एकलव्य- ऋण

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-गंगानंद झा-

eklavyaएकलव्य का सपना था कृति धनुर्धर होने का । यह भील बालक के लिए असामान्य सपना था; तत्कालीन व्यवस्था के लिए एक चुनौती; एकलव्य को द्रोणाचार्य ने शिक्षा देने से इनकार कर दिया था । पर वह हताश नहीं हुआ। उसने द्रोण की एक माटी की मूरत बना ली और जंगल में ही कठिन स्वाध्याय से कुशलता और दक्षता प्राप्त करने में जुट गया।। एक दिन द्रोण के राजकुमार शिष्य आखेट के लिए जंगल में आए थे, उनके साथ शिकारी कुत्ता था। कुत्ता शिकार की खोज में जंगल के अन्दर गया तो एकलव्य को देखकर जोर जोर से भौंकने लगा। एकलव्य ने उसका भौंकना बन्द करने के उद्देश्य से उसके मुँह पर निशाना लगाया और उसे तीरों से भर दिया। इधर भौंकने की आवाज बन्द होने से राजकुमार लोग चिन्तित होकर उसे तलाशने लगे। उन्हें आश्चर्य हुआ जब उन्होंने देखा कि कुत्ते का मुँह तीरों से भरा हुआ था। इसीलिए वह कोई आवाज नहीं निकाल पा रहा था। यह इस बात का संकेत था कि जंगल में कोई अत्यन्त कुशल धनुर्धर है, जिसकी बराबरी करने की वे सोच नहीं सकते थे। फिर उन्होंने एकलव्य को देखा और आचार्य द्रोण की मूर्ति भी। वे द्रोण के पास आए और उनके पास अपनी कुण्ठा एवम् निराशा की भड़ास निकाली। एकलव्य की दक्षता एवम् कुशलता में द्रोण को अपने निहित स्वार्थों के लिए हानिकारक होने की सम्भावना दिखने लगी और उन्होंने एकलव्य को गुरू-ऋण की याद दिलाई । गुरुदक्षिणा के तौर पर उन्होंने एकलव्य का अँगूठा— तीरन्दाज की सबसे बड़ी पूँजी— माँगा था ।

एकलव्य ने समझते हुए भी कि द्रोण द्वारा माँगी गई गुरू-दक्षिणा उसे अक्षम बनाने के उद्देश्य से प्रेरित है, इनकार नहीं किया । इसकी क्या युक्ति हो सकती है ? जिस ने गुरु बनने से इनकार किया, उसका कैसा ऋण? एकलव्य भील संप्रदाय का सदस्य था और इसलिए द्रोण (जो व्यवस्था के अंग थे) के लिए अपांक्तेय था । एकलव्य ने द्रोण के गुरु-ऋण का दावा स्वीकार किया; व्यवस्था के विधान-दण्ड को मानने के पीछे व्यवस्था से स्वीकृति (legitimacy) प्राप्त होने का लोभ ही रहा होगा। जब भी कोई व्यवस्था के वैषम्य के विरूद्ध सपने देखता है, उन सपनों को साकार करने में सक्षम दिखने लगता है, तो व्यवस्था(द्रोण) ऋण की बात बताकर उसे एकलव्य की भाँति अक्षम बनाने का कौशल करती है ।

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