भूकंप एक – कथन अनेक

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-निर्मल रानी-

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पिछले दिनों नेपाल की राजधानी काठमांडू को केंद्र बनाकर अए प्रलयकारी भूकंप ने एक बार फिर भारी कहर बरपा किया है। इस भीषण प्राकृतिक त्रासदी में मृतकों की संख्या का आंकड़ा प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। नेपाली प्रधानमंत्री ने हालांकि मृतकों की अधिकतम संख्या दस हज़ार तक आंकी है। परंतु जिस प्रकार काठमांडू के दूर-दराज़ के ग्रामीण इलाकों में राहत कार्य अभी तक नहीं पहुंच सका है अथवा प्रभावित क्षेत्रों से संपर्क नहीं हो सका है संभव है इसकी पूरी जानकारी मिलने के बाद यह आंकड़ा भी पार कर जाए। बहरहाल ऐसी या इस प्रकार की किसी भी दूसरी प्राकृतिक त्रासदी को मानव जाति के लोग महज़ सहन ही कर सकते हैं इस के सिवा और कुछ नहीं। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह इस भूकंप में मारे गए लोगों की आत्मा को शांति प्रदान करे तथा उनके परिजनों को इस भारी जान व माल के नुकसान को सहन करने की शक्ति दे। जहां एक ओर इस त्रासदी के बाद की सूरत-ए-हाल से जूझने के लिए भारत सहित कई अन्य देशों के लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार राहत कार्यों में जुटे हुए हैं, वहीं कुछ शक्तियां ऐसी भी हैं जो कुदरत के इस कहर को अपनी बुद्धि व योग्यता के अनुसार अथवा अपनी प्रदूषित व संकीर्ण सोच के मुताबिक परिभाषित करने की कोशिश कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर भारत की एक कथित साध्वी द्वारा यह कहा गया है कि नेपाल में भूकंप इसलिए आया क्योंकि वहां प्रत्येक वर्ष हज़ारों भैंसों व गौवंश की बलि दी जाती है। एक अन्य विवादित भाजपाई सांसद साक्षी महाराज ने तो इस भूकंप का जि़म्मेदार राहुल गांधी को बता दिया है। इसी प्रकार इस भूकंप को सांप्रदायिकता का रंग देने की कोशिश भी बदस्तूर जारी है। जबकि इस प्रकार के भोंडे व अप्रासंगिक कथनों के बीच भूकंप पीडि़त लोग इस भीषण प्राकृतिक त्रासदी से जूझने के लिए मजबूर है।
भूकंप में हालांकि बिहार व उत्तर प्रदेश के भी कई शहर प्रभावित हुए हैं। परंतु सबसे अधिक नुकसान नेपाल की राजधानी काठमांडृ में ही हुआ बताया जा रहा है। सैकड़ों ऊंची इमारतें तथा दर्जनों ऐतिहासिक प्राचीन भवन,मीनारें व मंदिर आदि ध्वस्त हो चुके हैं। हालांकि नेपाल में पहले भी कई बार भूकंप आ चुके हैं इसके बावजूद अपनी सीमित आर्थिक स्थिति के चलते नेपाल सरकार किसी बड़े पैमाने पर आने वाले इस प्रकार के भूकंप से निपटने की व्यवस्था नहीं कर सकी है। परिणामस्वरूप भारत को एक पड़ोसी देश के नाते नेपाल की भरपूर मदद करनी पड़ी। वैसे भी राजशाही के समय से ही काठमांडू नेपाल का एक अकेला ऐसा शहर रहा है जो राजधानी होने के चलते श्विव के पर्यट्कों के लिए हमेशा आकर्षण का केंद्र रहा है। यही वजह है कि निवेशकों, बिल्डर्स तथा व्यापारिक प्रतिष्ठानों खासतौर पर होटल उद्योग का भी पूरा ध्यान काठमांडू के विकास पर ही गया। और यह शहर दिन-प्रतिदिन कंकरीट के जंगल के रूप में परिवर्तित होता गया। भविष्य में किसी भूकंप की संभावना की परवाह किए बिना तथा संभावित भूकंप की तीव्रता को आंके बिना क्या बिल्डर्स,क्या होटल मालिक तो क्या स्थानीय संपन्न लोग सभी आए दिन अपनी सामथ्र्य के अनुसार ऊंची से ऊंची इमारतें बनाते चले गए। और आिखरकार इन ऊंची इमारतों के निर्माण का खमियाज़ा बेगुनाह लोगों को अपनी मौत के रूप में चुकाना पड़ा। ज़ाहिर है इस घटना के बाद एक बार फिर यह प्रश्न जीवंत हो उठा है कि क्या वैज्ञानिकों द्वारा चिन्हित किए गए भूकंप की संभावना वाले क्षेत्रों में इस प्रकार अंधाधुंध व्यवसायीकरण करते हुए बहुमंजि़ला इमारतें बनाने की सरकार को इजाज़त देनी चाहिए? क्या स्थानीय साधन-संपन्न व आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति को अपनी पारिवारिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त और अधिक ऊंचे मकान या अत्याधिक कमरे बनने की इजाज़त देनी चाहिए? पहाड़ी क्षेत्रों में आने वाले प्रत्येक ऐसे भूकंप के बाद इस प्रकार के सवाल जन्म लेते हैं।
कुछ विशेषज्ञों का यह भी मत है कि भूतलीय प्राकृतिक संपदा के अथाह दोहन के परिणामस्वरूप इस तरह के भयंकर भूकंप आते हैं। यदि वैज्ञानिकों का यह अनुमान सही है तो आिखर दुनिया के जि़म्मेदार राष्ट्र विकास के नाम पर अथवा व्यवसायीकरण के चलते धरा का इस कद्र दोहन करते ही क्यों हैं? भूतलीय संतुलन के बिगडऩे से लेकर पर्यावरण के प्रदूषित होने तक अर्थात् इसके ग्लोबल वार्मिंग की सीमा तक पहुंचने के जि़म्मेदार भी हम धरावासी स्वयं ही हैं। जब जो चाहता है भूतलीय संपदा का अपनी सुविधा के अनुसार दोहन करने लगता हैं। खासतौर पर भूतलीय जल संपदा का तो बड़ी बेदर्दी से दुरुपयोग किया जाता है। सदियों से ईंधन के नाम पर कोयले का दोहन होता आ रहा है। इसी प्रकार अन्य अनेक प्राकृतिक संपदाएं दुनिया के विभिन्न देशों में धरती के गर्भ से बड़े पैमाने पर निकाली जा रही हैं। ज़ाहिर है इस प्रकार के असीमित दोहन के बाद धरा के गर्भ में जो स्थान रिक्त रह जाता है धरती कभी न कभी उस रिक्त स्थान को भरने का भी प्रयास करती है। और ऐसी ही स्थिति छोटे या बड़े भूकंप का कारण बनती है। यही स्थिति जब समुद्र तल के नीचे पैदा होती है तो छोटे या बड़े समुद्री तूफान से लेकर सुनामी तक का कारण बन जाती है। यदि यह स्थितियां मानवीय गलतियों के कारण पैदा होती हैं तो नि:संदेह किसी भी ऐसी प्राकृतिक त्रासदी के जि़म्मेदार भी हम खुद ही हैं। गोया भूकंप जैसी प्राकृतिक त्रासदी को आमंत्रित करने से लेकर मानव निर्मित बहुमंजि़ला इमारतों के मलवे में दब कर मरने वाले लोगों की मौत तक के जि़म्मेदार भी हम स्वयं ही हैं।
परंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस विषय के आलेख अथवा इस मुद्दे की चर्चाएं भी केवल तभी छिड़ती हैं जब धरती किसी बड़े भूकंप का सामना करती है और उसमें बड़ी संख्या में लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है और संपत्ति की भी भारी क्षति होती है। ऐसे हादसों के कुछ दिन बाद हम सभी अपनी रोज़मर्रा की जि़ंदगी की दौड़ में फिर से शामिल हो जाते हैं और विकास व व्यवसायीकरण के नाम पर पुन: धरा दोहन,पर्यावरण को प्रदूषित करने तथा विकास व संपन्नता के नाम पर भूकंप संभावित व संवेदनशील क्षेत्रों में भवन निर्माण कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं। और जब कहीं नेपाल जैसा प्रलयकारी भूकंप आ जाता है तो हम में से कई अज्ञानी,अंधविश्वासी तथा पूर्वाग्रही िकस्म के लोग कभी भैंसों के वध को भूकंप का कारण बता देते हैं तो कभी राहुल गांधी को इस का जि़म्मेदार ठहरा देते हैं। यानी अपने कुतर्कों के चलते बार-बार वास्तविक कारणों की तरफ से आंख मंूदने का व अपने अनुयाईयों को गुमराह करने का प्रयास किया जाता है। बात कड़वी परंतु सच्ची तो यह है कि इस प्रकार के तंग नज़र व संकीर्ण मानसिकता वाले लोग भी धरा तथा वातावरण को प्रदूषित करने के कम जि़म्मेदार नहीं हैं। यही लोग विभिन्न प्रकार के आयोजनों के नाम पर देश की प्रमुख नदियों को प्रदूषित करते रहते हैं। धार्मिक परंपराओं का अनुसरण कर वातावरण को धुंए से लबरेज़ कर ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने के जि़म्मेदार होते हैं। परंतु अपनी कमियां गिनाने के बजाए दूसरे तर्कहीन कारण गिनाकर लोगों को गुमराह करते फिरते हैं। इसी समाज में जहां अधिकांश लोग ऐसी त्रासदियों पर चिंतन करते,इस पर दु:ख जताते व बढ़चढ़ कर राहत कार्यों में हिस्सा लेते दिखाई देते हैं वहीं कुछ तत्व ऐसे भी सक्रिय हो जाते हैं जिनकी नज़रें राहत सामग्री को खुर्द-बुर्द करने में तथा उसे बेचकर पैसा कमाने में लगी रहती हैं। नेपाल से तो ऐसे समाचार भी सुनने में आ रहे हैं कि राहत कार्यों में लगे कुछ लोग मृतकों की लाशों से सोने-चांदी के ज़ेवर उतारते तथा चोरी करते हुए पकड़े गए हैं।
बहरहाल, इस विशाल रंग-बिरंगी दुनिया में नाना प्रकाार के प्राणी हैं। परंतु जीवन की वास्तविकता वही है जिससे हमें रूबरू होना पड़ता है। धर्मांधता या अनाप-शनाप की बयानबाज़ी अथवा व्यर्थ के कथन न तो किसी त्रासदी का कारण बन सकते हैं न ही किसी समस्या का निदान। हम धरावासियों को तो सिर्फ और सिर्फ इन विषयों पर चिंतन करना चाहिए कि आिखर भविष्य में ऐसे कौन से उपाय किए जाएं कि हमें प्रकृति के ऐसे प्रकोपों का कम से कम सामना करना पड़ें। और यदि फिर भी प्रकृति अपना उग्र रूप या अपनी अथाह शक्ति से हम धरावासियों का परिचय कराना ही चाहती है तो हमें ऐसे कौन से उपाय अपनाने चाहिए जिनसे कि मानव जाति को कम से कम जान व माल के नुकसान का सामना करना पड़े।

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