आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है सामाजिक संतुलन

शैलेन्द्र चौहान
भारत ने 90 के दशक में आर्थिक सुधार शुरू किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस समय देश के वित्त मंत्री थे। सुधारों से उम्मीद थी कि लोगों के आर्थिक हालात सुधरेंगे, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान न देने की वजह से गरीबी, कुपोषण, भ्रष्टाचार और लैंगिक विषमता जैसी सामाजिक समस्याएं बढ़ी हैं। अब यह देश के विकास को प्रभावित कर रहा है। दो दशक के आर्थिक सुधारों की वजह से देश ने तरक्की तो की है, लेकिन एक तिहाई आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रही है। भारत इस अवधि में ऐसा देश बन गया है जहां दुनिया भर के एक तिहाई गरीब रहते हैं। चीन अपने यहां गरीबों की तादाद में भारी कमी करने में कामयाब रहा है, लेकिन भारत विकास के फायदे आम लोगों में समान ढंग से बांट नहीं पाया है। आर्थिक सुधारों के परिणामस्वरूप चीन का सकल घरेलू उत्पाद बढ़कर 12,000 अरब डॉलर हो गया है, जबकि समान आबादी के बावजूद भारत का जीडीपी इसका एक तिहाई ही है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में दोनों देशों के बीच गहरी खाई है. 2001 से 2012 के बीच भारत में औसत आय 460 डॉलर से बढ़कर 1700 डॉलर हुई है जबकि चीन में इसी अवधि में यह 890 से बढ़कर 6800 डॉलर हो गई। पिछले सालों में भारत की विकास दर करीब 9 फीसदी रही है, लेकिन देहाती क्षेत्रों और अर्थव्यवस्था के ज्यादातर इलाकों में आय बहुत धीमी गति से बढ़ी है। क्षेत्रीय विकास विशेषज्ञ प्रोफेसर रविशंकर श्रीवास्तव कहते हैं, “हमारा विकास गरीबों का समर्थन करने वाला विकास नहीं था। विषमताएं बढ़ी हैं लेकिन मुख्य बात यह है कि गरीबी पर विकास की प्रक्रिया का प्रभाव बहुत से दूसरे देशों के मुकाबले बहुत कम रहा है।” नतीजतन कुपोषण और गरीबी में इस कदर बढ़ गई है कि सरकार को आबादी के बड़े हिस्से को खाद्य पदार्थों की गारंटी देने के लिए खाद्य सुरक्षा ऑर्डिनेंस लाना पड़ा। इस पर 1.3 अरब रुपये का खर्च प्रस्तावित था। हाल में जारी यूएन शिक्षा सूचकांक के अनुसार भारत 181 देशों में 147वें स्थान पर है। आर्थिक संकेतकों में गरीबी, रोज़गार की उपलब्धता, भोजन और अन्य मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति किस सीमा तक हो रही है, आय की विषमताएं और आर्थिक अवसरों और उनसे पैदा होने वाले सामाजिक तनावों आदि को मुख्य रूप से देखा जाना चाहिए। हालांकि पिछले सालों में ढेर सारे गैर सरकारी स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी खुले हैं, लेकिन राजनीतिक इच्छा के अभाव और भ्रष्टाचार की वजह से स्तरीय शिक्षा को बढ़ावा नहीं मिला है। आईआईटी और आईआईएम को विश्व भर में जाना जाता है लेकिन वे भारत के वर्तमान विकास के लिए जरूरी इंजीनियर और मैनेजर प्रशिक्षित करने की हालत में नहीं हैं। देश में औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने और नए रोजगार पैदा करने के लिए कामगारों और मैनेजरों के स्तरीय प्रशिक्षण की योजना जरूरी है। भ्रष्टाचार देश की एक बड़ी समस्या बनी हुई है. ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार 176 देशों की सूची में भारत 94वें नंबर पर है. भ्रष्टाचार विरोधी अंतरराष्ट्रीय संस्था की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में रिश्तखोरी का स्तर काफी ऊंचा है। शोध और विकास के क्षेत्र में भी भारत पर्याप्त खर्च नहीं कर रहा है। वह अपने प्रतिद्वंद्वियों चीन और दक्षिण कोरिया से बहुत पीछे है। भारत रिसर्च और डेवलपमेंट पर होने वाले वैश्विक खर्च का सिर्फ 2.1 प्रतिशत खर्च करता है जबकि यूरोप का हिस्सा 24.5 प्रतिशत है। श्रीवास्तव का कहना है कि विकास की प्रवृति ऐसी होनी चाहिए कि वह निचले तबके के लोगों की आय बढ़ाकर गरीबी का प्रभावशाली तरीके से मुकाबला कर सके। “यदि विकास का फोकस देश के गरीब इलाकों और बेहतर आय और स्तरीय रोजगार के जरिए लोगों को गरीबी से बाहर निकालने वाली रणनीतियों पर हो तो वह ज्यादा प्रभावी होगा।” भारत की प्रमुख कारोबारी संस्था फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) का कहना है कि भारत का 2011से 2012 के बीच भ्रष्टाचार के कारण सात अरब डॉलर का नुकसान हुआ। 2जी टेलीकॉम, कॉमनवेल्थ गेम्स और कोयला घोटालों से हुए नुकसान को इसमें शामिल नहीं किया गया है जो हजारों करोड़ के थे। भ्रष्टाचार का अर्थव्यवस्था के विकास पर बहुत ही बुरा असर हो रहा है। नए रोजगार बनाने और गरीबी को रोकने में सरकार की विफलता की वजह से देहातों से लोगों का शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। इसकी वजह से शहरों के ढांचागत संरचना पर दबाव पैदा हो रहा है। आधुनिकता के कारण परंपरागत संयुक्त परिवार टूटे हैं और नौकरी के लिए युवा लोगों ने शहरों का रुख किया है, जिनका नितांत अभाव है। नतीजे में पैदा हुई सामाजिक तनाव और कुंठा की वजह से हिंसक प्रवृति बढ़ रही है, खासकर महिलाओं के खिलाफ हिंसा में तेजी आई है। यदि बात सामाजिक विकास की की जाये तो यह एक बहुआयामी पद (टर्म) है, इसे कुछ निश्चित परिभाषाओं या सीमाओं के अंतर्गत देखना कठिन है। सामाजिक विकास को परिभाषित करने से पहले हमें विकास को जानना ज़रूरी है। विकास का अर्थ एक निश्चित स्थिति से आगे की ओर प्रगति, परिवर्तन और उन्नति से है और प्रगति-परिवर्तन की यह मात्रा और गुण दोनों स्पष्ट रूप से दिखाई देने चाहिए। समाज के हर तबके की उसमें हिस्सेदारी हो कोई वंचित या छूट गए या खो गए लोग नहीं होने चाहिए तभी हम मान सकते हैं कि विकास की दिशा और दशा सही जा रही है। सामाजिक विकास एक समग्र प्रक्रिया है जो अपने भीतर एक निश्चित समाज की समस्त संरचनाओं यथा आयु, लिंग, सम्पत्ति तथा संस्थाओं जैसे परिवार, समुदाय, जाति, वर्ग, धर्म, शिक्षा आदि को समेटे है। उदाहरण के लिए एक आदिम जनजातीय समाज की संरचनाएं और उनसे जुड़े रीति-रिवाज एक आधुनिक समाज से पूर्णतया भिन्न होंगी। जनजातीय समाज मुख्यतया कुल, परिवार, रक्त सम्बन्ध आधारित होता है, जबकि आधुनिक समाजों का गठन हम देखते हैं कि कहीं अधिक जटिल और विस्तृत है। अगर भारत में समृद्धि लानी है तो देश भर में नई सोच को आगे लाना होगा और और आर्थिक मुश्किलों के साथ-साथ सामाजिक समस्याओं के समाधान भी ढूंढ़ने होंगे। शिक्षा व स्वास्थ्य की आवश्यकताओं को पुनर्परिभाषित करना होगा। आर्थिक विकास और सामाजिक विकास में हम संतुलन कैसे साध पाएंगे, इस बात पर गहन विचार करने और संतुलित व्यवहारिक समाजार्थिक योजनाओं और उनके सफल कार्यान्वयन की आवश्यकता होती है। इसके लिए दृढ राजनीतिक इच्छाशक्ति परम आवश्यक है।

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