शिक्षा का वटवृक्ष… किसके भरोसे…?

-आशीष शुक्ला-

education

आधुनिक मानव विकास का खाका खींचते समय हम शिक्षा को उस पटरी अथवा स्केल की तरह से प्रयोग करते हैं जिसके सहारे ही सभी रेखाएं आकार में लाई जाती हैं। अगर हम यह कहकर अपनी चर्चा आगे बढ़ाएं कि शिक्षा, एक राजकीय विषय है और सरकारें इसके लिए जिम्मेदार व एकमात्र जिम्मेदार हैं तो कुछ प्रश्न स्वाभाविक रूप से उग आते हैं।प्राथमिक विद्यालयों की तुलना में शिक्षण संस्थाओं की संख्या उत्तरोत्र घटती ही क्यों जाती है ?

क्या व्यवस्था इसी स्थिति को प्रोत्साहित करना चाहती है कि बच्चे दिनोंदिन आगे बढ़ती कक्षाओं में अवरोही क्रम में नामांकित हों ? इसके साथ ही मूलभूत स्तर पर लिये जाने वाले शैक्षिक निर्णयों में जनभागीदारी की गुंजाइश भी न के बराबर क्यों है ?

एनसीईआरटी की व्यापक शोध पर आधारित पुस्तकें एक तरफ कर के निजी स्कूलों ने मनचाहे प्रकाशन की पुस्तकों को अनिवार्य कर अभिभावकों की जेब तो काटी ही साथ ही मनमानी सामग्री भी मनमाने तरीके से बच्चों को परोस रहे हैं। क्या एक प्रगतिशील समाज में इस प्रकार की अनियमितताओं पर किसी सार्वजनिक संस्था का नियन्त्रण नहीं होना चाहिए ? एक अभिभावक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपना वोट देकर इस जैसी और भी बहुत सी नीतिगत बातों से निश्चिंत हो जाना चाहता है और सोचता है कि इसका जिम्मा उसके वोट से बनी सरकार उठायेगी। ऐसे में अगर व्यक्तिगत रूप से इन सभी समस्याओं को हमें ही सम्बोधित करना है तो सरकार की उपयोगिता पर, या अगर सकोच के साथ कहें तो भी उसकी व्यापकता पर सवाल उठता ही है। ऐसे मुद्दों का संज्ञान लेकर जिम्मेदार अधिकारियों द्वारा इन्हें प्राथमिकता के आधार पर निस्तारित किया जाना चाहिए, क्योंकि बच्चे की चिन्ता में परेशान होकर स्कूल बदल देना हमारे स्तर की अन्तिम कार्यवाही है और यह भी प्रभावी नहीं है।

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