अंग्रेजी ने बनाए ‘नए वंचित’ ‘नए ब्राह्मण’

मधु पूर्णिमा किश्वर संपादक, मानुषी

असमानता, भेदभाव और पिछड़ेपन के हल के रूप में आरक्षण पर चल रही मौजूदा बहस कुल जमा एक बिन्दू पर सिमटा दी गई है-क्या शैक्षिक आरक्षण जाति आधारित होना चाहिए अथवा उसमें आर्थिक पक्ष भी शामिल किया जाना चाहिए? इन दोनों विकल्पों के पीछे एक गलत धारणा यह है कि भारत में किसी के लाभ से वंचित होने के दो ही आयाम हैं-एक, ऐसी जाति या जनजाति में पैदा होना जो सरकारी कागजों में पिछड़ी या वंचित, के रूप में दर्ज है, अथवा#और दूसरा एक गरीब परिवार में पैदा होना।

इस पूरे मामले में हम आधुनिक भारत में महत्वपूर्ण अवसरों से वंचित होने अथवा किए जाने के पीछे विशेष पहलू को अनदेखा कर रहे हैं। आज हमारे समाज में विशेष शैक्षिक संस्थानों तक किसी व्यक्ति की पहुंच को निर्धारित करने वाला, और इस तरह आर्थिक और सामाजिक उन्नति का महत्वपूर्ण रास्ता, एकमात्र प्रभावी आयाम है अंग्रेजी भाषा को सुगमता से प्रयोग कर पाने की उसकी काबिलियत। ऊंचे रसूख वाले सामाजिक-आर्थिक दायरों से जुड़ने का यही एक करिश्माई तरीका है।

केवल अंग्रेजी भाषा के जरिए ही भारत की आधुनिक अर्थव्यवस्था को चलाकर ब्रिटिश शासन में पनपे और आज सत्ता में बैठे मठाधीशों ने शेष समाज पर अपना सिक्का जमाए रखने कि लिए सुनिश्चित कर लिया है कि ज्यादातर भारतीय अंग्रेजी में महारथ हासिल न कर पाए जिसके परिणामस्वरूप फर्राटे से अंग्रेजी प्रयोग कर पाने वालों का हमेशा से अकाल ही रहा है। अंग्रेजी का थोड़े-बहुत ज्ञान होने पर भी कोई व्यक्ति रोजगार की प्रतियोगिता में खास लाभ पाता है जबकि वे चंद लोग जिनकी अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ है, वे शाही खानदान के लोगों जैसा बर्ताव करते हैं और उनके साथ भी शाही व्यवहार किया जाता है। उनके लिए निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में ऊंचे वेतन के पसंदीदा रोजगार उपलब्ध रहते हैं, चाहे उनकी कैसी भी योग्यता, जाति या वर्ग हो। बाकी सबब जिनके पास यह कौशल नहीं होता, उन्हें नाकारा महसूस कराया जाता है, तब वे अपने पर से भरोसा ही खो बैठते हैं। यह जादुई कौशल हासिल करने में असफल रहने वाले न तो किसी उच्च शिक्षण संस्थान की प्रवेश परीक्षा पास कर सकते हैं, न ही कोई इज्जतदार रोजगार पा सकते हैं। कोई लड़का या लड़की मराठी, हिन्दी या असमिया की अच्छी विद्वान ही क्यों न हो, उसे महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश या असम की भाषायी सीमाओं के भीतर भी चपरासी से बेहतर काम के लिए उपयुक्त नहीं माना जाएगा। कोई व्यक्ति भले वनस्पति विज्ञान या भारतीय शिल्पकला या खगोल विज्ञान का गहन जानकार हो सकता है पर इससे वह किसी बड़े कालेज, महाविद्यालय में इन्हीं विषयों में दाखिला नहीं पा सकता।

विशेषाधिकार का पासपोर्ट आखिर ऐसा क्यों है कि भेदभाव और खुद को कुछ खास मानने की सोच के इतने बेढब फैलाव को देखकर भी हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है जबकि इसके खिलाफ बढ़-चढ़कर भाषण देने वालों की बातों में हमेशा से ही, जाति और वर्ग प्रमुखता से सुनाई देते रहे हैं? जातिगत दुरावों के आम चलन के बावजूद हमें सरकारी और निजी क्षेत्र में ऊंचे पदों पर अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोगों के बैठे होने के अनेक उदाहरण दिख जाएंगे। लेकिन हमें यह कहीं सुनने को नहीं मिलेगा कि फलां फलां व्यक्ति ने अंग्रेजी में एक खास महारथ हासिल किए बिना किसी आई.आई.टी. या किसी अन्य ऊंचे दर्जे के मेडिकल, इंजीनियरिंग या प्रबंधन संस्थान में दाखिला पाया हो अथवा यह भी नहीं सुनाई देगा कि हमारी अर्थव्यवस्था के किसी आधुनिक क्षेत्र- सरकारी या निजी- में ऊंचा ओहदा पाया हो।

अगर आपको मेडिकल स्कूल में सफलता चाहिए तो आपको अंग्रेजी आनी ही चाहिए-चाहे आप गांव में डाक्टरी करना चाहें या शहरी भारत में, जहां आपके बहुत कम मरीज शायद अंग्रेजी बोल पाएं। अगर आप वास्तुकार का प्रशिक्षण चाहते हैं तो अंग्रेजी की जानकारी होनी जरूरी है, यहां तक कि स्कूल आफ आर्किटेक्चर में दाखिले की अर्जी भरने के लिए भी। जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते उन्हें ओछा माना जाता है जो आधुनिक समाज या अर्थव्यवस्था के खांचे में प्रवेश के लायक नहीं हैं।

एक शैतानी विभेद भारतभर में अंग्रेजी बोलने वाला यह विशिष्ट वर्ग नौकरशाही, राजनीति, सशस्त्र बलों, उद्योग-व्यवसायों और अन्य व्यावसायिक क्षेत्रों में ऊंचे ओहदों पर बैठा है। इसी कारण यह बहुत छोटा सा विशिष्ट वर्ग ही ज्यादातर मुद्दों पर, चाहे सामाजिक हों, विधायी, रक्षानीति, कृषि नीति, शैक्षिक हों या चुनाव सुधार से जुड़े, हर तरह की बौध्दिक चर्चा-वार्ता पर छाया रहता है। वे ऐसा दिखाते हैं मानो राष्ट्रीय महत्व के तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनका दृष्टिकोण ही समूचे देश की सोच की झलक है और क्षेत्रीय भाषाओं के विशिष्टजन एक संकुचित जातिगत और बांटने वाली सोच दर्शाते हैं। वे अंग्रेजी को आधुनिकता की भाषा के रूप में पेश करते हैं और जिनकी जड़ें स्थानीय भाषाओं में हैं उन्हें पूर्व-आधुनिक, परम्परावादी, प्रगतिविरोधी, यहां तक कि निराशावादी दृष्टिकोण के बचे-खुचे प्रतिनिधियों की तरह पेश किया जाता है। वे चाहे कितना ही खुद को राष्ट्रवादी दिखाते हों, भारत के आधुनिकीकरण के तमाम प्रकल्पों में उसी औपनिवेशिक भाषा के प्रयोग पर आमदा रहते हैं और खुद को राष्ट्रीय एकता और संस्कृति के रखवाले, और तो और, बौध्दिक प्रखरता और प्रगति के एकमात्र पुरोधा घोषित करते हैं। वे जनता के लिए एकमात्र भूमिका तय करते हैं कि वह प्रगति और आधुनिकता के उनके दृष्टिकोण को बिना चूं-चपड़ किए स्वीकार करे, जिसमें जनता की अपनी सांस्कृतिक विरासत का बड़ी मात्रा में क्षरण भी जुड़ा होता है।

अंग्रेजीदां वर्ग का प्रभुत्व चूंकि केन्द्रीकृत राज्य ढांचे को बनाए रखने पर आधारित है, अत: राजनीतिक विकेन्द्रीकरण के सभी अभियानों को राष्ट्रीय एकता पर खतरे के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। बहरहाल, चूंकि इस विशिष्ट वर्ग की भारतीय समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक जड़ें नहीं होतीं, उनकी जीवनशैली तथा इच्छाएं पश्चिमी दुनिया की तरफ झुकी रहती हैं, इस कारण हमारे जैसे विविध और जटिल समाज पर शासन करने की योग्यता उनमें नहीं होती। इसी वजह से जो कानून वे बनाते हैं, उनका पालन उल्लंघन करके होता है; जिस सरकार के तंत्र पर वे अधिष्ठित रहते हैं, वह भ्रष्टाचार, अयोग्यता और संकटों से भरा रहता है। चूंकि सामाजिक सुधार के उनके जुमले एक विदेशी भाषा में गुंथे रहते हैं और एक वैदेशिक ढांचे का प्रयोग करते हैं, सामाजिक सुधार के उनके सुझाए कदम आमतौर पर प्रतिरोध पैदा करते हैं या हद से हद कागज तक सीमति रहते हैं।

‘नए ब्राह्मण’ भारत की आजादी के बाद भी व्यावसायिक और सरकारी दफ्तरों की जरूरत के लिए विशिष्ट शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को बरकरार रखकर हमने अपने औपनिवेशिक आकाओं द्वारा जान-बूझकर पैदा की गई अंग्रेजी पढ़े-लिखे और शेष समाज के बीच खाई को और बढ़ाने की पक्की व्यवस्था कर ली है। यह प्रवृत्ति आगे चलकर हमारे अधिकांश लोगों की बुध्दि, आत्मा और स्वाभिमान को नष्ट करने जैसे खतरनाक आयाम ले चुकी है। अंग्रेजी आधारित शिक्षा जो खासियत उपलब्ध कराती है वह अधिकांशत: जाति और वर्ग के परम्परागत भेदों को भी पीछे छोड़ जाती है।

पारम्परिक ब्राह्मण उच्च बौध्दिक ज्ञान के अर्जन में, देवी-देवताओं को समर्पित मंत्रोंच्चारण और कुछ धार्मिक अनुष्ठानों में मुख्यत: संस्कृत का प्रयोग करते थे। ‘नए ब्राह्मण’ अपने कुत्तों और नवजात शिशुओं से बात करते समय भी अंग्रेजी बोलते हैं। वे यही चाहते हैं कि उनके बच्चे अपनी नर्सरी की कविताएं अंग्रेजी में सीखें। स्थानीय भाषा का प्रयोग तो वे तभी करते हैं जब घर के नौकर-चाकरों को आदेश देना होता है। पुराने ब्राह्मण वर्ग की ताकत को प्रभावी रूप से उन महिलाओं और कथित छोटी जात के लोगों द्वारा चलाए विभिन्न भक्ति आंदोलनों से चुनौती मिली जो संस्कृतवादी वर्ग के प्रभुत्व को नकार कर अपने इष्ट से अपनी मातृभाषा में ही संवाद पर जोर देते हैं। आज उन्हीं जातियों के उत्तराधिकारी अंग्रेजी भाषा के प्रति इतना आकर्षण रखने लगे हैं कि उन्होंने भी इसके सामने दण्डवत करना सीख लिया है।

वे ऐसा इसलिए करते हैं क्यों कि वे देख रहे हैं कि अगर आप एक खास तरीके और अंदाज में अंग्रेजी बोल सकते हैं तो आपको विशिष्ट सामाजिक और सांस्कृतिक वर्ग के दायरे में तुरन्त प्रवेश मिलता है। दूसरी ओर भले ही आप किसी ऊंची जात से न आते हों, अगर अंग्रेजी नहीं बोल सकते तो आपके लिए सभी दरवाजे सदा बंद ही रहते हैं। उन्हें तो ओछे प्राणियों जैसा मान लिया जाता है।

बहुत कम ऐसा होता है कि लोग मुझसे मेरी जाति के बारे में पूछते हैं। वे सीधे-सीधे मानकर चलते है कि चूंकि मैं पब्लिक स्कूल के अंदाज में अंग्रेजी में बोलती हूं तो मैं ऊंची जाति से ही हूं। यह विडम्बना ही है कि अंग्रेजी के बढ़ते बोलबाले द्वारा हो जा रहे नुकसान की ओर ध्यान खींचने के लिए मुझे अंग्रेजी में लिखना पड़ रहा है। अगर मैं यही चीज किसी स्थानीय भाषा में लिखती और अंग्रेजी में एक खास स्तर की योग्यता नहीं रखती तो मेरी यह आलोचना किसी अयोग्य व्यक्ति कीर् ईष्या से उपजी अभिव्यक्ति कहकर नकार दी गई होती।

कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी जाति कितनी ऊंची है, कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके परिवार के पास जमीन कितनी है, अगर आपके गांव में पड़ोस में कहीं अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं है, तो आपके बच्चे रोजगार के बाजार में सबसे पिछले छोर पर होंगे। यहीं कारण है कि पंजाब, उत्तर-प्रदेश और हरियाणा के जाटों के बेटे, जो बड़ी-बड़ी जमीनों के मालिक हैं और इन प्रदेशों की राजनीति में बड़े वर्गों से जुड़े हैं, अगर उनके परिवार गांव में ही रह रहे हैं और वहां अच्छे अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं हैं तो वे बस-कंडक्टर या ड्राइवर बनकर रह जाते हैं। यही कारण है कि गरीबी के मारे अपने गांवों, जहां अच्छे अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं हैं, से शहरों में आने के बाद कई ब्राह्मण गलियों में सामान बेचते, पान-बीड़ी की दुकान लगाते, सब्जी या और कोई छोटी-मोटी चीजें बेचते हुए मिल जाते हैं।

इससे उलट, रांची जैसे कुछ जिलों में, जहां मिशनरी गांव और शहरों में चलने वाले सरकारी स्कूलों से बेहतर स्कूल चलाते हैं, रहने वाले ईसाई लड़के-लड़कियों के पास उन ऊंची जात के युवा लड़के-लड़कियों की तुलना में बेहतर शिक्षा और बेहतर रोजगार के अवसर होते हैं। कोई व्यक्ति जो भले ही किसी जाति में जन्मा हो, अगर मॉडर्न स्कूल या सेंट स्टीफन्स कालेज में पढ़ा-लिखा है तो आसानी से ऑल इंडिया सुपर कास्ट के सदस्य के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है और इस तरह उसके पास केवल जन्म से अपनी ऊंची जात की मुख्य योग्यता रखने वालों की तुलना में कई अधिक अवसर रहते हैं।

ज्यादातर पढ़े-लिखे लोगों ने इस स्थिति को अब ‘साधारण’ मान लिया है और उनके लिए यह चिन्ता या चेतावनी जैसी बात नहीं है। बहरहाल, इस परिस्थिति की बुराई और अन्याय तब स्पष्ट दिखता है जब हम अपने आस-पास देखते हैं और पाते हैं कि दुनिया में ऐसे देश ज्यादा नहीं हैं जहां लोगों को एक विदेशी भाषा में शिक्षा न पाने के कारण अपनी ही मातृभूमि में इतने अधिक दुराव और अयोग्यता के आरोपों को झेलना पड़ता है। क्रमश:

दूसरा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें :

अंग्रेजी के ताले में बंद भारत का विकास-2

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