दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु आदि गुणों के पर्याय युगांतकारी युगदृष्टा मानवतावादी गुरू नानक सिखों के प्रथम गुरु अर्थात आदि गुरु थे, जिन्हें उनके अनुयायियों द्वारा गुरु नानक, गुरु नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह आदि नामों से स्मृत और संबोधित किया जाता है ।विभिन्न आध्यात्मिक दृष्टिकोणों के बीच सृजनात्मक समन्वय स्थापित कर तथा विभिन्न संकुचित धार्मिक दायरों से बंधे लोगों को मुक्त कर उनमें आध्यात्मिक मानवतावाद और विश्व बंधुत्व के महती संबंध स्थापित करने वाले गुरु नानक देव विलक्षण व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न दरवेश थे। भारत की अध्यात्मिक गुरु परम्परा में सच्ची गुरुता के सर्वोच्च प्रतीक गुरु नानक का दार्शनिक चिंतन अत्यंत गहरा था। उनका कार्योद्देश्य अर्थात मिशन बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का लोक परोपकारी मार्ग था।
सिखधर्म के संस्थापक गुरुनानक का जन्म संवत 1527 तदनुसार सन 1469 ईस्वी की कार्तिक पूर्णिमा को रावी नदी के किनारे अवस्थित तलवंडी(तिलौंडा) ग्राम में एक खत्रीकुल में श्री कल्याण चंद उर्फ़ कालू मेहता एवं श्रीमती तृप्ता देवी के गृह में हुआ था । चूँकि मेहता दंपत्ति की पहली संतान पुत्री नानकी थी अतः दूसरे बच्चे का नाम नानक रखा गया। वर्तमान में नानक का जन्म स्थान पाकिस्तान में आता है। लाहौर से दक्षिण पश्चिम में 65 किलोमीटर दूर स्थित तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया । अब यह स्थान ननकाना साहिब के नाम से प्रसिद्ध है। बचपन से ही नानक में प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखाई देने लगे थे, और लड़कपन ही से वे सांसारिक विषयों से उदासीन रहने लगे थे। पढ़ने लिखने में इनका मन नहीं लगा करता था । बालक नानक सूफ़ी फ़क़ीरों से नित नवीन प्रश्न पूछा करते और घंटों परमात्मा की चर्चाओं में लगे रहते। दो-चार कक्षा की विद्यालयीन शिक्षा प्राप्त करने के बाद सात-आठ वर्ष की उम्र में ही नानक का विद्यालय छूट गया क्योंकि भगवत्प्रापति के संबंध में इनके प्रश्नों के उत्तर अध्यापकगण नहीं दे पाते थे । फलतः नानक के आगे अध्यापकों ने हार मान ली तथा वे उन्हें ससम्मान घर छोड़ने आ गए। अध्यापकों ने पिता कालू मेहता को समझाया कि आपका बच्चा स्वतः ही अत्यंत गुणी है अब उसे हम वह सब कहाँ से बतलाएं जो हमें स्वयं भी नहीं पता ? और विद्यालय त्याग के पश्चात तो सारा समय नानक आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत करने लगे। नानक के साथ बचपन के समय में कई चमत्कारिक इन्द्रियातीत घटनाएं घटी जिनके साक्षी गाँव के लोग इन्हें दिव्य व्यक्तित्व मानने लगे और इनमें श्रद्धा रखने लगे थे। एक बार नानक के सिर पर सर्प द्वारा छाया करने का दृश्य देखकर गाँव का शासक राय बुलार नतमस्तक हो गये थे ।उनके ऐसे चमत्कारिक कार्यों से अधिकांश व्यक्ति उन्हें परमात्मा का एक सच्चा दूत मानते और उनकी सेवा सम्मान में लगे रहते।दूसरी ओर पेशे से पटवारी कालू मेहता की इच्छा थी कि उनका पुत्र नानक भी दुनियादारी और धनोपार्जन में उनका हाथ बटाए और एक सफल व्यापारी बने लेकिन नानक को सूफियाना संगत बहुत भाती थी और वे संतों के साथ ही दिन व्यतीत करते । इस पर घर वालों ने सोचा कि-घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारी में डालने पर शायद इसका मन काम धंधे में लग सकेगा। अतः उन्होंने नानक का विवाह सोलह वर्ष की अवस्था में गुरदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहनेवाले मूला की कन्या सुलक्खनी से करा दिया । विवाह के सोलह वर्ष पश्चात 32 वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र श्रीचंद और उसके चार वर्ष पीछे द्वितीय पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ। दोनों लड़कों के जन्म के उपरांत 1507 में नानक अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोड़कर मरदाना, लहना, बाला और रामदास नामक चार साथियों को लेकर तीर्थाटन के लिये निकल पडे़, और चारों ओर घूम-घूम कर उपदेश करने लगे। 1521 तक इन्होंने तीन यात्राचक्र पूरे किए, जिनमें भारत, अफगानिस्तान, फारस और अरब के मुख्य मुख्य स्थान भी शामिल थे ।इन यात्राओं को पंजाबी में उदासियाँ कहा जाता है।
मूर्तिपूजा को निरर्थक मानने तथा रूढ़ियों और कुसंस्कारों का जीवनपर्यंत तीव्र विरोध करने वाले नानक ने निरंकुशता, धर्मांधता, अंध विश्वासों, आडंबरों से जकड़ी हुई उपासना की रूढ़िवादी औपचारिकता के कष्टप्रद भार को दूर कर धर्म के सत्य ज्ञान प्रकाश से सहज, सरल मार्ग प्रशस्त किया।उनके अनुसार, ईश्वर का साक्षात्कार, बाह्य साधनों से नहीं वरन् आंतरिक साधना से संभव है। उनके दर्शन में वैराग्य तो है ही साथ ही उनमें तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थितियों का भी जीवन्त वर्णन अंकित है। संत साहित्य में नानक उन संतों की श्रेणी में आते हैं, जिन्होंने नारी को भरपूर बड़प्पन प्रदान किया है। वर्ण, वर्ग, पाखंड, आडंबर, ऊंच-नीच और कर्मकांड में जकडे़ मनुष्य की अन्तरात्मा को झंझोड़कर जागृत करने वाले निरंकारी गुरुनानक का मिशन मानवतावादी था। उनका चिंतन मानवीय धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों का मूल आधार था। इसीलिए उन्होंने संपूर्ण सृष्टि में मजहब, वर्ण, जाति, वर्ग आदि के भेद से ऊपर उठकर एक पिता एकस के हम बारिक का दिव्य संदेश दिया। वे कहते थे कि इस सृष्टि का रचियता एक ईश्वर है। उस ईश्वर की निगाह में सब समान हैं। गुरुजी जपुजी साहिब नामक वाणी में कहते हैं- नानक उत्तम-नीच न कोई। गुरुजी समता, समानता, समरसता आधारित समतामूलक समाज की स्थापना के प्रबल समर्थक थे। गुरुजी किसी धर्म के संस्थापक नहीं अपितु मानव धर्म के संस्थापक थे।
एक बार की बात है, गुरुजी सुलतानपुर के पास बेई नदी में स्नान करने गए तो काफी समय तक बाहर नहीं आए। लोगों ने समझा नानकजी पानी में डूब गए हैं। तीसरे दिन नानकजी प्रकट हुए, और बाहर आते ही उन्होंने पहला उपदेश दिया था – न कोई हिन्दू न मुसलमान। उनके इस पहले उपदेश को जपुजी साहिब के नाम से जाना जाता है ।जपुजी साहब में उन्होंने स्पष्टतः कहा है कि बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी सांप्रदायिकता में विश्वास नहीं करता, क्योंकि उसका संबंध विश्व धर्म के सत्यमर्म के साथ है। गुरुजी के अनुसार, सारी सृष्टि को बनाने वाला एक ही ईश्वर है। हिन्दू और मुसलमान में अंतर नहीं है, ये एक ही खुदा के बंदे हैं। प्रेम,बंधुत्व और समानता के सन्देशवाहक ,मानव धर्म के वास्तविक प्रणेता गुरु नानक देव के अनुयायियों में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही थे ।मूर्तिपूजा, बहुदेवोपासना को अनावश्यक मानने वाले नानक के मत का हिन्दु और मुसलमान दोनों पर समान प्रभाव पड़ता था। इसी बात से चिढ़कर मुस्लिमों ने तत्कालीन शासक इब्राहीम लोदी से इनकी शिकायत कर दी और नानक बहुत दिनों तक इब्राहीम लोदी के कैद में रहे। अंत में पानीपत की लड़ाई में जब इब्राहीम हार हुई और बाबर के हाथ में राज्य की सत्ता आई तब इन्हें कैद से मुक्ति मिली ।
जीवन के अंतिम दिनों में नानक की ख्याति बहुत बढ़ गई और इनके विचारों में भी परिवर्तन हुआ। स्वयं विरक्त होकर नानक अपने परिवारवर्ग के साथ रहने लगे और दान पुण्य, भंडारा आदि करने लगे। उन्होंने करतारपुर नामक एक नगर बसाया, जो कि अब पाकिस्तान में है और एक बड़ी धर्मशाला उसमें बनवाई। इसी स्थान पर आश्विन कृष्ण 10 संवत् 1597 तदनुसार 22 सितंबर 1539 ईस्वी को इनका परलोकवास हुआ।मृत्यु से पहले उन्होंने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए। गुरु नानक के पुत्रों ने इसका विरोध भी किया। नानक एक अच्छे कवि भी थे। उनके भावुक और कोमल हृदय ने प्रकृति से एकात्म होकर जो अभिव्यक्ति की है, वह निराली है। उनकी भाषा बहता नीर थी जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी, संस्कृत और ब्रजभाषा के शब्द समा गए थे।उनकी रचनाओं में गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित 974 शबद (19 रागों में), गुरबाणी में शामिल है- जपुजी, सोहिला, दखनी ओंकार, आसा दी वार, पात्ती, बारह माह आदि मुख्य हैं ।