शिक्षित होती तो हाथ में झाड़ू नहीं होता!

निकहत परवीन 

imagesसीबीएसई की तरह बिहार के दसवीं और बारहवीं में भी बेटियों ने एक बार फिर अपना परचम लहराया है। बिहार बोर्ड परीक्षा में इस वर्ष 73.48 प्रतिशत छात्र-छात्राएं सफल हुए हैं। जिनमें दो लाख 31 हजार 551 विद्यार्थी फर्स्टष डिवीज़न से पास हुए हैं। जो परीक्षा में शामिल होने वाले कुल विद्यार्थियों का 17.16 प्रतिशत है। यहां भी लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक है। पिछले कुछ वर्षों से इस राज्य में महिला शिक्षा के स्तर में अभूतपूर्व सुधार हुआ है। बिहार जैसा राज्य जो देश के बीमारू प्रदेशों की श्रेणी से निकल कर विकास की दौड़ में शामिल हो चुका है, ऐसे में लड़कियों का बोर्ड परीक्षा में प्रदर्शन राज्य में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की सफलता को ही दर्शाता है। यह इस बात को भी साबित करता है कि अन्य योजनाओं की तरह राज्य सरकार शिक्षा विशेषकर बालिका शिक्षा पर भी जोर दे रही है ताकि महिला सशक्तिकरण की परिभाशा को धरातल पर क्रियान्वित किया जा सके। केंद्र की मिडडे मील योजना के साथ साथ राज्य सरकार की बालिका साइकिल योजना ने लड़कियों की शिक्षा के स्तर को सुधारने में विशेष योगदान दिया है। लेकिन जहां एक ओर सरकार के प्रयासों और योजनाओं से महिलाओं को आगे बढ़ने के अवसर प्राप्त हो रहे हैं वहीं दूसरी ओर राजधानी पटना में पिछले 32 सालों से कठिनाईयों के बीच अपनी जि़दगी गुज़ार रही जैबुन जैसी महिला भी है, जो महिला सशक्तिकरण के नारों की दूसरी तस्वीर पेश कर रही है। जैबुन न तो शिक्षित है और न ही पैसे वाली।

अनपढ़ और गरीब होना कितना बड़ा पाप है इस संबंध में स्वंय अपनी कहानी बयां करते हुए जैबुन कहती है कि बड़ा परिवार और कम आमदनी होने के कारण सात साल की उम्र से ही मैं भी माँ के साथ दूसरों के घरों में बर्तन माँजने जाया करती थी। समय बीतने के साथ यह न सिर्फ मेरी मजबूरी बन चुकी थी बल्कि घर की बड़ी बेटी होने के कारण जिम्मेदारी भी बन गई थी। इस जिम्मेदारी को निभाते निभाते कब स्कूल छूट गया पता ही नहीं चला। घर और आसपास के अशिक्षित वातावरण के कारण धीरे धीरे शिक्षा के प्रति मेरी ललक भी खत्म होती चली गई। समय बीतने के साथ मैं बड़ी हुई तो माता-पिता ने रिश्ताक खोजना शुरू कर दिया। लेकिन दहेज हमारी गरीबी के आड़े आने लगी। जैबुन कहती है कि 2002 में दर्जी का काम करने वाले एक लड़का से मेरी शादी पक्की हुई। लेकिन दहेज में जेवर और सामान के अतिरिक्त 25 हजार रूपये की डिमांड की गई जो मेरे गरीब माता-पिता के लिए देना असंभव था। आखिरकार समाज के लोगों ने आगे बढ़कर हमारी मदद की और मेरी शादी मुमकिन हो सकी। ससुराल में आठ सदस्य थे और सभी मेरे आने से खुश थे। मुझे अपने भाग्य पर विश्वापस नहीं हो रहा था कि मेरे जैसी अनपढ़ लड़की को भी इतना अच्छा ससुराल मिल सकता है। लेकिन कुछ ही महीनों के बाद यह मेरा भ्रम साबित होता गया। शादी के सात महीने के बाद जब मैं मायके आई तो पता चला कि मैं गर्भवती हूँ। यह खुशखबरी जब मैंने अपने पति और ससुराल वाले को दी तो उन्होंने मुझे प्रसव तक मायके में ही रूकने को कहा। समय गुजरने के साथ मैंने एक बेटी को जन्म दिया। लेकिन मेरे द्वारा बेटी को जन्म देना पति समेत ससुराल वालों को नागवार गुज़रा। मेरे पति ने न सिर्फ बेटी का मुँह देखने से इंकार कर दिया बल्कि ससुराल वालों ने मुझे बताये बिना मेरे पति की दूसरी शादी ठीक कर दी।

अपने पति के इस फैसले के खिलाफ मैंने भी लड़ने की ठानी। पैसे की परवाह किये बगैर उसके खिलाफ मुकदमा किया और इसके लिए मैंने एक बार फिर घरों में बर्तन मांझना शुरू कर दिया। ताकि मायके वालों पर बोझ बनने की बजाए स्वयं और अपनी बेटी का पेट पाल सकूं। मेरी कमाई का एक बड़ा हिस्सा पुलिस स्टेशन और अदालत के चक्कर काटने में ही चला गया। लेकिन छह साल तक चले मुकदमे ने मुझे झूठी उम्मीदों के अलावा और कुछ नहीं दिया। अब यही सोंचकर स्वयं को कोसती हूँ कि जो मेहनत की कमाई मैंने अपने बेवफा पति को पाने में खर्च कर दिया, यदि वही पैसा अपनी बेटी की परवरिश और शिक्षा पर खर्च करती तो कहीं अच्छा था। जैबुन कहती है कि मेरी बेटी को पिता की कमी महसूस न हो इसके लिए मैंने उसका नाम अपने नाम से मिलाकर जैनब रखा है। आज मेरी बेटी दस साल की हो चुकी है और मैंने उसका दाखिला एक मान्यता प्राप्त प्राइवेट स्कूल में कराया है। इसके अतिरिक्त उसे अच्छी ट्यूशन भी दिला रही हूँ ताकि मेरी तरह वह अनपढ़ न रह जाये। इसके लिए मैं अधिक से अधिक घरों में काम करती हूँ। मुझे आज स्वंय के शिक्षित नहीं होने का बहुत मलाल है लेकिन मैं अपनी बेटी को अपनी तरह नहीं बनने देना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि उसे पढ़ने का भरपूर अवसर प्राप्त हो और वह शिक्षा के महत्व से परिचित होकर सशक्त बने ताकि फिर किसी जैबुन को किसी के घर का बर्तन मांजकर पेट न पालना पड़े।

आज के इस दौर में जबकि अशिक्षितों की तरह शिक्षित परिवारों और ग्रामीण की अपेक्षा शहरों में जन्म से पहले ही लड़का और लड़की में भेद किया जाता है और उन्हें गर्भ में ही मार देने की कोशिश की जाती है, यहां तक कि जन्म के बाद भी उन्हें कदम कदम पर कई सामाजिक बाधाओं को पार करना होता है। यह बाधा घर से ही अपनों के बीच से शुरू होती है और जीवन के अंतिम क्षण तक शामिल रहती है। ऐसे में जैबुन बधाई की पात्र हैं जिन्होंने पति और ससुराल वालों के खिलाफ आगे बढ़कर हिम्मत से काम लिया। बधाई की इसलिए भी पात्र हैं क्योंकि उन्होंने अशिक्षित होते हुए भी शिक्षा के महत्व को पहचाना और आज अपनी बेटी को शिक्षित करने के लिए हर संभव प्रयास कर रही हैं। (चरखा फीचर्स)

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