पूरब और पश्चिम

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east and west                                           गंगानन्द झा

 

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित इंफॉसिस के संस्थापक श्री एन.आर.नारायणमूर्ति के एक आलेख की सम्पादित और अनुवादित प्रस्तुति——–

 

पूरब और पश्चिम के दर्शनों में दो विपरीत विश्व-दृष्टि देखी जाती रही है । पूर्व के मनीषियों का मानना रहा है कि मनुष्य विधाता द्वारा बनाई गई असंख्य रचनाओं में बस एक है :साहित्य तथा शास्त्रों में पर्वत-नदी, चाँद-तारे, उगते और डूबते सूरज विभिन्न वनस्पति और जन्तुओं को दैवी विम्ब दिए गए हैं।  अभी भी हम इनकी पूजा किया करते हैं। पवित्र नदियों में स्नान करने के लिए मेले सजाते हैं ।

पाश्चात्य विश्व-दृष्टि के अनुसार मनुष्य को विधाता ने अपनी छवि में गढा है; बाकी सारी जीवित और निर्जीव वस्तुएँ मनुष्य के संसाधन के रूप में बनाई गई हैं ताकि आदमी अपनी सम्भावनाओं की उपलब्धि कर सके ।

जैसा वेदों में कहा गया है — आदमी अकेले व्यक्ति के रूप में जीवित तो रह सकता है, पर जीए जाना समूह में ही सम्भव होता है । इसलिए हमारे सामने निरन्तर चुनौती रहती है कि हम व्यक्ति के हितों के साथ समुदाय के हितों का सन्तुलन कायम रखते हुए एक प्रगतिशील समाज का निर्माण करें । यह तभी सम्भव हो सकता है जब ऐसी मूल्य-बोध प्रणाली विकसित की जाए जिसमें व्यक्ति सामूहिक हित में थोड़ा त्याग स्वीकार करें ।

मूल्य-बोध प्रणाली आचरण का संलेख होती है, जो समाज के सदस्यों के आपसी विश्वास, उत्तरदायित्व और प्रतिबद्धता को बढ़ाता है। यह विधि-संगति (legality) की कसौटी से परे जाता है – यह मर्यादित तथा वाञ्छनीय आचरण से सम्बन्धित होता है। अन्त में, यह समुदाय के हित को (अपने व्यक्तिगत हित से) सर्वोपरि मानता है ।

सांस्कृतिक मूल्य-बोध प्रणाली के दो स्तम्भ होते हैं — परिवार के प्रति निष्ठा और समाज के प्रति निष्ठा । इनमें से किसी एक की उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि सफल समाज वे ही हैं जिन्हौंने इन दोनों को सुसंगत रूप से धारण किया हुआ है।

भारतीय होने के कारण हमें एक ऐसी संस्कृति का अवयव होने का गर्व प्राप्त है जो गहरे और दृढ़ पारिवारिक मूल्य-बोध से सम्पन्न है। यह भारतीय मूल्यों का सार है तथा हमारी मुख्य शक्ति भी। हमारे परिवार हमारे लिए चरम आश्रय-प्रणाली की भूमिका निभाते हैं । दुर्भाग्यवश परिवार के प्रति हमारे दृष्टिकोण का प्रतिफलन समाज के प्रति हमारे दृष्टिकोण में नहीं दिखता । सड़कों पर कूड़ा बिखेरने, भ्रष्टाचार, अनुबन्धीय दायित्वहीनता और सामूहिक हित के प्रति हमारी उदासीनता और भावशून्यता में इसको साफ-साफ देखा जा सकता है।

पश्चिम के साथ हमारा प्राथमिक अन्तर यह है कि उन लोगों में हमारी अपेक्षा काफी बेहतर समाजिक  अभिविन्यास (social orientation)होता है। पश्चिम (अमेरिका, कैनेडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड) में लोगों की समझ होती है कि उन्हें अपने समुदाय के प्रति दायित्वशील रहना ही चाहिए । वे समाज की हमारी अपेक्षा अधिक परवाह करते हैं। हमारी तुलना में वे समाज के लिए अधिक त्याग स्वीकार करते हैं। इससे जीवन की गुणवत्ता में उन्नति होती है।

निम्न बिन्दुओं पर हम अपने और पश्चिम के लोगों के रूख पर दृष्टि डालें :

जन-सामान्य के हित के प्रति सम्मान :- उनके सार्वजनिक स्थानों, जैसे पार्क, बाज़ार इत्यादि में कूड़े नहीं होते; सड़कें साफ-सुथरी रहती हैं तथा सार्वजनिक शौचालयों की दीवारों पर उद्गारों की नुमाइश नहीं हुआ करती। पर हम अपने घरों की सफ़ाई कर कूड़े सड़क पर डाल देने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाते;

भ्रष्टाचार के प्रति दृष्टिकोण : भारत में भ्रष्टाचार , कर-वञ्चना, रिश्वत, और ठगी ने जन-जीवन को खोखला कर दिया है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध हमारी मुहिमें भी अक्सर निहित स्वार्थ से ही निर्धारित हुआ करती है। यह एक और उदाहरण है हमारे व्यक्तिगत या पारिवारिक स्वार्थों को सामाजिक हित के ऊपर प्राथमिकता देने का।

सार्वजनिक उदासीनता : सामुदायिक समस्याओं के समाधान ढूँढ़ने में हमारी उदासीनता ने हमें प्रगति करने से वञ्चित कर रखा है, जो अन्यथा हमारी पहुँच में हो सकता था । हम अपने चारो ओर की गम्भीर समस्याओं के प्रति शानदार निर्लिप्तता धारण किए रह सकते हैं। हमारा आचरण ऐसा होता है मानो ये समस्याएँ हैं ही नहीं, या हैं तो किसी और की हैं ; जब कि पश्चिम के लोग आगे बढ़कर सक्रियता अपनाकर समस्याओं को सुलझाते हैं । अगुआई करके सक्रियता से अपनी समस्याओं को सुलझाने की इच्छा-शक्ति हमने खो दी है; हम किसी अन्य के आदेशों को पालन करने को प्रवृत्त हो गए हैं ।

डा सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने लिखा “विश्व में हमारे अलावे अन्य कोई जाति ऐसी नहीं है जिसने प्रवचन इतना अधिक किया हो और क्रियान्वयन इतना कम। हम अपनी सांस्कृतिक विरासत के सम्बन्ध में आत्मप्रमाद से ग्रस्त रहा करते हैं।“

हमारे बौद्धिक अहंकार ने हमारे समाज को लाभान्वित नहीं किया है। इतनी कम उन्नति प्राप्त करने के बावज़ूद हम जिस तरह अन्य देशों के समाज और संस्कृति को तुच्छ समझा करते हैं, विश्व में अन्य कोई देश वैसा नहीं करता। वर्तमान की इतनी कम उपलब्धियों के रहते हुए ग़ुज़रे वक्त की डींगें हाँकने में हम सबसे आगे हैं। यह हमारी पुरानी ख़ासियत है, कम से कम एक हज़ार साल पुरानी । अल बरुनी, प्रसिद्ध अरब पर्यटक तथा विद्वान, जिसने भारत में, सन 997 से 1027 तक, करीब तीस साल बिताए, ने भारतीयों के इस गुण की ओर ध्यान दिलाया है।  अल बरुनी के अनुसार अधिकतर भारतीय पण्डित उनसे शास्त्रार्थ करना तक अपने सम्मान के विरूद्ध समझते थे। एकाध अवसर पर जब किसी पण्डित ने उनकी युक्तियाँ सुनीं और उन्हें  सही पाया तो हमेशा अल बरुनी से  जानना चाहा कि किस भारतीय पण्डित से ऐसा विद्वतापूर्ण ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया ।  फिर भी, हम हर रोज़ अखबारों में देखते हैं, हमारे अनेकों राजनेता दावा किया करते हैं कि “हमारा देश सबसे महान राष्ट्र है। ऐसे समय थॉमस कार्लाइल की यह उक्ति याद आती है,”  “अपनी कमियों से अनभिज्ञ रहना सबसे बड़ी कमी हुआ करती है । अगर हमें प्रगति करनी है, तो हमें उनकी बातें सुननी होंगी जिन्हौंने हमसे बेहतर किया है, उनसे सीखना होगा तथा उनसे बेहतर करना होगा । हम तो बस अपनी असफलताओं की व्याख्या करते रहते हैं। इस कला  में हमसे अधिक कुशल विश्व में कोई दूसरा समाज नहीं है । स्पष्टत: ये अपनी अक्षमता, भ्रष्टाचार और उदासीनता का औचित्य प्रमाणित करने के प्रयास हैं ।“

हम भारतीय पश्चिम की एक और विशेषता ग्रहण कर सकते हैं; दायित्वशीलता (accountability) . आप, चाहे किसी भी पद पर हों, अपने कामों के लिए जिम्मेवार माने जाते हैं । जब कि हमारे यहाँ जो जितने ऊँचे पद पर है उतना ही कम जवाबदेह होगा ।

पश्चिम में प्रत्येक व्यक्ति -पुरुष हो या नारी– अपने श्रमसाध्य कामों के प्रति गौरव -बोध रखता है ;दूसरी ओर, भारत में केवल उन कार्यों को ही सम्माननीयता प्राप्त है जिन्हें बौद्धिक-कार्य कहा जाता है।

पश्चिम से एक और पाठ सीखा जाना चाहिए, वह है लेन-देन में व्यावसायिकता । व्यक्तिगत समीकरण व्यावसायिक लेन -देन को प्रभावित नहीं करते । अकुशलता के लिए वे अपने निकट के मित्र की भी भर्त्सना करने से नहीं चूकते । भारत में हम कर्म-क्षेत्र में भी व्यक्तिगत परिप्रेक्ष्य बनाए रखते हैं । हम विश्व में ‘सबसे अधिक पतली चमड़ी’ वाले समाज के हैं-  हमें वहाँ भी अपमान दिखता है जहाँ ऐसा कुछ भी नहीं रहता।

हम भारतीय वैवाहिक शपथों को पवित्र मानते हैं। इनकी मर्यादा की रक्षा करने के लिए त्याग स्वीकार करने को हम सदैव प्रस्तुत रहते हैं । किन्तु सार्वजनिक क्षेत्र में  प्रतिबद्धता के प्रति हममें विवेक का स्पष्ट अभाव है।  नारायणमूर्ति अपने व्यक्तिगत अनुभव की बात करते हुए लिखते हैं ,’अमेरिकी विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा हेतु राष्ट्रीय छात्रवृत्ति के लिए मैंने कई एक विद्यार्थियों की अनुशंसा की थी । उनमें से अधिकतर लोग वापस नहीं लौटे, यद्यपि अनुबन्ध के अनुसार अमेरिका से डिग्री प्राप्त करने के बाद वे पाँच साल भारत में रहने को  प्रतिबद्ध थे । एक ख्यात अमेरिकी विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर के अनुसार, छात्र-ऋण की अदायगी में सर्वाधिक कमी भारतीय छात्रों में है — हमारे अनेकों राजनेता दावा किया करते हैं कि हमारा देश सबसे महान राष्ट्र है। ऐसे समय थॉमस कार्लाइल की यह उक्ति याद आती है, अपनी कमियों से अनभिज्ञ रहना सबसे बड़ी कमी हुआ करती है । अगर हमें प्रगति करनी है, तो हमें उनकी बातें सुननी होंगी जिन्हौंने हमसे बेहतर किया है, उनसे सीखना होगा तथा उनसे बेहतर करना होगा । हम तो बस अपनी असफलताओं की व्याख्या करते रहते हैं। इस कला  में हमसे अधिक कुशल विश्व में कोई दूसरा समाज नहीं है । स्पष्टत: ये अपनी अक्षमता, भ्रष्टाचार और उदासीनता का औचित्य प्रमाणित करने के प्रयास हैं ।

इन छात्रों में से हर कोई बहुत ही अच्छे परीक्षाफल  के साथ सफल होते हैं, बहुत अच्छी नौकरी में योगदान करते हैं, लेकिन फिर भी वे अपने ऋण का भुगदान नहीं करते । इसका नतीज़ा हुआ है कि भारत के विद्यार्थियों के लिए अब ऋण पाना कठिन हो गया है।

फिर, हम भारतीय बौद्धिक ईमानदारी के प्रति संवेदनशील नहीं हैं । उदाहरणार्थ हमारे राजनेता मोबाइल फोन पर पत्रकारों को कहते हैं कि वे टेकनॉलॉजी में यक़ीन नहीं करते ।

विडम्बना यह है कि पश्चिम से उनके सद्गुणों को सीखने के बजाए हम अपने बहुमूल्य पारिवारिक मूल्य-बोध से अपने को मुक्त कर रहे हैं ।  पश्चिम के उपर्युक्त सकारात्मक लक्षणों के प्रति हम उदासीन रहे, साथ ही हमने वैश्वीकरण के दबाव से अपने अनोखे पारिवारिक मूल्यों पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभावों के प्रति भी समझदारी नहीं रखी ।  अब हमारे वैवाहिक सम्बन्ध भी पश्चिम की भाति ही बस दो व्यक्तियों को ही जोड़ते हैं, परिवारों को नहीं। परिवार की आधुनिक अवधारणा ; पति-पत्नी और नाबालिग सन्तान ; वयस्क होने के बाद जन्तु-जगत की अन्य प्रजातियों की तरह सन्तान स्वत:स्फूर्त रूप से परिवार से पृथक सत्ता ग्रहण कर लेती है। एक से अधिक पीढ़ी के वयस्क सदस्यों का एक परिवार की संरचना में शामिल रहना अब लुप्त अवधारणा है;  दो से अधिक वयस्क सदस्यों वाले परिवार संयुक्त-परिवार कहलाते हैं। इस अवधारणा के कायम होने से आपसी सम्बन्धों तथा पारस्परिक सहयोग के समीकरण क्रान्तिकारी रूप से प्रभावित हुए हैं, तथा व्यक्तित्व के विकास के आयाम प्रभावित हुए हैं।  परिवार का यह प्रादर्श (Model) समुदाय में विविधता के परिवर्द्धन के लिए अनुकूल नहीं होता , क्योंकि प्रतियोगिता में दुर्बल सदस्यों के लिए आश्रय-प्रणाली (support-system) इस प्रादर्श में बहुत क्षीण होती है।

 

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