धरती का चीत्कार सुनो!

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 श्रीराम तिवारी

ओपेक देशों की महती कृपा से कच्चे तेल[पेट्रोलियम]petroleum की कीमतों में निरंतर बृद्धि होती आई है।विकाशशील देशों की जरूरतों के मद्देनजर उनके विदेशी मुद्रा भण्डारका अधिकांस भाग इस मद में विलीन होता जाता है।आधुनिक वैज्ञानिक एवं तकनीकि विकाश के लिए अत्यावश्यक उर्जा के रूप में स्थापित पेट्रोलियम उत्पादों की मांग लगातार बढ़ रही है।विद्दुत उत्पादन,दूर संचार उपकरण सञ्चालन,रेल ,बस,कार,स्कूटर,हवाई जहाज,पनदुब्बियाँ और निर्माण के प्रत्येक उपकरण से लेकर अन्तरिक्ष में मानव की दखलंदाजी तलक हर एक उपक्रम के लिए ईधन चाहिए।इसकी आपूर्ति के वैश्विक श्त्रोत शने-शने छीजते जा रहे हैं।जिन देशों के पास प्रचुर मात्रा में पेट्रोलियम उपलब्ध था ,उनके भण्डार भी अब समाप्ति की ओर हैं।जिनके पास नहीं था या न्यून मात्रा में ही था वे अपनी सकल राष्ट्रीय बचतों का एक बड़ा हिस्सा इस मद में खर्च करते रहने को मजबूर थे।वैकल्पिक उर्जा के श्त्रोत खोजने में लगे वैज्ञानिकों और पर्यावरण चिंतकों ने सौर उर्जा का महत्व प्रतिपादित किया है।विगत शताब्दी के अंतिम ५० सालों में खनिज तेल समेत तमाम प्राकृतिक संसाधनों का जितना दोहन किया गया वह मानव सभ्यता के ज्ञात इतिहास के सकल योग से भी अधिकतर है।इस शताब्दी के प्रथम दशक में जितना दोहन किया गया वह उससे भी ज्यादा है।आइन्दा इस क्षेत्र कीं मांग की गति तीव्रतर होती जायेगी और उत्पादन संसाधन खाली होते चले जायेंगे।तब स्थिति भयावह होगी , खनिज तेल ,कोयले और अन्य खनिजों के निरंतर महंगे होते जाने से कृषि क्षेत्र में भी महंगे संसाधन होना स्वाभाविक है और परिणामस्वरूप महंगाई अपने अकल्पनीय चरम पर होगी।

मानव सभ्यता के १० हज़ार सालों में भी मानव ने प्राकृतिक संसाधनों की उतनी दुर्गति नहीं की जितनी विगत १०० सालों में कर डाली।वैज्ञानिक उन्नति और भौतिक सभ्यता के विकाश क्रम में उपनिवेशवादी राष्ट्रों और हिंसक हमलावर जातियों ने जहां एक ओर स्व-राष्ट्रों के प्राकृतिक संसाधनों को निचोड़ डाला वहीँ दूसरी ओर भारत ,अफ्रीका,लातीनी अमेरिका जैसे प्राकृतिक संपदा से सम्पन् राष्ट्रों की भी दुर्गति कर डाली।धरती पर के हरे भरे जंगल के जंगल काटकर जहां देशी राजे रजवाड़ों ने अपनी अयाशी के अनगिनत ठिकाने बनाये वहीँ विदेशी आक्रान्ताओं ने पर राष्ट्रों को अपनी हवस का शिकार बनाया।लन्दन,मानचेस्टर में कई पुराने भवनों में जो शीशम और सागौन की लकड़ी लगी है वो भारत और दक्षिण अफ्रीका की बर्बादी का प्रतीक है।अब भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बहाने जमीन के नीचे जो कुछ भी बचा है उसे हथियाने के उपक्रम जारी हैं।यह दुखद त्रासदी है कि सत्य अहिंसा और करुणा के अलमबरदार तब भी कुलहाडी के बैंट बने थे अब भी बन रहे हैं।शायद गुलाम राष्ट्रों और समाजों की इस मानसिकता में जीने के लिए हम अभिशप्त हैं।

माना की विज्ञान के अनुसंधानों से मानव ने प्रकृति के दुर्भेद्य हिस्सों तक पहुँच बनाई है।जीवन को सरल सुगम और निरापद बनाने की संभावनाएं विकसित कीं हैं,किन्तु अन्वेषण और जिज्ञाषा की इस भूंख ने इस हरी-भरी धरती और नीले स्वच्छ आसमान का जो बंटाढार किया है वह तो उसकी समस्त वैज्ञानिक उपलब्धियों के सापेक्ष बेहद घाटे का सौदा है।जनसँख्या वृद्धि,वेरोजगारी,पर्यावरण प्रदूषण,इत्यादि भयावह समस्याओं पर राज्य सत्ता के लिए कोई कारगर अजेंडा नज़र नहीं आ रहा है।दुनिया भर के लोकतान्त्रिक मुल्कों की जनता आज भी महंगाई,वेरोजगारी,भृष्टाचार और स्वतंत्रता जैसे स्वार्थों तक चिपटी हुई है।वोट की ताकत को दूरगामी सामूहिक स्वार्थों की ओर मोड़ने का वक्त आ गया है। मानव मात्र को यह भावी पीडियों के लिए अवदान नहीं ,एहसान नहीं अपितु अपराध बोध से छुटकारा होगा कि अपने निहित और भौतिक स्वा र्थों से परे…।,अपने जातीय,धर्म और सम्प्रदाय के तुच्छ स्वार्थों से परे…।। सारी की सारी धरती के रक्षार्थ…।। विराट जनमेदिनी का तुमुलनाद हो!…।

शायद हम धरती को बचाने में सफल हो सकें …।।दुनिया भर के जालिमों के खिलाफ…।। दुनिया के मजदूर-किसान और नौजवान एक हो!सर्वहारा के एकजुट संघर्ष से ही ये संभव है…

2 COMMENTS

  1. धन्यवाद इकबाल हिन्दुस्तानी जी इसी तरह के अन्य लेखों के लिए कृपया जनवादी.ब्लागस्पाट .कॉम या इन्कलाब जिंदाबाद पर भी नज़रे इनायत करें.

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