पर्यावरण नीति

जिस देश में जीवनरेखा नदियों को मैला ढोने वली गाड़ी बना दिया गया हो , वहाँ पर्यावरण दिवस जैसी बातें ढकोसला लगती हैं |अभी हाल ही में जल संसाधन मंत्रालय ने ”नई राष्ट्रीय जल नीति” का मसौदा पेश किया है |इसमें छिपे निहितार्थ से लगता है कि सरकार अब जलापूर्ति की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने में लगी हुई है |सरकार जलापूर्ति का काम मल्टीनेशनल कंपनियों और वित्तीय संस्थाओं को सौपना चाहती है | खास बात यह है कि पहली नज़र में इस मसौदे को देखने से मन खुश हो जाता है |क्योंकि जलनीति में पहली बार जलसंकट से निजात के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण को अपनाया गया है | इसमें स्वच्छता के साथ – साथ पारिस्थितिकी तंत्र का भी ध्यान रखा गया है | लेकिन जब हम इस मसौदे का गहराई से अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि जल को मौलिक अधिकार के दायरे से बहार रखा गया है , अर्थात कोई महत्व नहीं दिया गया है | संवैधानिक रूप से शुद्ध जल और पर्यावरण को हमारे मूल अधिकारों में ”जीने के अधिकार” में शामिल किया गया है | निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देने वाली ” इंटरनेशनल फाइनेंस कार्पोरेशन ” द्वारा इस मसौदे को तैयार करने में मदद ली गयी है | इस प्रकार हम सामाजिक लाभ की उम्मीद नहीं कर सकते है | इस पूरे मसौदे पर ”नेशनल वाटर रिसोर्सेस फ्रेमवर्क स्टडी : फॉर रिफोर्म्स ” का भी पूरा प्रभाव दिखाई देता है |

 

अगर हम आज वैश्विक परिदृश्य पर नज़र डालें तो हाँ पाते हैं कि सभी राष्ट्र जल सेवाओं को निजी हाथों से लेकर सरकार के अधीन कर रहे हैं , लेकिन क्या कारण है कि हम जल नियंत्रण निजी क्षेत्र में देना चाहते है | मसौदे का ” पालुटर पेज ” दोहरी मानसिकता को चिल्ला – चिल्ला कर बयां करता है | इसके अनुसार ‘थोड़े से जुर्माने’ को भरकर जितना जल प्रदूषित करना चाहते हो करो , कहीं भी किसी सख्त कानून की बात नहीं कही गई है |मसौदे में कहा गया है कि कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट के संशोधन और जल के पुनः उपयोग के लिए सरकार ‘इंसेंटिव’ देगी | अब इस इंसेंटिव का तो सीधा सा मतलब है कि प्रदूषकों को सब्सिडी | इस तरह तो प्रदूषण को प्रोत्साहित किया जा रहा है |

 

बार – बार सारी दुनिया एक ही बात कहती है कि आने वाले समय में सबसे बड़ी समस्या पानी की होगी | भारत एक ऐसी आबादी है जो ४ फीसदी जल पर विश्व का १७ फीसदी है |ऐसे में अगर हम जलनीति को सही से नहीं क्रियान्वित कर पाये तो विनाश को दावत देने वाले हम स्वयं होंगे |माँ गंगा , माँ यमुना ,गोदावरी , ब्रम्हपुत्र, कोसी , घाघरा , गोमती , सतलुज जैसी बड़ी नदियाँ प्रदूषण से बेज़ार हैं | वहीँ सईं, गंडक , फल्गू, शारदा , कृष्णा, चम्बल , बेतवा , जैसी हजारों नदियाँ अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं | इन नदियों की दुर्गति का कारण मानवीय त्रुटियाँ है | सरकार पर नदियों की दुर्दशा की जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती लेकिन दुर्गति को होते देना असफलता अवश्य है |

 

”जल ही जीवन है ” के विज्ञापन को तो आप सब मीडिया के विभिन्न प्रारूपों में देखते ही होंगे | इन पर सरकार प्रति वर्ष करोड़ों रुपये फूंकती है , लेकिन क्या जल ,जीवन है यह बताने की जरुरत है | नहीं न , ज़रूरत है जल को बचाने की ,जरुरत है जल नियंत्रण की | जिस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता | जल जीवन का आधार है , जल के बिना पेड़ पौधों की कोई कल्पना ही नहीं | बिना जल के कैसा पर्यावरण | जब तक जल नीति प्रभावी नहीं होगी , इस अनमोल प्राकृतिक सम्पदा का दोहन होता ही रहेगा | पर्यावरण दिवस आते जाएँगे , भाषण बाजी होगी , सरकारी लोलीपोप के रूप में नए – नए अधिनियम आएंगे , लेकिन पर्वारण कराह – कराह कर दम तोड़ता रहेगा | पार्कों , कारखानों और सौन्दर्यीकरण के नाम पर हरियाली का विनाश होता रहेगा | मगर हम पर्यावरण दिवस मनाने के लिए एकत्र होते रहेंगे |

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राघवेन्द्र कुमार 'राघव'
शिक्षा - बी. एससी. एल. एल. बी. (कानपुर विश्वविद्यालय) अध्ययनरत परास्नातक प्रसारण पत्रकारिता (माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय जनसंचार एवं पत्रकारिता विश्वविद्यालय) २००९ से २०११ तक मासिक पत्रिका ''थिंकिंग मैटर'' का संपादन विभिन्न पत्र/पत्रिकाओं में २००४ से लेखन सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में २००४ में 'अखिल भारतीय मानवाधिकार संघ' के साथ कार्य, २००६ में ''ह्यूमन वेलफेयर सोसाइटी'' का गठन , अध्यक्ष के रूप में ६ वर्षों से कार्य कर रहा हूँ , पर्यावरण की दृष्टि से ''सई नदी'' पर २०१० से कार्य रहा हूँ, भ्रष्टाचार अन्वेषण उन्मूलन परिषद् के साथ नक़ल , दहेज़ ,नशाखोरी के खिलाफ कई आन्दोलन , कवि के रूप में पहचान |

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