चुनावः राजनीति में स्वच्छता अभियान चलाने का शुभ अवसर

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निर्मल रानी
भारतीय गणतंत्र के कई प्रमुख राज्य अगले कुछ दिनों में विधानसभा के आम चुनावों से रूबरू होने जा रहे हैं। इन राज्यों में जहां उत्तरप्रदेश जैसा देश का सबसे बड़ा राज्य विधानसभा चुनाव का सामना करने जा रहा है वहीं मणिपुर व गोआ जैसे छोटे राज्यों व उत्तराखंड तथा पंजाब को भी चुनावों का सामना करना है। प्रत्येक चुनाव की तरह चुनाव मैदान में उतरी सभी राजनैतिक पार्टियां इन राज्यों में अपनी-अपनी जीत के दावे कर रही हैं तथा अपनी जीत को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्र समझते हुए चुनाव लड़ रही हैं। जाहिर है प्रत्येक राजनैतिक दल के पास जनता को लुभाने व उन्हें लालच देने की अनेकानेक योजनाएं हैं जिन्हें वे अपने-अपने चुनाव घोषणापत्र के माध्यम से मतदाताओं के समक्ष पेश कर रही हैं। राज्यों का भविष्य उसका समग्र विकास तथा चहुंमुखी प्रगति सुनिश्चित करने वाली राजनीति की जगह अब राजनेताओं द्वारा सस्ता घी, सस्ता दूध , सस्ती चीनी, सस्ता भोजन, प्रत्येक घर में एक नौकरी दिए जाने जैसी बातें की जा रही हैं। कहीं सांप्रदायिकता को हवा दी जा रही है तथा निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा जनसभाओं में यह कहा जा रहा है कि यदि मेरी पार्टी सत्ता में आई तो राज्य के अमुक-अमुक स्थानों पर कफ्र्यू लगा दिया जाएगा्य। तो कहीं लोकसभा के जिम्मेदार सदस्य यह कहते सुनाई दे रहे हैं कि मतदान के समय सांप्रदायिक दंगों को जरूर याद रखना। कहीं मंदिर निर्माण का आश्वासन दिया जा रहा है तो कहीं जाति के आधार पर मतों को अपनी ओर आकर्षित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। कोई अल्पसंख्यकों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए तरह-तरह की लुभावनी बातें कर रहा है तो कोई बहुसंख्य समाज का धु्रवीकरण करने में व्यस्त है।
राजनैतिक दलों व राजनेताओं के उपरोक्त सभी प्रयास यह साबित करते हैं कि उनकी सोच अत्यंत सीमित, खतरनाक तथा समाज को विभाजित करने वाली है तथा ऐसी बातें कर वे देश में जाति व संप्रदाय का जहर घोल रहे हैं। इन बातों से यह भी साबित होता है कि राजनैतिक दलों की नजरों में भारतीय मतदाता लालची, मुफ्तखोर तथा उनकी लालच के झांसे में आसानी से फंस जाने वाला है। गोया राजनैतिक दल मतदाताओं की हैसियत को कम कर आंकते हैं। इतना ही नहीं इनके वादों से तथा इनके लोकलुभावन चुनावी घोषणापत्रों से यह भी जाहिर होता है कि मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए इनके पास राज्य के तथा राज्य के समस्त नागरिकों के समग्र विकास के लिए कोई योजनाएं अथवा कार्यक्रम नहीं हैं। अन्यथा पंजाब जैसे आर्थिक रूप से देश के सबसे संपन्न राज्य में पच्चीस रुपये किलो घी, दस रुपये किलो चीनी आदि मुहैया कराए जाने जैसे वादे करने की जरूरत ही क्या थी? और यदि वास्तव में देश की गरीब जनता से इतनी हमदर्दी है भी तो यही योजनाएं छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हरियाणा, मध्यप्रदेश तथा राजस्थान जैसे राज्यों में क्यों नहीं लागू की जातीं जहां पंजाब की तुलना में कम आय वाले मतदाता रहते हैं?
प्रत्येक चुनाव की तरह इस बार भी विधानसभा चुनाव का समाना कर रहे लगभग सभी राज्यों में यह देखा जा रहा है कि अनेक नेतागण अपनी पार्टी के प्रत्याशी न बन पाने के कारण दूसरे दलों का रुख कर चुके हैं और दूसरे दल उन्हें अपना उम्मीदवार बनाकर चुनाव मैदान में उतार चुके हैं। गोया कल का तथाकथित धर्मनिरपेक्ष विचारधारा रखने वाला नेता दक्षिणपंथी विचारधारा रखने वाली पार्टी का उम्मीदवार बनकर चुनाव लड़ रहा है। तो कहीं किसी दक्षिणपंथी राजनैतिक दल के नेता का टिकट कट गया तो वह धर्मनिरपेक्षता का लिबादा ओढ़कर जनता से वोटों की भीख मांगता दिखाई दे रहा है। इस प्रकार की कवायद या राजनैतिक पलटीबाजी का सीधा सा अर्थ यही है कि इस प्रकार के नेताओं की अपनी न तो कोई विचारधारा है न ही इनका कोई राजनैतिक सिद्धांत। ऐसे नेताओं का एकमात्र मकसद केवल यही है कि येन-केन-प्रकारेण किसी प्रकार सत्ता हासिल की जाए और जनता के पैसों पर मौज-मस्ती करने की मंजिल तक पहुंचा जाए। चुनाव को सत्ताशक्ति हासिल करने का शुभ अवसर मानकर देश के कई चुनावी राज्यों में अनेक माफिया, गैंगस्टर तथा आपराधिक पृष्ठभूमि रखने वाले बाहुबली भी या तो चुनाव मैदान में उतर चुके हैं या अपने-अपने राजनैतिक आकाओं के समर्थन में चुनाव क्षेत्रों में दहशत फैलाते फिर रहे हैं। इस प्रकार के बाहुबली नेता भी राजनैतिक विचारधारा व सिद्धांत आदि को किनारे रखते हुए केवल अपनी सुरक्षा,अपनी सलामती तथा सत्ता व शासन का संरक्षण हासिल करने के एकमात्र उद्देश्य से चुनाव मैदान में उतरते या किसी बड़े नेता का पिछलग्गू बनते दिखाई देते हैं। सवाल यह है कि ऐसे प्रदूषित राजनैतिक वातावरण में आखिर मतदाताओं के अपने कर्तव्य क्या हैं? क्या अपराधी पृष्ठभूमि रखने वाले, दलबदल तथा अपने स्वार्थ व सुविधा की राजनीति करने वाले लोग इस योग्य हैं कि उन्हें जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजे? क्या जनता को घी, दूध, चीनी या खाना सस्ता देने जैसी लालच देने वाले नेताओं से राज्य के समग्र विकास की उम्मीद की जा सकती है? क्या सिद्धांतविहीन व दलबदलू नेता जो मात्र टिकट मिलने न मिलने की खातिर दलबदल करते रहते हैं वे इस योग्य हैं कि उन्हें जनता अपना नुमाईंदा बनाए? क्या रिश्वतखोर, भ्रष्टाचारी तथा राजनीति में कदम रखने के बाद करोड़पति बन जाने वाले नेतागण जनप्रतिनिधि बनने के योग्य हैं? क्या हमारे देश की एकता और अखंडता पर प्रहार करने वाले तथा देश में सांप्रदायिकता व जातिवाद का जहर घोलने वाले दल या नेता चुनाव में विजय पाने के हकदार हैं? मतदाताओं को इन सवालों पर बड़ी गंभीरता से गौर करने की जरूरत है। जनता को यह भी अधिकार है कि वह राजनैतिक दलों से पिछले चुनावों में किए गए उनके वादों का हिसाब मांगे। मतदाताओं को उन राजनैतिक दलों से जो प्रत्येक घर में एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी देने की बातें कर रहे हैं उनसे यह पूछे कि लोकसभा चुनावों के बाद अब तक कितने बेरोजगारों को रोजगार दिए गए हैं तथा क्या उनके अपने दूसरे राज्यों में प्रत्येक परिवार के एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी दी गई है?
मतदाताओं को मतदान करते समय इस बात का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए कि उनके द्वारा चुना गया प्रतिनिधि केवल उनके क्षेत्र की नुमाईंदगी मात्र ही नहीं करता बल्कि उसके निर्वाचित होने से उस क्षेत्र के मतदाताओं की सोच, फिक्र तथा उनकी भावनाओं का अंदाजा भी होता है। उदाहरण के तौर पर यदि कोई माफिया, अपराधी, रिश्वतखोर या भ्रष्ट अथवा दंगाई या फसादी व्यक्ति किसी चुनाव क्षेत्र से चुनाव जीत कर आता है तो निश्चित रूप से उस क्षेत्र के मतदाताओं का समर्थन ऐसे जनप्रतिनिधि के पक्ष में साफतौर पर दिखाई देता है। और यह स्थिति उस क्षेत्र विशेष की बदनामी का कारण बनती है। हालांकि हमारे संविधान के अनुसार ऐसा व्यक्ति चुनाव जीतकर माननीय बन जाता है तथा भारतीय संविधान में निहित जनप्रतिनिधि की सारी सुविधाओं का ह$कदार भी बन जाता है। ऐसे में यह मतदाताओं का फर्ज है कि वे अपने क्षेत्र की इज्जत-आबरू का भी ध्यान रखें। निश्चित रूप से प्रत्येक चुनाव में व्यवसायी प्रवृति के, अपराधी, भ्रष्टाचारी तथा सांप्रदायिक व जातिवादी तनाव पैदा करने वाले लोग सक्रिय हो उठते हैं। परंतु मतदाताओं के लिए चुनाव एक ऐसा शुभ अवसर है जिसे वे राजनीति में स्वच्छता अभियान्य चलाए जाने के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं।

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