‘इमोशनल अत्याचार’ के फिर शिकार हुए अमर सिंह

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-निर्मल रानी

अमर सिंह का अपना जनाधार हो या न हो, राजनैतिक कौशल भी चाहे कुछ न रहा हो परंतु इसके बावजूद मीडिया की नारें उन पर बराबर बनी देखी जा सकती हैं। इसे महा अमर सिंह का मीडिया मैनेजमेंट ही माना जा सकता है। निश्चित रूप से वे अपने को राष्ट्रीय स्तर पर ‘हाईलाईट’ करने तथा अपनी मार्केटिंग स्वयं करने में ‘मास्टर’ रहे हैं। परंतु राजनीति वास्तव में होती क्या है यह उनके मुंह बोले बड़े भाई अमिताभ बच्चन को तो 25 वर्ष पूर्व समझ आ चुकी थी परंतु अमर सिंह को राजनीति शायद अब समझ आ रही है। अमर सिंह 1956 में आजमगढ़ के एक मध्यवर्गीय राजपूत परिवार में पैदा हुए। प्रारंभिक शिक्षा आजमगढ़ में लेने के बाद कोलकाता चले गए तथा आगे की शिक्षा वहीं ग्रहण की। धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के समर्थक होने के नाते शुरु में इनका झुकाव कांग्रेस पार्टी की ओर हुआ तथा वे प्रणव मुखर्जी के नजदीकी सहयोगियों में शामिल हो गए। बहुत तेजी से बड़े लोगों के संपर्क में आने की शुरु से ही चाह रखने वाले अमर सिंह ने धीरे-धीरे माधवराव सिंधिया से अपने घनिष्ठ संबंध स्थापित कर लिए। अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत इन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य की हैसियत से की। कांग्रेस पार्टी में मनचाहा किरदार अदा न कर पाने के चलते पार्टी में महसूस होने वाली घुटन के कारण 1995में अमर सिंह मुलायम सिंह यादव के विशेष सहयोगी के रूप में समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। यह सच है कि अमर सिंह समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि अतिविशिष्ट लोगों से संबंध बनाने की इनकी महारत ने समाजवादी पार्टी को कांफी फायदा पहुंचाया। अनिल अंबानी, सुब्रतोराय, बच्चन परिवार, जयाप्रदा, संजय दत्त जैसी देश की मशहूर हस्तियों को सपा से जोड़ने का काम अमर सिंह ने ही किया। परंतु इस दौरान वे यह भूल गए कि जिन शख्सियतों को वे मुलायम सिंह यादव तथा उनकी समाजवादी पार्टी के साथ जोड़ रहे हैं वे आख़िरकार अपनी स्वतंत्र सोच भी रखते हैं। और वे किसी कीमत पर अमर सिंह की कठपुतली हरगिज नहीं हैं। बेशक अमिताभ बच्चन पर आए आर्थिक संकट के समय अमर सिंह ने उनका पूरा साथ दिया था। परंतु उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि यह बात अब एक तो दो दशक पुरानी पड़ चुकी है और दूसरे यह कि अमिताभ बच्चन की नजदीकी ने ही अमर सिंह को प्रसिध्दि के उस मुकाम तक पहुंचा दिया है जिसपर शायद यह लाख तिकड़म के बावजूद भी अपने अकेले दम पर कतई नहीं पहुंच सकते थे। यहां एक बात और काबिलेंगौर है कि भले ही मुलायम-अमिताभ रिश्तों को अमर सिंह ने क्यों न हमवार किया हो, परन्तु बाद में कई बार देखा यह भी गया कि अमिताभ बच्चन ने मुलायम सिंह यादव को सार्वजनिक रूप से अपने पिता तुल्य कहकर संबोधित किया। अब यह अमर सिंह को स्वयं सोचना चाहिए कि वही अमिताभ बच्चन तथा उनका परिवार मुलायम सिंह यादव को मात्र अमर सिंह के चलते क्योंकर पीठ दिखा सकता है।

जिन मुद्दों को सार्वजनिक रूप से उठाते हुए अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी के महासचिव पद से तथा पार्टी की अन्य सभी जिम्मेदारियों से 6 जनवरी 2010 को त्यागपत्र दिया था तथा बाद में पार्टी द्वारा भी उन्हें निष्कासित करने की घोषणा कर दी गई थी वे सुनने में भले ही ऐसे प्रतीत हो रहे थे गोया अमर सिंह सपा में बढ़ते परिवारवाद के विरुद्ध परचम बुलंद कर रहे हों। परन्तु वास्तव में जहां वे सपा के लिए कुछ पूंजीपतियों व फिल्मी नायक-नायिकाओं को जोड़ने में सफल रहे तथा पार्टी को इसका काफी लाभ भी दिलाया, वहीं इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इनके इन्हीं प्रयासों ने समाजवादी पार्टी पर समाजवाद की पक्षधर होने के बजाए कॉर्पोरेट तथा फिल्मी सितारों की पार्टी होने का लेबल भी लगा दिया।

विवादों का भी अमर सिंह से गहरा नाता रहा है। सपा से राजबब्बर तथा आजम ख़ां जैसे दमदार नेताओं की बिदाई का कारण भी अमर सिंह ही हैं। धर्म निरपेक्षता का दम भरने वाले अमर सिंह पर ही इस बात के लिए भी उंगली उठ चुकी है कि उन्होंने कल्याण सिंह जैसे साम्प्रदायिक नेता को समाजवादी पार्टी की ओर ले जाने की राह तैयार की। दिल्ली के बटला हाऊस में हुई विवादित पुलिस मुठभेड़ में भी इनका नाम उस समय सुर्खियों में आया जबकि पहले तो इन्होंने घटनास्थल पर शहीद हुए दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा के परिजनों को अपनी ओर से मदद पहुंचाने हेतु दस लाख रुपए का चेक भेंट किया। बाद में बैंक ने किन्हीं त्रुटियों के चलते उस चेक को कैश नहीं किया। इसी बीच अमर सिंह ने उसी शहीद इंस्पेक्टर की शहादत पर ही उंगली उठा दी। और फिर ऐसे में शहीद इंस्पेक्टर के परिवार वालों ने इनसे पुन: कोई धनराशि लेने से इन्कार कर दिया। जब मुकेश तथा अनिल अंबानी बंधुओं के मध्य संपत्ति के बंटवारे को लेकर विवाद बढ़ा, उस समय भी अमर सिंह की भूमिका पर उंगलियां उठ रही थीं। अमिताभ बच्चन तथा गांधी परिवार के बीच बढ़ते फासले के कारण भले ही उनके अपने व्यक्तिगत् क्यों न हों परंतु इन परिवारों में फासला और अधिक बढ़ाने में कभी-कभी अमर सिंह की भूमिका होने पर भी संदेह होता रहा है।

राष्ट्रीय राजनीति में अमर सिंह ने अपनी महत्वपूर्ण पहचान उस समय बनाई थी जबकि भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के विरोध में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की पिछली सरकार से संप्रग को समर्थन दे रही वामपंथी पार्टी ने अपना समर्थन वापिस लिया था। उस समय समाजवादी पार्टी ने अप्रत्याशित रूप से अपने 39 सदस्यों के साथ कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह की सरकार को अपना समर्थन देकर सरकार गिरने से बचा लिया था। कांग्रेस-सपा की इस डील में निश्चित रूप से अमर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। राजनैतिक गलियारों से अब यह खबरें पिछले कुछ दिनों से आ रही हैं कि शायद अपने उसी किरदार के ‘सदंके’ में कांग्रेस पार्टी अमर सिंह पर कुछ नारे इनायत कर दे तथा कोई महत्वपूर्ण पद एवं बड़ी जिम्मेदारी की भूमिका अदा करने का उन्हें अवसर प्रदान करे। परंतु अमर सिंह को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जहां उनके शौक़ को पूरा करते हुए उनके द्वारा ‘मैनेज’ किए गए मीडिया ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलवाई है, वहीं साथ ही साथ इसी मीडिया ने उनकी राजनैतिक कार्यशैली तथा उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा से भी पूरे देश विशेषकर सभी राजनैतिक दलों के नेताओं को भी परिचित करवा दिया है। लिहाजा पार्टी में अमर सिंह को नम्बर दो बनाने की जो गलती मुलायम सिंह यादव ने की थी, शायद वही गलती कोई और पार्टी अब हरगिा नहीं दोहराना चाहेगी।

वैसे भी अमर सिंह की ‘राजनैतिक कीमत’ का अब कोई आधार बनता भी नजर नहीं आ रहा है। जया बच्चन ने जिस प्रकार समाजवादी पार्टी की ओर से राज्‍यसभा की सदस्य होना पुन: स्वीकार किया है, उससे अब यह और भी सांफ हो गया है कि बच्चन परिवार अमर सिंह के इशारों पर चलने वाला हरगिज नहीं है। खासतौर पर राजनैतिक फैसलों को लेकर तो बिल्कुल नहीं। पिछले दिनों इसके संकेत तभी मिलने शुरु हो गए थे जबकि अमिताभ बच्चन ने नरेंद्र मोदी के निमंत्रण को स्वीकार करते हुए गुजरात राज्‍य का ब्रांड अंबैसेडर बनने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। जाहिर है अमिताभ ने यह फैसला न तो अमर सिंह के कहने पर लिया था और न ही उनके मना करने पर वे अपने इस फैसले को बदलने वाले थे। धर्मनिरपेक्ष विचारधारा रखने वाले वर्ग ने अमिताभ के नरेंद्र मोदी के साथ खड़े होने के निर्णय को बड़े आश्चर्य से देखा था। परंतु दरअसल अमिताभ बच्चन ने अपने इस फैसले से यह जताने की कोशिश की थी कि वे कोई राजनैतिक व्यक्ति न होकर केवल एक पेशेवर मॉडल या अभिनेता हैं तथा अपनी इच्छा अनुसार वे किसी भी राज्‍य के निमंत्रण पर वहां के ब्रांड अम्बैसेडर बन सकते हैं। यही काम पहले उन्होंने उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के कहने पर किया था तो अब गुजरात में नरेंद्र मोदी के कहने पर उनके ब्रांड अम्बैसेडर बनने पर वे राजी हो गए हैं। वे अपने साक्षात्कार में यह भी कह चुके हैं कि वे स्वयं राजनीति से दूर हैं जबकि जया बच्चन राजनीति में सक्रिय हैं। जाहिर है यह कहकर उन्होंने राजनैतिक विवादों से अपना दामन सांफ रखने की पूरी कोशिश की है।

यूं भी अमर सिंह को यह याद रखना चाहिए था कि लगभग एक दशक से भी अधिक समय तक अमिताभ बच्चन को समाजवादी पार्टी की ओर झुकाए रखने बावजूद तथा जया बच्चन को सपा से राज्‍यसभा की सदस्यता पहली बार दिए जाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद भी वे अमिताभ बच्चन से कभी भी यह नहीं कहला सके कि वे समाजवादी पार्टी के सदस्य हैं अथवा पार्टी से जुड़े हैं। वे अमिताभ को अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद किसी राजनैतिक जनसभा में भी समाजवादी पार्टी के पक्ष में भाषण नहीं दिलवा सके। हां इसी की आड़ में अमर सिंह ने कई ऐसे सामाजिक कार्यक्रम अवश्य आयोजित किए जिनमें अमिताभ बच्चन ने कई बार शिरकत की।

बहरहाल चूंकि अमर सिंह अपने बचाव में अथवा किसी पर आक्रमण बोलने के समय अक्सर फिल्मी गीतों के मुखड़ों तथा लफ्फाजियों का सहारा लिया करते थे, लिहाजा अब एक बार जया बच्चन ने सपा की राज्‍य सभा सदस्यता की उम्मीदवारी स्वीकार कर स्वयं अमर सिंह को इस गीत का मुखड़ा गुनगुनाने के लिए मजबूर होना पड़े-तौबा……..तेरा इमोशनल अत्याचार।

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