वैदिक मतानुसार सृष्टय़ुत्पत्ति कालीन स्थिति

worldअशोक “प्रवृद्ध”

ईश्वरीय ज्ञान वेद के सृष्टय़ुत्पत्ति विचारधारा के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि एक इकाई है, जिसका प्रत्येक विभाग किसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिये बना है और वह अपने स्वरूप में दूसरे का पूरक है। एक के विना दूसरा चल नहीं सकता। वर्तमान में उपलब्ध संसार प्रारम्भ में भी इन समस्त जीवों और उनके सम्पूर्ण शरीररूपों के साथ ज्यों का त्यों विद्यमान था। न केवल सृष्टि के आरम्भ में, अपितु जब-जब सृष्टि बनती है, प्रत्येक सर्ग में ऐसा ही होता है। जिस प्रकार शरीर का संचालन जीव की उपस्थिति मात्र से होता है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड का संचालन ब्रह्म अथवा शक्ति विशेष से होता है । वेद में प्रलय और सृष्टय़ुत्पत्ति कालीन स्थितियों का विस्तृत वर्णनांकित है। ऋग्वेद में 10.72, 10.90, 10.129, 10.190 सूक्त सृष्टय़ुत्पत्ति सिद्धान्त के सम्बन्ध में विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। सृष्टिपूर्व स्थिति का वर्णन करते हुए नासदीयसूक्त ऋग्वेद 1.129.1 में कहा गया है कि उस समय न असत् था और न सत्। सत् और सत् के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए योगसूत्र के भाष्यकार महर्षि व्यास कहते हैं –
अ निस्सत्ता सत्त्वं निःसदसत् निरसत अव्यक्तमलिङ्गं प्रधानम्।
– योगदर्शन,2.19
अर्थात – प्रधान को असत् इसलिये नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसका अभाव नहीं है और सत् इसलिये नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसका लिङ्ग अर्थात् ज्ञापक चिह्न नहीं है।

प्रकृति की सत्ता पुरुष के भोग और अपवर्ग में निहित है और सर्ग से पूर्व प्रलयावस्था में पुरुष का पुरुषार्थ सुप्त रहता है। इसलिये प्रकृति सत् होते हुए भी असत् और असत् होते हुए भी सत् है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रकृति असत् इसलिये नहीं थी कि वह परमार्थ सत् है और सत् इसलिये नहीं थी कि उसका व्यवहार नहीं था। वेद में प्रलयकालीन अवस्था में असत् और सत् का निषेध किया गया है, जबकि छान्दोग्योपनिषद् में प्रलयकालीन स्थिति का वर्णन असत् से किया है।
असदेवेदमग्र आसीत्। -छान्दोपनिषद 3.19.1
आचार्य शंकर ने असत् को स्पष्ट करते हुए कहा है –
असदव्याकृतनामरूपमिदं जगदशेषमग्रे प्रागवस्थायामुपपत्तेरासीन्न त्वसदेव।
अव्याकृतनामरूपत्वादसदिवासीदिति।
आदित्यनिमित्तो हि लोके सदिति व्यवहारः।
– आचार्य शंकर, छान्दोपनिषद भाष्य ,3.19.1
अर्थात – प्रागवस्था में यह जगत् नामरूप वाला था, सर्वथा असत् अर्थात् शून्य नहीं था। जगत् असत् के समान असत् था अर्थात् शून्य की तरह निराकार था, न कि अभावरूप। जिस प्रकार अन्धकार में यह जगत् होते हुए भी नहीं के समान हो जाता है, उसी प्रकार प्रलयकाल में यह सत् होते हुए भी असत् होता है।

इसलिये आगे चलकर छान्दोग्यपनिषद 6.2.1 का ऋषि कहता है कि आरम्भ में यह एकमात्र अद्वितीय असत् ही था। उस असत् से सत् की उत्पत्ति हुई है। आचार्य शंकर असत् और सत् के मध्य सङ्गति बैठाते हुए कहते हैं –
न हि प्रागुत्पत्तेः नामवद्रूपवद्वेद्मि ग्रहीतुं शक्यं वस्तु सुषुप्तकाल इव।- आचार्य शंकर, छान्दोपनिषद भाष्य 6.2.1
अर्थात – जिस प्रकार सुषुप्ति में सत्ता का भाव तिरोहित हो जाता है और सुषुप्ति से उठने के बाद वह पुरुष सुषुप्तिकाल में भी वस्तु की सत्ता का अनुभव करता है, ठीक उसी प्रकार सत् और असत् के बीच सम्बन्ध है।

अतः, असत् अभाव का वाचक न होकर सत् की शून्य के समान सूक्ष्म और निराकार अवस्था का प्रतिपादक है। आचार्य सायण भी ऋग्वेदभाष्य,10.5.7 में असत् और सत् को क्रमशः अव्याकृत और व्याकृत अवस्था का वाचक मानते हैं। लेकिन नासदीयसूक्त ऋग्वेदभाष्य,10.129.2-3 में वे असत् का अर्थ देवादि करते हैं। तैत्तिरीय-संहिता के अनुसार –
इदं वा अग्रे नैव किंचनासीत्।
न द्यौरासीन्न पृथिवी नान्तरिक्षम्, तदसदेव सन्मनोऽकुरुत स्यामिति।- तैत्तिरीय-संहिता 2.2.9.1
अर्थात – प्रलयावस्था में कुछ भी नहीं था, न द्युलोक था, न अन्तरिक्ष और न पृथ्वी। उस असत् ने ही मन किया कि मैं अस्ति हो जाऊँ।

इस ब्राह्मण-वचन से स्पष्ट हो जाता है कि प्रलयावस्था में असत्, सत् और मनस्- ये तीन तत्त्व विद्यमान थे। अभिप्राय यह है कि उस समय असत् सत्ता रूप में विद्यमान था तथा मनस् ईक्षण या संकल्परूप होने से असत् का गुण है। ऋग्वेद में असत् और सत् को स्पष्ट करते हुए कहा गया है –
असच्च परमे व्योमन् दक्षस्य जन्मन्नदितेरुपस्थे।
अग्निर्ह न प्रथमजा ऋतस्य।- ऋग्वेद 10.90.4
अर्थात – ये दक्ष के जन्म के समय अदिति की गोद में विद्यमान थे और सृष्टि की अवस्था में सबसे प्रथम उत्पन्न होने वाला तत्त्व अग्नि था।
इसका अभिप्राय यह प्रतीत होता होता है कि अदिति अर्थात् अखण्ड सत्ता के दो रूप हैं, एक असत् और दूसरा सत्। इनमें असत् के प्रथम परिगणन का कारण यह है कि असत् सत् होते हुए भी सत् का मूल है या यह कहा जा सकता है कि सत् का मूल स्वभाव असत् है अर्थात् शून्य सदृश निराकार और निर्विकार सत् का धर्म है। इसके अतिरिक्त दूसरा कारण यह है कि सत् अर्थात् व्याकृत रूप की अपेक्षा असत् अर्थात् अव्याकृत रूप असीमित है। सम्भवतः, इसी कारण पुरुषसूक्त में पुरुष के 3/4 भाग को ऊर्ध्व अर्थात् ऊपर आश्रित बतलाते हुए कहा है कि ऊर्ध्व उच्छ्रितो भवति। -निरुक्त 8.15, जबकि ऋग्वेद 10.90.4 में 1/4भाग को व्यक्तरूप में प्रकट होने वाला बतलाया गया है। यहाँ पर अव्यक्त में रहने वाले रूप का प्रथम तथा व्यक्त होने वाले रूप का बाद में उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद के 10.72 सूक्त में असत् से सत् की उत्पत्ति का उल्लेख है। इसमें कहा गया है –
ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मारइवाधमत्।-ऋग्वेद 10.72.2
अर्थात – जिस प्रकार लुहार अग्नि को गति देता है, उसी प्रकार ब्रह्मणस्पति भी असत् को सत् होने के लिये प्रेरित करता है। ऋग्वेद 10.72.6 में कहा गया है , सृष्टि-पूर्व-अवस्था में ये सभी प्रकाशमान साकार सूर्यादि देव सलिल में सुसंरब्ध रूप से अवस्थित थे। अभिप्राय यह है कि उस समय सत् तत्त्व सम्यक् रूप से सम अवस्था में विद्यमान था अर्थात् सब कुछ अपने कारण में लीन था। नासदीयसूक्त में इस सत्य का प्रतिपादन और स्पष्टता के साथ करते हुए कहा गया है –
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् -ऋग्वेद 10.129.4
अर्थात – सत् असत् का बन्धु है अर्थात् सत् का कभी असत् से विच्छेद नहीं होता। केशवमिश्र रचित तर्कभाषा, प्रमाणविवेचन के अनुसार असत् में सत् का अस्तित्व है, निराकार में साकार है। निराकार के विना साकार सम्भव नहीं है। साकार में भी निराकार है। निराकार व्यापक है और साकार व्यापि। असत् व्यापक है और सत् सीमित है। इन दोनों के बीच समवाय सम्बन्ध है। असत् और सत् के मध्य में से सत् सर्वदा असत् के आश्रय से रहता है। इस प्रकार असत् और सत् मूलतः दो तत्त्व न होकर एक तत्त्व हैं। एक सिक्के के दो पहलू हैं, लेकिन असत् उस मूल सत्ता का स्वभाव है, जबकि सत् विकार है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि असत् वैदिक ऋषि की दृष्टि में अभाव का वाचक नहीं है।
नासदीयसूक्त के प्रथम मन्त्र ऋग्वेद 10.129.1 के शेष भाग में निषेधवाचक न का प्रयोग करते हुए कहा है कि उस अवस्था में न रजस् अर्थात् प्रकाश था और न अपर व्योम का अस्तित्व। मन्त्र की द्वितीय पंक्ति में कुछ प्रश्न उपस्थित किये हैं, जैसे-सूक्ष्म शरीर के आवरण में रहने वाले जीव क्या थे? यदि वे थे तो कहाँ और किसके आश्रय में थे? जीवन का मूलभूत तत्त्व अम्भ(जल) क्या था?
इस बात का समाधान अगले मन्त्र ऋग्वेद 10.129.2 में करते हुए कहा गया है कि उस प्रलयकाल में न मृत्यु थी और न दिवस बोधक कोई चिह्न ही था। इस मन्त्र के माध्यम से प्रथम मन्त्र में प्रतिपादित प्रवृत्ति को कुछ और स्पष्ट किया है। जिस प्रकार असत् और सत्, अव्यक्त और व्यक्त या कारण और कार्य सापेक्ष धर्म हैं, उसी प्रकार मृत्यु और जीवन, रात्रि तथा दिवस सापेक्ष हैं। इनमें एक के अभाव में दूसरे का व्यवहार सम्भव नहीं है। इसका यह तात्पर्य नहीं लिया जा सकता कि प्रलयकाल में जीवों का अस्तित्व नहीं था। मन्त्र का मन्तव्य भोत्तृत्व अवस्था का निषेध करना है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भोक्ता के भोग के अनुकूल परिस्थिति सर्ग है और प्रतिकूल परिस्थिति प्रलय है। दूसरे शब्दों में जीवन-मृत्यु, दिवस-रात्रि आदि द्वन्द्वों के अभाव का नाम प्रलय है। जहाँ तक सापेक्षता है, वहाँ तक सर्ग है और सापेक्षता के अभाव का नाम प्रलय है। सत् से पूर्व असत्, अमृत से पूर्व मृत्यु और दिवस से पूर्व रात्रि को मन्त्र में प्रस्तुत किया है। अस्ति से पूर्व विनश्यति को रखे जाने का कारण यह है कि मृत्यु और जीवन दोनों सत्य होते हुए भी, मृत्यु चरम सत्य है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि असत् और सत्, मृत्यु और जीवन आदि में कोई भी अभावात्मक नहीं है। भाव की सत्ता सभी में विद्यमान है, चाहे वह असत् हो, मृत्यु या रात्रि। यहाँ निषेध सत्ता का नहीं है, सत्ता के विशिष्ट रूप का है। और सत्ता का अभाव सम्भव भी नहीं है, चाहे वह क्षर या अक्षर। वस्तुतः, पूर्ण की पूर्णता के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेना असत् और मृत्यु है।

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