अंग्रेजी बनाम हिन्दी ‘गुलामी की हद नहीं तो और क्या है?’

गांधीजी ने हिन्द स्वराज में कहा था- ‘हिन्दुस्तान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं, बल्कि हिन्दी है। वह आपको सीखनी होगी और हम तो आपके साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे।‘ उन्होंने अपने बैरिस्टर होते हुए अंग्रेजी भाषा में बहस करने पर भी कटाक्ष किया था, ‘यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में मुझे इन्साफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। बैरिस्टर होने पर मैं स्वभाषा में बोल ही नहीं सकता। दूसरे आदमी को मेरे लिए तरजुमा कर देना चाहिए। यह कुछ कम दंभ है। यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है? इसमें मैं अंग्रेजों का दोष निकालूं या अपना? हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं। राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पडेगी, बल्कि हम पर पडेगी।‘

गांधीजी की हत्या हो गयी। और उनका सपना अभी भी सपना सरीखा ही है। लगातार लम्बी बहस के बाद अंततः 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया तबसे 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। फिर हिन्दी पखवाड़ा और जनता के दिये टैक्स के करोड़ो अरबों रुपये बैनर, पोस्टर, पुरस्कार और नास्ते में खर्च कर दिये जायेंगे। संविधान के अनुच्छेद 120, 210, 343-51 राजभाषा से सम्बन्धित है। राजभाषा का मतलब होता है राजकाज की भाषा। शासन की भाषा। प्रश्न उठता है आखिर भारत की राजभाषा हिन्दी है तो फिर न्यायालय से लेकर सरकारी दफ्तरों तक अंग्रेजी का जाप क्यों है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अंग्रेजी को लेकर भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 के (2) खंड (1) में प्राविधान है कि ”किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था” जोकि अभी भी है। आज भी शासकीय प्रयोजनों में अंग्रेजी का प्रयोग किया जा रहा है। यह तो रहा अंग्रेजी के मौजूदगी का कानून। समूचे देश में अंग्रेजी व्यवस्था को कायम रखने के लिए ही अंग्रेजों ने अपने इंडियन कान्स्यूक्वेंसियल प्रोविजन एक्ट 1949 पारित किया था। जिसमें साफ कहा गया है कि भारत आजाद होने के बाद अंग्रेजी व्यवस्था की सभी कानूनों (पुलिस एक्ट, पीनल कोड सरीखे लगभग 37540 कानून), व्यवस्था हुबहू लागू करेगा और उसमें परिवर्तन अपने संविधान में व्याप्त संविधान संशोधनों के अंतर्गत करेगा। देश आजाद हुआ लेकिन संविधान संशोधन का सहारा लेकर अभी भी मुलभूत परिवर्तन करने में असफल रहे हैं। अगर परिवर्तन हुआ भी है तो समुद्र में नमक के ढेले बराबर।

हमारे देश के विद्वान किसी विदेशी भाषा को अपनाकर सिर्फ इसीलिए भी गर्व कर रहे हैं क्योंकि उनका भाषिक रुआब कायम है जोकि उन्हंे सर्वहारा वर्ग से अलग करता है। और ये रुआबी लोग भुल जाते हैं कि देश का अहीत अंततः उनके ही अहीत के रूप में सामने आयेगा और आ भी रहा है। यह सर्वमान सिद्धान्त है कि समाज के सर्वहारा वर्ग का हित में ही सबका भला है। बदरूद्दीन तैय्यबी ने ठीक ही कहा था ”महारानी की करोड़ो जनता में से कोई अन्य लोग इतने राजभक्त नहीं, जितने भारतीय शिक्षित लोग“। ये वहीं शिक्षित लोग है जो अभी भी अंग्रेजी और उनकी नीतियों को अपने कंधो पर लेकर सवार है। अतः अंग्रेजों के यहां से चले जाने के बाद भी अंग्रेजी का 15 वर्षों तक राजकाज में रहने का नियम बन गया। देश तो आजाद हो गया लेकिन 67 वर्ष बाद भी लगभग 1 अरब 23 करोड़ की जनसंख्या में से अधिकतर लोग ट्रांसलेशन ही कर रहे है और न्यायालयों से लेकर कार्यालयों तक अपने मातृभाषा ज्ञान और अंग्रेजी के अल्प ज्ञानता अथवा अज्ञानता पर शर्मिन्दगी भी झेल ले रहे है। हिन्दी समाचार पत्रों को छोड़ दिया जाय तो बहुधा कार्पोरेट क्षेत्र में चहुंओर अंग्रेजी व्याप्त है। देश अंग्रेजीमय हो चुका है। अंग्रेजी एक तरह से रुआब की भाषा बन चुकी है। जैसे लोग लक्ज़री गाडि़यों, आलिशान बंगलों, बेशकीमती रत्नों, महंगे कपड़ों एवं अन्य कीमती उत्पादों को रुआब के लिए इस्तेमाल करते है, ठीक कुछ वैसे ही अंग्रेजी का रुआब हो गया है। और इनके रुआब का फल कोई और नहीं वरन भारत का सर्वहारा वर्ग झेल रहा है। यह वहीं वर्ग है जिसपर महंगाई, बेरोजगारी सरीखें अनकों मामलों की मार आये दिन पड़ रही है। भारत में मुख्यतः चार प्रकार के लोग है एक वो जो सरकारी लोग है। मंहगाई बढ़ती है तो उनके वेतन अपने आप बढ़ जाते है। दुसरे में ज्यादातर पूंजीपति और नेता हंै जो जनता को चूस-चूसकर इतनी चर्बी इकट्ठा कर चुके है कि इनकी सात पीढि़यों को भी कोई कष्ट नहीं होने वाला। चैथा है सर्वहारा वर्ग जो लाचार, बेबस और परेशान है। और यही वह वर्ग है जो अंग्रेजी से त्रस्त है।

हिन्दी को लेकर केन्द्र सरकार की ओर से कुछ अच्छे कदम उठाये तो गये जैसे राष्ट्रपति का आदेश 1960, राजभाषा नियम 1963, राजभाष संकल्प 1968, राजभाषा नियम 1976 आदि है। हिन्दी भाषा को लेकर राजभाषा अधिनियम 1963 की धारा 3(3) में एक महत्वपूर्ण नियम है ”सामान्य आदेश, अधिसूचनाएँ, संकल्प, नियम, संसद के समक्ष रखी जाने वाली प्रशासनिक रिपोर्टें, प्रशासनिक व अन्य रिपोर्टें, संविदाएँ, सरकारी कागजात, करार, अनुज्ञापन, परमिट, प्रेस विज्ञप्तियाँ, निविदा सूचना व निविदा फॉर्म संबंधी दस्तावेजों को के अनुसार द्विभाषी रूप में जारी किया जाना अनिवार्य है।“ को ही अगर केन्द्र सरकार के कार्मिक ईमानदारी से लागू कर दे तो हिन्दी की मजबूती अपने आप हो जायेगी। लेकिन सरकारी काम अंग्रेजी तरीके से होता है फिर उसका हिन्दी अनुवाद होता है। अतः अंग्रेजी को हटाने की बात सत्ता मंे विराजमान अंग्रेजी सोच का व्यक्ति नहीं कर सकता।

आज केन्द्र सरकार की वेबसाईटों, हमारे देश के इंजीनियरिंग कालेजों, मेडिकल कालेजों, कार्पोरेट सेक्टरों से लेकर हर उस जगह जहां तथाकथित शिक्षितों का वर्चस्व है वहां अंग्रेजी व्याप्त है। इतिहास गवाह है दुनिया के जितने भी देश है भारत को छोड़कर चाहे वह चीन, जापान अथवा अन्य देश हो सबने अपनी मातृभाषा को राजभाषा और राष्ट्रभाषा बनाया और इसका उन्हें फायदा ही नहीं मिल रहा वरन् समूचे वैश्विक पटल पर उनके झंडे को सम्मान के साथ देखा जा रहा है। उनके निर्यात, आर्थिक स्थिति से लेकर सभी व्यवस्थायें चुस्त दुरुस्त है। अदना सा देश जापान आज वैश्विक प्रतिद्वंद्विता में विकसित देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहा है, चीन वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी पहचान निरंतर बना ही रहा है। क्योंकि ये वो देश है जिन्होंने अपनी मां, अपने जमीन, अपनी भाषा का सम्मान किया। भारत अभी तक विश्व शक्ति होता लेकिन ट्रांसलेशन से कोई विश्व शक्ति नहीं बन सकता। क्योंकि मातृभाषा में ही हम सपने देखते है, विचारते है ट्रांसलेशन से नहीं। आज माईक्रोसाॅफ्ट, कोरल, एडोब से लेकर सभी साॅफ्टवेयर कंपनीया साॅफ्टवेयर की लाॅन्चिंग विश्व के सभी मुख्य भाषाओं के संस्करण में करती है। और उसका प्रयोग सभी देश अपने मातृभाषा में कर भी रहे है। सूचना क्रान्ति के इस दौर में अब भाषा की समस्या न के बराबर है। जहां गूगल ने मराठी, तमील से अन्य भारतीय भाषाओं के संस्करण चला रहा है वहीं हम आज भी अंग्रेजी का गुणगान किये जा रहे है। और इसका फल हम समाजिक विपन्नताओं के रूप में देख रहे है। हिन्दी मीडियम से एलएलबी, एम.ए., बी.ए. पास चपरासी की नौकरी के लिए बेहाल है। हमारे रुपये की कीमत तो गिर ही रही है, हमारे देश के डिग्रीयों की कीमत भी लगातार गिर रही है। एक तरफ हम अंग्रेजी को लगातार मजबूत करने में लगे है। देशभर के इंजीनियरिंग, मेडिकल कालेज से लेकर चहुंओर अंग्रेजी में पढ़ाई और अंग्रेजी का गुणगान है। न्यायालय से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनीयों तक अंग्रेजी की माया विद्यमान हैं। सभी नेता, नौकरशाह और रुआबधारी अपने बच्चों को अंग्रेेजी के चक्की का आंटा खिला रहे हैं तो फिर हम हिन्दी-हिन्दी क्यों चिल्ला रहे है। जब सभी मुख्य स्थानों पर अंग्रेजी ही व्याप्त हैं तो अब समय आ गया है या तो सर्वहारा वर्ग को भी अंग्रेजीमय किया जाये अथवा लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाते हुए अंग्रेजी को खत्म किया जाये। जब हम अखबार हिन्दी का पढ़ रहे हंै, जब सपने से लेकर 24 घंटे हिन्दी में ही बोल रहे है तो फिर हिन्दी को ही अन्य कार्यों के लिए क्यों न प्रयोग किया जाये? प्रयोग हो सकता है लेकिन तथाकथित महारानी के शिक्षित लोग जबतक नहीं चाहते है। हिन्दी भाषा का कुछ नहीं होने वाला। हिन्दी सिर्फ सर्वहारा और सपने की ही भाषा बनकर रह जायेगी।

विकास कुमार गुप्ताhindi

3 COMMENTS

  1. केंद्र सरकार में आनद शर्मा सरीखे लोगो ने हिन्दी विकास के लिए आवंटित धन का अधिकतम दुरुपयोग किया. हिन्दी के विकास के लिए सरकारी स्तर पर किए जा रहे प्रयास नाकाफी है. हिन्दी में उच्च शिक्षा की गारंटी दिए बगैर हिन्दी अपेक्षित उचाइयो को नहीं प्राप्त कर सकती.

  2. प्रिय विकास गुप्ता जी, नमस्कार!

    सच्चाई को उजागर करने व उचित राह पर सभी को चलने के लिए प्रेरित करने के लिए साधुवाद ।

    मुझे लगता है जन मानस का मानसाध्यात्मिक विकास भी हिन्दी व सभी मात्र भाषाओं के जानने वालों के हृदयों में मौलिक आत्म जागरण व भौतिक उन्नति स्थापित करने के लिए आवश्यक है तभी उनके उन्नत व संतृप्त हृदयों से साहित्य की सरिताएँ बहेंगी और संसार सार को प्राप्त होगा ।

    शुभ स्नेह व शुभ कामनाओं सहित

    गोपाल बघेल ‘मधु’

  3. विकास भाई, बहुत अच्छा लिखा है. यह जानकर अति प्रसन्नता हुई कि आप हिंदी के सिपाही हैं

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