आपातकाल आज भी अनौपचारिक रूप से देश में मौजूद है

aapatशैलेन्द्र चौहान
आपातकाल की चालीसवीं वर्ष गांठ के अवसर पर राजनीतिक विमर्श का एक दौर चल पड़ा है। लालकृष्‍ण आडवाणी के बाद अब पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी आपातकाल की संभावना से इंकार नहीं किया है। पीटीआई को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि ‘आज राजनीति में द्वेष और बदले की भावना बढ़ गई है। इस लिहाज से आपातकाल के डर से इंकार नहीं किया जा सकता। राजनीति में द्वेष और गलत भावनाएं भारतीय कानून और संविधान को खतरे में डाल सकती है। इस प्रकार की घटनाओं से आम लोगों के अधिकारों के हनन की संभावनाएं काफी बढ़ जाएंगी जो ‌बिल्कुल सही नहीं है। यह सिर्फ देश नहीं राज्य में भी हो सकता है। इससे आपातकाल लगने की संभावनाएं बढ़ जाएगी जो भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा है।’ लालकृष्‍ण आडवाण्‍ी की बात का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि आज राजनीति की स्थिति को देखते हुए किसी भी बात से इंकार नहीं किया जा सकता। आडवाणी ने अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस को दिए साक्षात्कार में यह कहकर पार्टी तथा सरकार को असमंजस में डाल दिया कि मौजूदा दौर में लोकतंत्र को दबाने वाली ताकतें सक्रिय हो गई हैं, जिससे आपातकाल की वापसी की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकार वंदिता मिश्रा ने जब लाल कृष्ण आडवाणी ने पूछा कि क्या आपको लगता है कि आपातकाल फिर से आ सकता है तो जवाब में आडवाणी ने कहा कि ‘मुझे नहीं लगता है कि ऐसा कुछ किया गया है जो मुझे आश्वस्त करता हो कि नागरिक अधिकार फिर से वंचित नहीं किये जाएंगे। उन्हें दोबारा समाप्त नहीं किया जाएगा। बिल्कुल ही नहीं किया गया है। आज आपातकाल के बारे में पर्याप्त जागरूकता नहीं है। प्रेस की आज़ादी और नागरिक स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता नज़र नहीं आती है। हमें लोकतंत्र की शक्तियों को मज़बूत करने की ज़रूरत है। हमे सिस्टम की खामियों के बारे में बात करना चाहिए। मैं इस बात से इनकार नहीं करता हूं कि भविष्य में आपातकाल नहीं आ सकता। इसके बारे में अंतिम रूप से अभी तक नहीं कहा गया है। हां, कोई इतनी आसानी से नहीं कर सकता है लेकिन मैं यह नहीं कह सकता हूं कि दोबारा नहीं होगा। मौलिक अधिकारों में फिर से कटौती हो सकती है।’ चर्चित पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता कुलदीप नैयर के अनुसार ‘आपातकाल भारतीय इतिहास का एक दुखद काल था, जब हमारी आजादी लगभग छिन-सी गई थी।’ दरअसल आपातकाल आज भी अनौपचारिक रूप से देश में अलग-अलग रूपों में मौजूद है, क्योंकि शासक वर्ग नौकरशाही, पुलिस और अन्य वर्गों के पूर्ण सहयोग से अधिनायकवादी और लोकतंत्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त है। इंदिरा गांधी के आपातकाल लागू करने से सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ था कि राजनीति और अन्य लोकतांत्रिक संस्थानों में नैतिक मूल्यों का क्षरण हो गया था। उस रुझान में आज तक बदलाव नहीं आ पाया है। इंदिरा गांधी कानून के ऊपर हो गई थीं। प्रेस का गला घोट दिया गया था। राजनीतिक नेताओं से लेकर सामान्य जनता तक, एक लाख लोगों को बिना किसी आरोप के हिरासत में ले लिया गया था। श्रीमती गांधी और उनके बेटे संजय गांधी के उस कदम से अधिनायकवादी और संविधानेतर शासन के एक अध्याय की शुरूआत हो गई।”
1975 की तपती गर्मी के दौरान अचानक भारतीय राजनीति में भी बेचैनी दिखी। यह सब हुआ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले से जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन इंदिरा गांधी ने इस फ़ैसले को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई। मामला 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। उनकी दलील थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया, तय सीमा से अधिक खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ग़लत तरीकों का इस्तेमाल किया। अदालत ने कुछ  बड़े आरोपों  से साक्ष्य  आभाव में उन्हें मुक्त कर  दिया लेकिन कुछ आरोपों को सही ठहराया। यद्दपि जिन आरोपों के आधार पर यह निर्णय दिया गया था वे आरोप बहुत हलके थे। इसके बावजूद इंदिरा गांधी ने गद्दी नहीं छोड़ी। कांग्रेस पार्टी ने भी बयान जारी कर कहा कि इंदिरा का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है। आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, “जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे ख़िलाफ़ गहरी साजिश रची जा रही थी।” आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा क़ानून (मीसा) के तहत राजनीतिक विरोधियों की गिरफ़्तारी की गई, इनमें जयप्रकाश नारायण, जॉर्ज फ़र्नांडिस और अटल बिहारी वाजपेयी, मोरार जी देसाई, चन्द्र शेखर, मोहन धारिया, रामधन, कृष्ण कान्त आदि शामिल थे। वह दिन अचानक नहीं आया था। धीरे-धीरे इसकी हवा बनी थी। पहले तो जनवरी 1974 में गुजरात में अनाजों व दूसरी जरूरी चीजों की कीमतों में वृद्धि हुई जन आक्रोश फैला। वह छात्रों के असंतोष के रूप में सामने आया। फिर इसका दायरा तेजी से बढ़ता गया। विपक्षी दल भी इसमें हिस्सा लेने लगे। पूरे राज्य में हंगामों का दौर शुरू हो गया। दूसरी तरफ मार्च 1974 में बिहार के छात्र भी सड़क पर उतर आए। छात्रों के बुलावे पर राजनीति से संन्यास ले चुके जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का नेतृत्व संभाला। तब उन्होंने इसे संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। 1973 से 1975 का वह दौर आतंरिक उथल पुथल का दौर था। श्रमिक हड़तालें हो रही थींं, भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन हो रहेेेे थे। नागरिक व्यवस्था चरमरा गई थी। जनअसंतोष चरम पर था। असल में इंदिरा गांधी जब 1966 में प्रधानमंत्री बनी थीं तब कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा कमजोर हो चुका था। के कामराज, एस के पाटिल और मोरारजी देसाई जैसे वृद्ध नेताओं ने यह सोचा था कि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बना कर वे ही पीछे से राज करेंगे।  कुछ दिन यह चला। राम मनोहर लोहिया ने उन्हें गूंगी गुड़िया कहना शुरू कर दिया था। लेकिन शीघ्र ही यह गूंगी गुड़िया राजनीति में दक्ष हो गई। कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो चुकी थी, श्रीमती गांधी के नेतृत्व में समाजवादी और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में रूढ़ि वादी। 1967 के चुनाव में आंतरिक समस्याएँ उभरी जहां कांग्रेस ने कोई 60 सीटें खोकर 545 सीटोंवाली लोक सभा में 297 स्थान प्राप्त किए। उन्हें देसाई को भारत के उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के रूप में लेना पड़ा। 1969 में देसाई के साथ अनेक मुददों पर असहमति के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस विभाजित हो गयी। इंदिरा गांधी ने बैंकों का, बीमा कंपनियों और कोयला कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण किया।1970 में प्रिवीपर्स समाप्त किया। 1971 में पाकिस्तान से बंगला देश को स्वतंत्र करा अलग राष्ट्र की मान्यता दिलाई। दूसरी ओर गरीबी हटाओ का लोकलुभावन नारा दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ 1971 में हुए चुनाव में इंदिरा गांधी ने भारी बहुमत हासिल किया। उन्हें 518 में से 352 सीटें प्राप्त हुईं। इसके बाद इंदिरा गांधी का उतार शुरू हो गया। उनमें तानाशाही की प्रवृत्तियां प्रबल हो उठीं। इसमें संजय गांधी की भूमिका भी अहम थी। इसका भयानक रूप 1975 में आपातकाल की घोषणा के रूप में सामने आया। कुछ ही महीने के भीतर दो विपक्षीदल शासित राज्यों गुजरात और तमिल नाडु पर राष्ट्रपति शासन थोप दिया गया जिसके फलस्वरूप पूरे देश को प्रत्यक्ष केन्द्रीय शासन के अधीन ले लिया गया।[11] पुलिस को कर्फ़्यू लागू करने तथा नागरिकों को अनिश्चितकालीन रोक रखने की क्षमता सौंपी गयी एवं सभी प्रकाशनों को सूचना तथा प्रसारण मंत्रालय के पर्याप्त सेंसर व्यवस्था के अधीन कर दिया गया। इन्द्र कुमार गुजराल ने अपने काम में संजय गांधी की दखलंदाजी के विरोध में सूचना और प्रसारण मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। अंततः आसन्न विधानसभा चुनाव अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिए गए तथा सम्बंधित राज्य के राज्यपाल की सिफारिश पर राज्य सरकार की बर्खास्तगी के संवैधानिक प्रावधान के अलोक में सभी विपक्ष शासित राज्य सरकारों को हटा दिया गया। इंदिरा गांधी ने अपने लिए असाधारण अधिकारों की प्राप्ति हेतु आपातकालीन प्रावधानों का इस्तेमाल किया।
आज जो आपातकाल की बात उठ रही है तो उसके पीछे कुछ तथ्य भी हैं। भाजपा सरकार ने विपक्ष और राज्य सभा की अवहेलना की और कई अध्यादेश  ले आई। अध्यादेशों पर पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं कि सरकार द्वारा हड़बड़ी में लाए गए अध्यादेश उनके नवउदारवादी एजेंडे और औद्योगिक घरानों के प्रति उसके लगाव को दर्शाते हैं। भूअधिग्रहण और बीमा क्षेत्र में लाए गए अध्यादेश का एकमात्र मकसद कॉर्पोरेट घरानों के मुनाफे को बढ़ाना है। यह आम जनता के विरोध में लिया गया फैसला है। साथ ही परंजॉय के हिसाब से ये लोकतांत्रिक चरित्र पर भी हमला है क्योंकि भाजपा सरकार संविधान के मूल ढांचों में फेरबदल के लिए अध्यादेश का रास्ता अपना रही है। असहमति रखने वाले लोगों,  समूहों , संस्थाओं और राज्य सरकारों पर दुर्भावनापूर्ण आक्रमण हो रहे हैं। आई आई टी मद्रास के ‘आंबेडकर पेरियार समूह’ पर प्रतिबन्ध, दिल्ली सरकार साथ सौतेला व्यवहार, मोहन भागवत को ज़ेड प्लस सुरक्षा मुहैया करना (जिन्हें आज तक किसी क़िस्म की असुरक्षा नहीं रही), बिहार में बागी मुख्यमंत्री को भड़का कर उनका उपयोग करना, सेंसर बोर्ड, शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में मंतव्य पूर्ण हस्तक्षेप, मित्र अपराधी, आरोपियोंं को संरक्षण आदि घटनाएं ठीक इंदिरा गांधी की अलोकतांत्रिक कार्यशैली की यादें ताजा करती हैं। सत्ता की शक्ति पूर्णतः एक व्यक्ति में केंद्रित हो गई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज मीडिया पूरी तरह केंद्रीय सत्ता के प्रभाव में है। आजतक चैनेल के संयोजक पुण्य प्रसून बाजपेयी का मत  है कि ‘क्या मौजूदा वक्त में मीडिया इतना बदल चुका है कि मीडिया पर नकेल कसने के लिये अब सरकारों को आपातकाल लगाने की भी जरुरत नहीं है। यह सवाल इसलिये क्योंकि चालीस साल पहले आपातकाल के वक्त मीडिया जिस तेवर से पत्रकारिता कर रहा था आज उसी तेवर से मीडिया एक बिजनेस मॉडल में बदल चुका है, जहां सरकार के साथ खड़े हुये बगैर मुनाफा बनाया नहीं जा सकता है। और कमाई ना होगी तो मीडिया हाउस अपनी मौत खुद ही मर जायेगा। यानी 1975 वाले दौर की जरुरत नहीं जब इमरजेन्सी लगने पर अखबार के दफ्तर में ब्लैक आउट कर दिया जाये। या संपादकों को सूचना मंत्री सामने बैठाकर बताये कि सरकार के खिलाफ कुछ लिखा तो अखबार बंद हो जायेगा। या फिर पीएम के कसीदे ही गढ़े। अब के हालात और चालीस बरस पहले हालात में कितना अंतर आ गया है?’ आज हालात चिंताजनक हैं जो भविष्य की ओर यह इंगित करते हैं कि आगे एक कठिन समय आ सकता है। इन स्थितियों के मद्देनजर यह आशंका स्वाभाविक है कि कोई आपात स्थिति जन्म न ले ले। अतः देश की जनता को सावधान रहने की आवश्यकता है।

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