जितेन्द्र कुमार नामदेव
शिक्षा के क्षेत्र में अपना जीवन समर्पित करना अब बीते दौर की बातें हो गयी हैं। वो दिन लद गये है जब शिक्षक केवल शिक्षा के क्षेत्र में सेवा करता था। आज के दौर में शिक्षा का तेजी से व्यवसायीकरण होता जा रहा है। इतना ही नहीं अब तो शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार भी अपने पैर पसारता जा रहा है। पहले तो शिक्षक बनने के लिए एक बरगद का पेड़ ही काफी होता था जिसके नीचे बैठ कर शिष्य सामाजिकता व व्यवहारिकता की शिक्षा ग्रहण कर सामाजिक प्राणी बनता था। पर अब स्थिति बदल गयी है। शिक्षा को भी पांच सितारा होटलों की तरह चलाया जा रहा है।
बेहतर शिक्षा के नाम पर बड़ी-बड़ी इमारतों में शिक्षक संस्थान चलाए जा रहे हैं। जिनकी लागत किसी पांच सितारा होटल से कम नहीं है। वहीं इन संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने वाले शिष्य भी हाईफाई सोसायटी से विलोंग करते हैं। वो शिक्षा से ज्यादा अपनी सुख सुविधाओं का ध्यान रखते हैं। उनके माता-पिता भी उनकी विलासता में कोई कमी रखना नहीं चाहते थे।
आज शिक्षा और शिक्षक के मायने बदल गये हैं। शिक्षा ग्रहण करने वाला शिष्य भी पूरी तरह से बदल गया है। जो शिष्य पहले शिक्षकों की इज्जत करता था वो आज उन्हें अपना बंधुआ मंजूर समझता है। इसके पीछे भी यही कारण है कि वो शिष्य जिस शिक्षण संस्थान में पढ़ रहा है उसकी लाखों रूपये की फीस भरकर वो वहां है। तो फिर जाहिर सी बात है, कहीं न कहीं लचीलापन तो आयेगा ही।
हमने अपनी शिक्षा के दिनों में एक श्लोक पढ़ा था वो आज भी याद है-
काक चेश्ठा, वको ध्यानम्, श्वा निंद्रा, तथैव च
अल्पा हारी ग्रह त्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षण:
यह श्लोक इसलिए याद नहीं है कि मैंने इसे बढ़े ध्यान से पढ़ा था। बल्कि जिस दिन यह श्लोक याद करने के लिए कक्षा में मास्टर जी ने कहा था। उस दिन में विद्यालय ही नहीं गया था। पर अगले दिन जब विद्यालय पहुंचा तो सारे विद्यार्थी मास्टर जी के डर से श्लोक याद कर रहे थे। तब मुझे भी यह श्लोक मुंह जवानी याद हो गया।
उन दिनों शायद मुझे भी इस श्लोक का अर्थ समझ नहीं आया था। पर आज इस श्लोक का अर्थ समझ में आ गया है।
श्लोक का शाब्दिक अर्थ अगर निकाला जाए तो यह है- कौवे जैसी जिज्ञासा, बगुले जैसा ध्यान, कुत्ते जैसी नींद और कम खाने वाला, घर का त्याग करने वाला यह पांच लक्षण शिष्य के होने चाहिए।
अब यह पांच लक्षण शिष्यों में कहां देखने को मिलते हैं। हमारे महाकाव्य रामायण व महाभारत के साथ अन्य में भी यह वर्णन है कि शिक्षा के लिए गुरूकुल में रहना होता था। फिर चाहे वो भगवान राम हो या भगवान कृष्ण। सभी ने एक आम इंसान की तरह गुरू के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की थी।
वक्त बदला तो हर चीज के मायने बदल गये। आज की स्थिति कुछ और ही बयां करती है। पर ऐसा भी नहीं है कि इस बदलते युग में केवल शिष्य ही बदले हो शिक्षक भी बदले है और शिक्षण संस्थान भी। पहले गुरू शिक्षा देने के बाद गुरू दक्षिणा लिया करता था पर अब शिक्षा से पहलें ही दक्षिणा लेने का प्राबधान है। अब इस बात से कोई सरोकार नहीं कि शिष्य क्या पढ़ रहा है? पर इस बात से ज्यादा सरोकार है कि वो कहां पढ़ रहा है?
शिक्षा से ज्यादा सुविधा के मामले में शिक्षण संस्थानों में होड़ सी मची हुई है। शिक्षा पूरी तरह से व्यवसाहिक हो गयी है और व्यवासहिक हो गये हैं शिक्षक भी। आज शिक्षक बनने के लिए आईएएस, पीसीएस की तरह तैयारी करते हैं। शिक्षक बनने के लिए बीएड करने वालों की भीड़ दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। जितना क्रेज बीसीए, एमसीए, एमबीए तथा बीटेक था वो आज बीए का हो चुका है।
इसके पीछे कारण यह नहीं है कि लोगों में शिक्षक बनने का जज्बा जागा है। बल्कि इसके पीछे का कारण तो यह है कि जब से सरकार ने छटा वेतन लागू किया है तब से यह प्रोफेशनल एक उमदा नौकरी के रूप में चलन में आया है। अब किसी को शिक्षा की परवाह नहीं है बल्कि हर किसी को एक अच्छी नौकरी की तलाश है। तो क्यों न शिक्षक बन जाया जाए?
शिक्षक बनने की होड़ में गे्रजूएट लोगों ने बीएड इंटेÑंस एग्जाम देने शुरू किए। जब सीटों की संख्या से सौ गुने से भी अधिक लोगों ने बीएड में अपना रूझान दिखाया तो मामला साफ हो गया। शिक्षा व्यवसाईयों को समझ में आ गया कि आने वाले समय में यह सबसे अच्छा व्यवसाहिक कोर्स बनने जा रहा है। फिर बीएड कालेजों की भीड़ लगना शुरू हुई।
आज आलम यह है कि अगर केवल प्रदेश की बात की जाए तो लगभग दो से भी अधिक बीएड कालेज खोले जा चुके हैं। उन कालेजों में आने वाले भविष्य के शिक्षक तैयार किये जा रहे हैं। यह शिक्षक किस प्रकार अपना दायित्व निभाते है। इस बात से किसी को कोई लेना देना नहीं है? संस्थान शिक्षक बनाकर पैसा कमाने में लगे है तो भविष्य के शिक्षक सरकारी नौकरी कर अपने भविष्य को चमकाने में लगे हैं।
आज हमारा देश सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मना रहा है। पर आज के शिक्षक भूल गये है कि राधाकृष्णन ने अपने जिंदगी के 40 साल शिक्षा को समर्पित किये थे। उनके आदर्श आज की पीढ़ी भुलाती जा रही है। उनका मानना था कि जब तक शिक्षा का स्तर नहीं बढ़ेगा तब तक कोई भी देश विकास नहीं कर सकता। लेकिन आज के शिक्षक संस्थानों ने उनके सिद्धांतों को तोड़ मरोड़ कर पेश करने का काम किया है। शिक्षा का स्तर तो बढ़ा है पर पैसे वालों के लिए। वहीं गरीब और पिछड़े वर्ग के बच्चें को आरक्षण के नाम पर गुमराह किया गया है। जबकि आरक्षण से ज्यादा जरूरी है समाानान्तर शिक्षा।
अगर असल शिक्षक दिवस मनाना है तो शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। शिक्षक बनने से पहले शिक्षक के कर्तव्य को समझना होगा। तभी जाकर सच्चा शिक्षक दिवस होगा, सच्ची शिक्षा होगी तभी देश तरक्की करेगा।