बसपा सुप्रीमो कुमारी मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढंकवाने के बाद चुनाव आयोग समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह साइकिल का क्या करेगा? साइकिल आमजन की सवारी है, जो हर नगर, ग्राम, डगर-डगर दिख जायेगी। तो क्या चुनाव सम्पन्न होने तक लोग साइकिल की सवारी करना छोड़ दें? साइकिल के दुकानदारों को चाहिए कि वे अपनी-अपनी दुकानें भी बंद कर दें!
कांग्रेस का चुनाव चिन्ह पंजा है, तो क्या कांग्रेसी उम्मीदवार अपने हाथों में दास्ताने पहनकर प्रचार के लिए जनता के बीच निकलेंगे? लालू यादव की राजद का चुनाव चिन्ह लालटेन है, जो अंधेरे का साथी है। क्या चुनाव आयोग रात में जलने वाले लालटेनों पर भी पर्दा डाल देगा? दुकानों में लालटेन की बिक्री पर भी प्रतिबंध लगा देना चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह कमल का फूल है। कमल के फूल को लोग मंदिरों में भी चढ़ाते हैं। चुनाव आयोग को चाहिए कि वह चुनाव सम्पन्न होने तक मंदिरों में कमल के फूल को प्रतिबन्धित कर दे। जो लोग कमल की खेती करते हैं, उन पर कड़ी निगरानी रखी जानी चाहिए! और कमल की खेती वाले जलाशयों को ढंकवाने का भी प्रबन्ध करना चाहिए।
चुनाव आयोग का यह फैसला बसपा के खिलाफ है या पक्ष में, या फिर आदर्श चुनाव आचार संहिता के हित में, इस पर भ्रम है; लेकिन इतना स्पष्ट है कि ढंकी हुई मूर्तियां जनता का ध्यान ज्यादा आकृष्ट करेंगी। इससे मायावती और बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी का तो बिना प्रयास ही जबर्दश्त प्रचार हो रहा है। यह 11 जनवरी के लगभग सभी समाचार पत्रों की लीड न्यूज है। बिना प्रयास भरपूर प्रचार हो रहा है।
हालांकि, इन मूर्तियों को ढंकने का फैसला चुनाव आयोग ने खुद आगे आकर नहीं किया है। उसके पास मायावती विरोधी दलों ने शिकायत की थी। इस शिकायत में केंद्र की कांग्रेस-नीत यूपीए के कुछ घटक दल भी शामिल थे। चुनाव आयोग पर उसका कितना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दबाव पड़ा होगा, यह तो बाद की बात है लेकिन फैसला तो केवल मायावती और उनकी हाथी के खिलाफ हुआ।
फिलहाल, मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढंकवाने का चुनाव आयोग का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण तो है ही, हास्यास्पद भी। इन मूर्तियों को लगवाने में जनता का ही पैसा खर्च हुआ और अब ढंकवाने में भी हो रहा है। यानी दोहरा खर्च। चुनाव आयोग को यदि निर्णय लेना ही था तो उन मूर्तियों को तोड़वाने का लेना चाहिए था।
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