नोटबंदी के साये में चुनाव

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प्रमोद भार्गव

पांच राज्यों के लिए विधानसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो गई है। इनमें उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर राज्य हैं, लेकिन देश की निगाह उत्तरप्रदेश पर टिकी है। अपवादस्वरूप कोई आम चुनाव छोड़ दें तो दिल्ली का रास्ता उत्तरप्रदेश से ही निकलता है। यही वजह है कि उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव को लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखा जाता है। इस बार भी कमोवेश यही मनस्थिति देश की अवाम और राजनीतिक विश्लेशकों की है। साफ है, उत्तरप्रदेश समेत अन्य प्रदेशों के नतीजों में 2019 में होने वाले आम #चुनाव की झलक दिखाई देगी। इस चुनाव में #नोटबंदी का प्रभाव व मुद्दा तो सभी प्रदेशों में दिखाई देगा, लेकिन उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी में अंदरूनी कलह और विघटन की छाया जिस तरह से गहरा रही है, उसका असर भी चुनाव परिणामों में दिखेगा।

उत्तर प्रदेश इन मुद्दों के इतर इसलिए भी अहम् है, क्योंकि वहां के नतीजे उन तमाम कारणों से प्रभावित होते है, जो भारतीय लोकतंत्र की खूबियां और खामियां हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही जाति, धर्म, संप्रदाय, भाषा और क्षेत्रीयता के चुनाव में इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया हो, बावजूद यह हकीकत रहेगी कि इन सब मुद्दों के साथ धनबल और बाहुबल उत्तरप्रदेश में अपनी ताकत दिखाएगा। बसपा, सुप्रीमो ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के एक दिन बाद पत्रकार वार्ता में कहा भी कि उन्होंने जाति और धर्म के आधार पर टिकटों का बंटवारा करके ही उम्मीदवारों की सूची बनाई है। यह बात उन्होंने चुनाव घोषणा के साथ आदर्श आचार संहिता लागू होने के ठीक एक दिन पहले कही थी। हालांकि शीर्ष न्यायालय ने जो बातें कही हैं, वे सब प्रावधान पहले से ही जनप्रतिनिधित्व कानून और भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं में मौजूद है, लेकिन राजनैतिक दल इन झोलों से बच निकलने में पिछले सत्तर सालों से अभ्यस्थ हैं, इसलिए ऐसी चेतावनियों की परवाह नहीं करते है।

403 सीटों वाले उत्तरप्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी फिलहाल अंतर्कलह से गुजर रही है। राम के नाम पर इस राज्य में सत्ता का स्वाद चख चुकी भाजपा अब मोदी के कथित विकास की हुंकार पर दम भर रही है। ढाई साल पहले भाजपा ने अपनी सहयोगी पार्टी अपना दल के साथ मिलकर अकेले उत्तरप्रदेश में 43 प्रतिशत वोट और 80 में से 73 लोकसभा सीटें जीती थीं। गोया, 11 फरवरी से 8 मार्च तक होने वाले मतदान के परिणाम को इसी सफलता के आईने में तुलनात्मक रूप से देखा जाएगा। बसपा दलित और मुसलमानों के बूते सत्ता की स्पर्धा में शामिल है। लेकिन विपक्ष में रहते हुए बसपा स्थानीय मुद्दों व समस्याओं से जूझती नहीं दिखी इसलिए उसका जनाधार लगातार सिमटता चला गया है। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने खाट सभाएं तो खूब की, लेकिन उनकी खाट बिछी रहेगी, ऐसी उम्मीद कम ही है। कांग्रेस को अपनी विधानसभा में मौजूदा स्थिति को बहाल रखना भी टेढ़ी खीर साबित होगी।

उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा बड़ा राज्य पंजाब है। 117 सीटों वाले इस राज्य में भाजपा-अकाली गठबंधन पिछले दस साल से सत्तारूढ़ है। यहां कसौटी पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी है। आप ने लोकसेवा चुनाव में चार सीटें जीतकर अपनी बेहतरीन उपस्थिति दर्ज कराई थी। तभी से अरविंद केजरीवाल पंजाब में हाथ-पैर कुछ ज्यादा ही मार रहे हैं। यदि केजरीवाल पंजाब में परचम फैलाने में सफल होते है तो उनका देशव्यापी आभामंडल विकसित होने में देर नहीं लगेगी। नवजोत सिंह सिद्धू के साथ के बाद कांग्रेस सत्ता की दौड़ में फिलहाल आगे है। लेकिन पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद सिंह को बड़बोले सिद्धू खल रहे हैं। इसलिए कांग्रेस की स्थिति उलझ भी गई है। इस वजह से यह भी लग रहा है कि आप कहीं दिल्ली जैसा कमाल दिखाने में कामयाब न हो जाए। 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप ने सत्तर में से 67 सीटें जीतकर #भाजपा समेत सभी दलों की हवाईयां उड़ा दी थी।

सत्तर विधानसभा सीटों वाले उत्तराखंड में कांग्रेस के मुख्यमंत्री हरीश रावत सत्तारूढ़ हैं। यहां के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के अपने समर्थक विधायकों के साथ भाजपा का दामन थामने के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी की राहें आसान नहीं रह गई है। विजय के बाद उनकी बहन रीता बहुगुणा भी अब भाजपा में है। भाजपा दल-बदल कानून के बहाने यहां राष्ट्रपति शासन लागू करने की नाकाम कोशिश भी कर चुकी है, किंतु अदालत के हस्तक्षेप के चलते उसकी दाल नहीं गल पाई। विजय और रीता के भाजपा में शामिल होने से स्थानीय भाजपाई नाराज हैं। तिस पर भी यहां भाजपा के पांच से भी ज्यादा मुख्यमंत्री दावेदारी ठोक रहे हैं। तय है भाजपा को टिकट बंटवारे के साथ ही अंतर्कलह और भीतरघात का जबरदस्त सामना करना होगा। हरीश रावत मृदुल व्यवहार साफगोई और रणनीतिक चतुराईयों के चलते भाजपा को कड़ी टक्कर देने की स्थिति में अभी भी खड़े हैं।

60 सीटों वाले पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में कांग्रेस की इबोबी सरकार की वापसी की पूरी संभावना है। इबोबी ने नए जिले बनाकर जो दांव खेला है, उसके चलते उनकी अन्य सभी विरोधी दलों से बढ़त स्पष्ट दिखाई दे रही है। हालांकि यही वह वजह है जिसके चलते नागाओं को आर्थिक नाकेबंदी भुगतनी पड़ रही है। मणिपुर में नागाओं के विरोध के चलते हाल ही में कफ्र्यू का दंश भी जनता को झेलना पड़ा था। भाजपा की फिलहाल अपनी कोई भगवा ताकत नहीं है। इसलिए वह इबोबी के विरोधी कांग्रेसियों को लुभाकर उनकी दम पर सत्ता हथियाने के हथकंडे अपनाने में लगी है।

40 विधानसभा सीटों वाले गोवा में भाजपा सत्तारूढ़ है। पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के केंद्र में मंत्री बनने के बाद यहां राजनैतिक हालात गंभीर हुए है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुभाष वेलिंग्कर के खुले विद्रोह के बाद भाजपा के लिए सत्ता बनाए रखना बड़ी चुनौती है। सुभाष के साथ एक पूरा संघ का धड़ा जुड़ा है। कांग्रेस यहां अभी भी असमंजस की स्थिति में है। यदि कांग्रेस पंजाब और गोया में सत्ता हासिल नहीं कर पाती है तो उसके नेता राहुल गांधी का राष्ट्रीय फलक पर भविष्य नगण्य हो जाएगा। 2019 के आम चुनाव में भी राहुल कोई करिश्मा दिखा पाएंगे , इस आशय की संभावनाएं लगभग शून्य हो जाएंगी। इस लिहाज से कांग्रेस और राहुल के लिए पंजाब, उत्तराखंड और गोवा बेहद महत्वपूर्ण है।

चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही ओपीनियन पोल अर्थात मतदान पहले के पूर्वानुमान टीवी चैनलों पर सामने आने लग गए है। इनमें अनुमान विरोधाभासी जरूर हैं, लेकिन भाजपा और उसके सहयोगी दल बढ़त में बताए जा रहे है। कांग्रेस को सभी राज्यों में मौजूदा स्थिति बहाल रखना मुश्किल बताया जा रहा है। हालांकि निर्वाचन के पूर्वानुमान गलत भी साबित हुए हैं। इसलिए इनपर भरोसा करके कोई भी दल चुनाव नहीं लड़ सकता है। इस चुनावी पर्व के बीच में ही एक फरवरी को आम बजट घोषित करने का ऐलान केंद्र सरकार ने कर दिया है। ऐसे में मायावती समेत अन्य दलों ने बजट पेश करने पर सवाल खड़े करने कर दिए है। संभव है, दल निर्वाचन आयोग को चुनाव तिथियों के बीच में आम बजट पेश करने पर प्रतिबंध लगाने संबंधी ज्ञापन भी दें। चुनाव आयोग अपने स्तर पर भी यह सोचने को विवश हो सकता है कि बीच चुनाव में आम बजट पेश होना चाहिए अथवा नहीं ? दरअसल एक फरवरी के बाद सभी सात चरणों के चुनाव होने हैं। साफ है, इस बार भाजपा जो बजट पेश करेगी, वह अपने अन्य पिछले बजटों की तुलना में कहीं ज्यादा लोक लुभावन हो सकता है ? ऐसा होता है तो मतदाता बजट से प्रभावित होकर मतदान करने का मन बना सकते हैं। इससे विपक्षी दलों के आरोपों की पुष्टि होगी। इसलिए अच्छा है, निर्वाचन आयोग बजट की तिथि पर पुर्नाविचार करे। हालांकि मुख्य रूप से जो परिणाम आएंगे, उन्हें नोटबंदी के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाएगा।

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