट-कमीज ही पहनते थे। पर आज तो उन्होंने कलफदार चकाचक सफेद कुर्ता-पाजामा पहन रखा था।

– क्या बात है शर्मा जी, आज ये नई वेशभूषा कैसे.. ?

– बात ये है वर्मा जी, ‘जैसा देश वैसा भेष’ की कहावत तुमने सुनी ही होगी। मैंने भी अब जनसेवा करने का निश्चय कर लिया है। इसलिए वेश बदलना आवश्यक है।

– जनसेवा से वेश का क्या संबंध है ?

– तुम नहीं समझोगे; पर मुझे इसमें तुम्हारा कुछ सहयोग चाहिए।

– वैसे तो मैं किसी लायक नहीं, फिर भी बताइये।

– मैंने सुना है कि पार्टी के कई बड़े लोगों से तुम्हारी निकटता है। तुम्हें मेरे साथ उनके पास तक चलना होगा।

– पर जनसेवा का पार्टी से क्या लेना-देना है शर्मा जी ?

– तुम बिल्कुल भोंदू हो वर्मा। मैं इस बार अपने क्षेत्र से विधायक का चुनाव लड़ना चाहता हूं। चुनाव जीत कर ही तो जनसेवा होगी।

– ओ हो, इसीलिए आपने ये बगुला भगत जैसा वेश पहना है ?

– तुम चाहे जो कहा; पर तुम मेरे साथ चल कर पार्टी के दो-चार बड़े नेताओं से मेरी भेंट करा दो। उसके बाद का काम मेरा है।

– पर शर्मा जी, आप जहां रहते हैं, वहां आपने कोई सामाजिक काम तो कभी किया नहीं है। लोग आपको वोट क्यों देंगे ?

– काम भले ही न किया हो; पर वहां का जातीय समीकरण तो मेरे पक्ष में है। फिर हमारे गांव की तरफ के भी वहां हजारों वोट हैं। यदि वे मेरे साथ हो गये, तो सीट निकली समझो। और एक बार विधायक बन गया, तो जनसेवा और पेट भर मेवा साथ-साथ चलेगा।

– तो आपका उद्देश्य जनसेवा के नाम पर मेवा खाना है ?

– वर्मा जी, आजकल सब यही कर रहे हैं।

– पर यदि इस क्षेत्र से कोई और प्रबल दावेदार हुआ, तो.. ?

– तो वे मुझे पड़ोस वाले क्षेत्र से टिकट दे दें। वहां मेरी ससुराल है। उनका भी पूरे क्षेत्र में अच्छा प्रभाव है। मुझे तो जनसेवा करनी है, मैं वहां कर लूंगा।

– यानि आप जनसेवा किये बिना मानेंगे नहीं ?

– बिल्कुल नहीं। मेरा निश्चय अटल है। इसके लिए यदि कुछ नोट भी खर्च करने पड़ें, तो उसका प्रबंध मैंने कर लिया है।

– अच्छा.. ?

– हां, 25 लाख रु0 मेरे पास हैं। इतना ही मेरे मित्र और ससुराल वाले दे देंगे। और पार्टी ने टिकट दे दिया, तो कुछ खर्चा वह भी तो करेगी ?

– क्या एक विधानसभा के चुनाव में इतने पैसे लगते हैं ?

– कई लोग तो इससे भी अधिक खर्च करते हैं वर्मा जी।

– पर इतना खर्च करके उन्हें मिलता क्या है ?

– तुमने फिर भोंदूपने की बात की। एक बार जीतने की देर है, फिर तो वारे-न्यारे होते देर नहीं लगती।

– कैसे ?

– पक्ष में हों या विपक्ष में, शहर में नये बनने वाले बाजार में एक-दो दुकान और नयी कालोनी में दो-तीन प्लॉट या फ्लैट तो अपने प्रभाव से नेता ले ही लेते हैं। साप्ताहिक बाजार, जंगल, खनन, थाने आदि के ठेकों में भी नेताओं का हिस्सा रहता है। फिर इतने मंत्रालय और समितियां हैं, यदि किसी मालदार विभाग में जाने का जुगाड़ बन गया, तो पांचों उंगलियां घी में और सिर कढ़ाई में जाते देर नहीं लगती। प्रायः विदेश जाने का भी मौका हाथ लग जाता है।

– अच्छा.. ?

– और क्या; यदि किसी एक दल को बहुमत न मिले, तो मोलभाव में भी अच्छे दाम मिल जाते हैं। गाड़ी, लेपटॉप, दावत, भत्ते, तीर्थयात्रा के नाम पर घूमना-फिरना और खरीद-फरोख्त अलग से हो जाती है। विधायक बनते ही व्यक्ति का हाल युद्धिष्ठिर जैसा हो जाता है, जिनका रथ धरती से छह इंच ऊपर चलता था। और..

– और क्या ?

– अब राज्यसभा में बड़े-बड़े धनपति जाने लगे हैं। वे एक वोट के लिए कई लाख रुपये दे देते हैं। चारों ओर से होने वाली इस धनवर्षा से पूरे खानदान के अगली-पिछली कई पीढ़ियों के पाप कट जाते हैं। खैर, जनसेवा के रास्ते तो बहुत से हैं, तुम जान कर क्या करोगे, क्योंकि जनसेवा मुझे करनी है, तुम्हें नहीं। तुम तो बस तैयार होकर मेरे साथ चलो और मुझे अध्यक्ष और मंत्री जी से मिलवा दो।

– देखिये शर्मा जी, मेरी इस काम में कोई रुचि नहीं है। इसलिए आप मुझे क्षमा करें।

– वर्मा, ये अच्छी बात नहीं है। तुम सोचते हो कि मेरे पास कोई और जुगाड़ नहीं है। मैं किसी न किसी तरह पार्टी वालों से मिल ही लूंगा। और यह बात भी साफ सुन लो कि यदि इस पार्टी ने मुझे टिकट नहीं दिया, तो मैं उस पार्टी से ले लूंगा। अन्यथा निर्दलीय लड़ने का रास्ता तो खुला ही है। जब मैंने जनसेवा करने का निश्चय कर लिया है, तो फिर करके ही रहूंगा।

शर्मा जी तो नाराज होकर चले गये; पर मुझे समझ आ गया कि चुनाव के दिनों में पार्टी के कार्यालयों में भीड़, नारेबाजी और मारपीट क्यों होती है। मुझे यह डर भी लगा कि शर्मा जी की तरह यदि सभी लोग जनसेवक हो गये, तो सेवा करवाएगा कौन ? क्या इसके लिए भी पाकिस्तान और बांग्लादेश से लोग बुलाने पड़ेंगे ?

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