भारतीय चिंतन में पर्यावरण – राजीव पाठक

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5 जून को प्रतिवर्ष विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। किसी भी दिवस को मनाने की औपचारिकता को अब हम सबने अपने व्यवहार में सहजता से स्वीकार कर लिया है। कोई भी दिवस हो उसके बारे में उसी दिन गंभीरता से चिंतन, सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों द्वारा जनजागरूकता अभियान का श्री गणेश करना, समस्याओं पर गहन चिंतन-भाषण, एक दिन में किये जा सकने वाले काम को करना, सपथ लेना…., और बाद में दूसरे किसी दिवस की तैयारी में जुट जाना। ये सब कुछ समाज का चिन्तनशील वर्ग करता है और यह समाज पूरे विश्व में स्वभावगत एकरूप है। मैं से आप तक यानि हम सब भी इसी समाज के अंग हैं, जो पर्यावरण जैसे गंभीर विषय पर सिर्फ सोचते हैं। गुस्ताखी माफ़ हो…….! इस विषय को दिवस मनाकर नहीं बल्कि अपने दैनिक जीवन में कुछ बदलावों से प्रतिदिन मनाया जाना चाहिए। हमारे जीवन पद्धति में यह मौजूद था, अभी देर नहीं हुआ है बस एक कोशिश भर तो करनी है। एक कोशिश …….प्रकृति और मानव संबंधों को समझने की, प्रकृति के सन्देश को सुनने की।

कोई भी दर्शन मानव जीवन के कुछ अनिवार्य विषयों पर स्पष्ट हुए बिना अनुकरनिये नहीं हो सकता और यही कारण है कि वैदिक काल से लेकर गांधीवाद तक हमें भारतीय चिंतन में पर्यावरण के विभिन्न पक्षों पर स्पष्टता दिखती है। विश्व पर्यावरण दिवस पर हम पर्यावरण चिंतन के भारतीय दृष्टिकोण के द्वारा समाधान को तलाशने की कोशिश करेंगे।

पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है- ‘परि’ तथा ‘आवरण’। ‘परि’ का अर्थ है- चारों ओर तथा ‘आवरण’ का अर्थ है ‘ढंका हुआ’ अर्थात्‌ किसी भी वस्तु या प्राणी को जो भी वस्तु चारों ओर से ढंके हुए है वह उसका पर्यावरण कहलाता है। विश्व शब्द कोष में लिखा है “पर्यावरण उन सभी दशाओं, प्रणाली व प्रभाओं का योग है। जो जीवों और उनकी प्रजातियों के विकास, जीवन और मृत्यु को प्रभावित करता है।” पर्यावरणविद गिलबर्ट के अनुसार- ‘पर्यावरण वह सब कुछ है जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरे हुए है तथा उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।’

पृथ्वी,जल और वायु पर्यावरण के मूल घटक है। इन तीनों जगहों में जीवन है और प्रत्येक जीव पर्यावरण से प्रभावित होता है और उसे प्रभावित भी करता है। स्थलचर यानि पृथ्वी पर रहने वाला जीव पर्यावरण के तीनों घटकों को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। मनुष्य सबसे बुद्धिमान है इसीलिए वह अपने जीवन को सदैव बेहतर बनाने की ओर अग्रसर है। लेकिन बेहतर जीवन को आज तक परिभाषित नहीं किया जा सका है । पश्चिम के देशों ने आधुनिकता को बेहतर जीवन पद्धति माना है,आधुनिकता के ही एक पराकाष्ठा को विकशित होना भी कहा जाता है। बांकी सब जो अनुसरण कर रहे हैं वो विकासशील या पिछड़े की श्रेणी में हैं। जब पर्यावरण समस्या पर चिंता जताने वाले लोग ही इसके असली गुनाहगार हों, तो बहस किसके लिए और क्यूँ? यह एक बड़ा सवाल है।

भारत अब अछूता नहीं है इस समस्या को बढ़ाने से, लेकिन भारत के पास सरल और सहज निदान है। वैदिक सनातन जीवन जिसे विश्व का प्राचीनतम जीवन पद्धति कहा जाता है, उसमें प्रकृति ही देवता है, वही उर्जा का श्रोत है, और समाज जीवन में भी प्रकृति के प्रति आत्मीयता का भाव वेदों के वर्णन में उल्लेखित है। वेद में वर्णित शाति पाठ किसी किसी तत्कालीन व्यक्ति या विचार केन्द्रित नहीं है वह प्रकृति को समर्पित है। ॐ ध्हौ शांति……….अंतरिक्ष…..पृथ्वी…..वनस्पति..औषधयः……। ऋगवेद के मात्री सूक्त में पृथ्वी को माँ कहकर संबोधित किया गया है। “माता भूमि पुत्रो अह्म पृथिव्याः……”। इसी सूक्त में पर्यावरण के चक्र को भी समझाया गया है। ऋग्वेद में वायु के गुणों को बताते हुए कहा गया है- ‘वात आ वातु भेषजं मयोभु नो हृदे, प्रण आयूंषि तारिषत’ ‘शुद्ध ताजा वायु अमूल्य औषधि है, जो हमारे हृदय के लिए दवा के समान उपयोगी है, आनंददायक है। वह उसे प्राप्त करता है और हमारी आयु को बढ़ाता है।’

ऋग्वेद में यही बताया गया है – कि शुद्ध वायु कितनी अमूल्य है तथा जीवित प्राणी के रोगों के लिए औषधि का काम करती है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आयुवर्धक वायु मिलना आवश्यक है। और वायु हमारा पालक पिता है, भरणकर्ता भाई है और वह हमारा सखा है। वह हमें जीवन जीने के योग्य करें। शुद्ध वायु मनुष्य का पालन करने वाला सखा व जीवनदाता है।वृक्षों से ही हमें खाद्य सामग्री प्राप्त होती है, जैसे फल, सब्जियां, अन्न तथा इसके अलावा औषधियां भी प्राप्त होती हैं और यह सब सामग्री पृथ्वी पर ही हमें प्राप्त होती हैं। अथर्ववेद में कहा है- ‘भोजन और स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियां इस भूमि पर ही उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैं, क्योंकि वर्षा के रूप में पानी बहाकर यह पृथ्वी में गर्भाधान करता है। वेदों में इसी तरह पर्यावरण का स्वरूप तथा स्थिति बताई गई है और यह भी बताया गया है कि प्रकृति और पुरुष का संबंध एक-दूसरे पर आधारित होता है। भारतीय चिंतन में पर्यावरण के प्रति यह सजगता सिर्फ वैदिक काल तक सिमित नहीं है बल्कि इसका वर्णन उपवेद माने जाने वाले आयुर्वेद से लेकर उपनिषदों में तथा स्मृतियों से लेकर आधुनिक भारत के महापुरुषों के चिंतन में भी दिखाई देता है। आयुर्वेद में न सिर्फ औषधि और वनस्पति को अनावश्यक उपयोग में लाने से परहेज बताया गया है, बल्कि इसके दुरूपयोग को पाप करार दिया गया है। कालिदास ने तो अपने महाकाव्यों में प्रकृति के सहारे ही साडी बातें रखी है। मेघदूतम इसका बेहतर उदहारण है। ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ में कालिदास पृथकत्व की अपेक्षा प्रकृति का मानवीकरण कर मनुष्य के साथ उसका परस्परापेक्षी सहअस्तित्व स्वीकार करते हुए, प्रकृति के आठ रुपों में भगवान शिव की आठ मूर्तियों की कल्पना कर उसी से विश्वमंगल की कामना करते है। वाल्मीकीय रामायण भी पर्यावरण चेतना से ओत-प्रोत रही है। रामायण में पर्यावरण के तीनों क्षेत्रों जल मंडल, वायु मंडल के प्रदूषण निवारण के लिए उपाय बताए गए है। इनमें शुद्ध एवं निर्मल जल की अलौकिकता और पवित्रता का समुचित वर्णन किया गया है। और जल को दूषित करने वालों के लिए दंड का भी विधान किया गया है। वायु के प्रकुपित और प्रदुषित होने के दुष्परिणाम भी इस महाकाव्य में वर्णित है। आधुनिक भारत के चिंतकों और महापुरुषों ने भी पर्यावरण के गंभीरता को अपने चर्चा में रखा है। बुद्ध,शिवाजी, श्रीमंत शंकरदेव, गाँधी ने भी पर्यावरण पर भारतीय चिंतन को आगे बढाया है। तुलसी,नीम,पीपल को देवताओं का निवास स्थान बताकर उसे पूजनीय बताया गया है। कृष्ण गीता में कहते हैं ‘मैं वृक्ष में पीपल हूँ’। नदी और तालाब पूजनीय मानने के पीछे भारतीय मनीषियों के दूरदृष्टि को समझा जा सकता है। लेकिन इन बातों को समाज में तत्काल प्रभाव से लागू नहीं करवाया जा सकता। ग्लोबल वार्मिंग के रुप में पर्यावरण के प्रदूषण का भयावह और विनाशकारी रुप आज हमारे सामने उपस्थित है। औद्योगीकरण की आपाधापी ने शहरों का वातावरण पूर्णरूप से प्रभावित कर दिया है जिसकी वजह से प्रकृति में आश्चर्यजनक परिवर्तन देखने को मिलते रहते है। हिमनंदों के अस्तित्व से लेकर जलवायु चक्र में परिवर्तन देखते है। पर्यावरण की समस्या एक वैश्विक समस्या है ऐसे में हम दूसरे देशों के द्वारा उत्सर्जित हानिकारक गैसों, जल और खनिज पदार्थों के अंधाधुंध प्रयोगों, काल-कारखानों से होने वाले प्रदूषणों आदि से भी प्रभावित होंगे हीं। फिर सवाल उठता है कि हम अकेले क्या कर लेंगे जब समस्या पूरी दुनिया की है ! विश्व भर के पर्यावरणविद चिंतित हैं, जल संकट गहराता जा रहा है, समुद्रों का जलस्तर बढ़ता जा रहा है। सूखा,बाढ़ और सुनामी जैसे प्राकृतिक आपदाओं का बार-बार आना चिंता का विषय है। ऐसे में मानव धर्म ये कहता है कि हम भी जागरूक बने, संयमित जीवन जिए और प्रकृति से प्रेम करें। हमारा प्रत्येक दिन पर्यावरण को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हों। हमने भूमि को माता माना है, इस भाव से प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग करना तथा उसे बचाने में अपना सहयोग ही सबसे सार्थक कार्य होगा।

— राजीव पाठक

 

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