महाविनाश के मुहाने पर पहुंचा रहा पर्यावरण प्रदूषण

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राजेश कश्यप

धरती दिनोंदिन गरमा रही है। मौसम में जो अप्रत्याशित परिवर्तन व असंतुलन निरन्तर बढ़ रहे हैं, असाध्य बीमारियों का जो मकड़जाल लगातार फैलता चला जा रहा है, समय-असमय जो अतिवृष्टि व अनावृष्टि हो रही है, जिस तेजी से भूस्खलन निरन्तर बढ़ रहे हैं, भूकम्प आ रहे हैं, हिमनद सूख रहे हैं और जिस तरह से उत्तरी व दक्षिणी धु्रवों की बर्फ पिंघलकर महाविनाश की भूमिका तैयार कर रही है, वह सब चरम सीमा पर पहुंच रहे पर्यावरण प्रदूषण के परिणामस्वरूप ही हो रहा है।

समस्त जीव-जगत के जीवन में जो जहर घुल चुका है और जो निरन्तर घुल रहा है, उसके लिए कोई एक प्रदूषक तत्व जिम्मेदार नहीं है। वर्तमान पर्यावरण प्रदूषण में वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, नाभिकीय प्रदूषण आदि सब प्रदूषक शामिल हैं। वायु को प्रदूषित करने वाले मुख्यतः तीन कारक हैं, अचल दहन, चलायमान दहन और औद्योगिक अपशिष्ट। अचल दहन के तहत जब कोयला, पेट्रोलियम आदि जीवाश्मी ईंधन जलते हैं तो इससे सल्फर डाइऑक्साइड, सल्फर ट्राइऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड आदि गैंसें निकलती हैं और वातावरण में मौजूद जलीय कणों के साथ मिलकर गन्धकीय तेजाब, सल्फ्ूरस अम्ल, नाइट्रिक अम्ल आदि का निर्माण करती हैं और अम्लीय वर्षा के रूप में पृथ्वी पर आकर अपने घातक प्रभाव डालती हैं। इन घातक प्रभावों में मुख्य रूप से पौधों की बढ़वार प्रभावित होना, मृदा के पोषक तत्वों का हनन होना, मत्स्य प्रजनन का रूकना, श्वसन तंत्र का प्रभावित होना आदि-आदि शामिल हैं। इन सबके अलावा भी इन गैसों के कुप्रभाव देखने में आते हैं।

चलायमान दहन के तहत स्कूटर, मोटरसाइकिल, कार, बस, हवाई जहाज, रेल आदि परिवहन के समस्त साधनों से निकलने वाले धुएं से वातावरण में जहर घुलता है। इस धुएं में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड तथा हाइड्रोकार्बन का मिश्रण होता है। इसके अलावा पेट्रोलियम के जलने से टेªटाइथल लैड, टेªटामिथाइल लैड जैसे लैड योगिक पैदा होते हैं और शरीर में हीमोग्लोबिन के निर्माण को रोककर बेहद घातक कुप्रभाव डालते हैं। औद्योगिक कारखानों में रासायनिक प्रक्रियाओं से होने वाले उत्पादन, उद्योगों से निकलने वाली कार्बन मोनोक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड आदि विषैली गैसों और औद्योगिक कारखानों से निकलने वाले प्रदूषित कचरे से पर्यावरण बेहद प्रदूषित होता है। जल प्रदूषण के लिए हमारी छोटी बड़ी सभी लापरवाहियां उत्तरदायी हैं। इनमें मशीनों का असहनीय शोर-शराबा, डायनामाइट विस्फोट, गोला-बारूद का प्रयोग, हथियारों व बमों का परीक्षण, वाहनों का भारी शोर, लाउडस्पीकरर्स आदि सब चीजें जिम्मेदार हैं। विकिरण प्रदूषण ने तो समस्त जीव जगत के जीवन पह गहरे प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं आण्विक विखण्डनों से होने वाली विघटनाभिका प्रक्रिया के तहत विकिरण प्रदूषण होता है। इतिहास साक्षी है वर्ष 1945 का, जिसके दौरान अमेरिका ने जापान के दो प्रमुख नगरों हीरोशिमा व नागासाकी आण्विक बम गिराए थे और जिससे पूरी दुनिया दहल उठी थी। आज साढ़��� छह दशक बाद भी उन नगरों को उस आण्विक हमले की चोट से मुक्ति नहीं मिली है। क्योंकि नाभिकीय अपशिष्ट के रेडियोऐक्टिव तत्व कम से कम एक हजार वर्षों तक सक्रिय रहने की क्षमता रखते हैं। नाभिकीय परीक्षणों के चलते तो विकिरण प्रदूषण विश्व के लिए एक गंभीर स्थिति पैदा हो चुकी है।

कुल मिलाकर पर्यावरण प्रदुषण ने मौसम और अन्य पर्यावरणीय समीकरणों को गड़बड़ाकर रख दिया है। मौसम और पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक अपनी चरम प्रदूषण के चलते एशिया के सात देशों की जलवायु में अप्रत्याशित परिवर्तन आ चुका है और स्थिति निरन्तर भयावह होती चली जा रही है। गत दशक में ही आठ देशों के सरकारी और निजी अनुसंधान संस्थानों के 60 से भी अधिक विशेषज्ञों ने चेताया था कि भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम और फिलीपीन जलवायु परिवर्तन के दुश्चक्र मंे फंस चुके हैं और इन देशों के तापमानों व समुद्री जल स्तर में निरन्तर वृद्धि हो रही है, जिससे इन देशों के तटवर्ती स्थानों पर समुद्री तूफान अपना कहर बरपाएंगे, करोड़ों लोग शरणार्थियों का जीवन जीने के लिए बाध्य होंगे और महामारियों की बाढ़ भी आएगी।

विशेषज्ञों ने जो भी चिन्ताएं व्यक्त कीं वो अक्षरशः सत्यता की तरफ अग्रसित होने लगी हैं। भारत के केरल, आन्ध्र प्रदेश और बांग्लादेश, चीन, जापान, अमेरिका आदि देशों के समुद्री तटवर्ती क्षेत्रों में आने वाले समुद्री तूफान धीरे-धीरे विकराल रूप धारण करने लग गए हैं। गत कुछ वर्षों के समुद्री तूफानों ने विश्वभर में भारी तबाही मचाई है। दिसम्बर, 2004 में ‘सुनामी’ ने दक्षिण एशियाई देशों भारत, इंडोनेशिया, श्रीलंका, मालदीव, थाईलैण्ड, मलेशिया आदि देशों में, अगस्त, 2005 में ‘कैटरिना’ ने अमेरिका में, नवम्बर, 2009 में ‘मिरिना’ ने वियतनाम में, नवम्बर, 2009 में ही ‘सीडर’ ने बांग्लादेश में, मई, 2010 में ‘लैला’ ने भारत में, मार्च, 2011 में ‘गत 140 साल के इतिहास के सबसे भयंकर सुनामी’ ने जापान में, अगस्त, 2011 में ‘आइरीन’ ने अमेरिका में, अगस्त, 2011 में ही ‘मुइफा’ ने चीन में, सितम्बर, 2011 में ‘तलस’ ने जापान में, सितम्बर, 2011 में ही ‘नेसाट’ ने चीन में और दिसम्बर, 2011 में ‘सुनामी’ ने फिलीपींस में न केवल भयंकर तबाही मचाई, अपितू हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया, लाखों लोगों के जीवन को तबाह कर दिया, अरबों-खरबों की सम्पति को पानी में मिला दिया और प्रकृति को भारी नुकसान पहुंचाया।

एक अनुमान के अनुसार धरती पर पाई जाने वाली लगभग चार करोड़ प्रजातियों में से लगभग एक सौ प्रजातियां प्रतिदिन नष्ट हो रही हैं। एक प्रसिद्ध जीव विज्ञानी तो वनों की अंधाधुंध कटाई से प्रतिदिन एक सौ चालीस रीढ़ वाले जीवों की प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। समुद्र में तेल के रिसाव व पानी में गन्दे कूड़े-कचरे के बहाव के चलते कई समुद्री जीवों का तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ चुका है। पेयजल के बढ़ चुके संकट ने दुनिया की नींद हराम करके रख दी है। बाढ़ व सूखे की विकरालताओं ने भी सबको हिलाकर रख दिया है। कृषि की उपज व मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में भी भारी कमी आने लगी है। कई छोटे समुद्री द्वीपों के डूबने का खतरा भी मंडराने लगा है। हमारी लापरवाहियांे के चलते पर्यावरण प्रदूषण बढ़ा है और उसी के चलते धरती गरमा उठी है। विशेषज्ञों का कहना है कि पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न होने वाली गैसें पृथ्वी का तापमान बढ़ाने के साथ-साथ मानव जीवन की रक्षा कवच ओजोन परत को भी बड़ी तेजी से छिन्न-भिन्न कर रही हैं। यह ओजोन परत गैस की ऐसी परत है, जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी पर आने से रोकती हैं और हमें चमड़ी के रोगांे व कैंसर जैसी असंख्य दुःसाध्य बीमारियों के प्रकोप ���� बचाती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार निरन्तर बढ़ रहे पर्यावरण प्रदूषण के चलते हमारी रक्षा-कवच ओजोन परत अत्यन्त क्षीण हो चुकी है और इसमें किसी भी समय भयंकर छिद्र हो सकता है। अगर ऐसा हुआ तो पृथ्वी के समस्त जीवों के जीवन खतरे में पड़ जाएंगे और पृथ्वी का स्वर्गमयी वातावरण नरक में तब्दील हो जाएगा।

निरन्तर बढ़ रहे पर्यावरण प्रदूषण के प्रति सभी देशों की सरकारें अत्यन्त गंभीर तो हैं, लेकिन, इसे रोकने में अहम् भूमिकाएं नहीं निभा पा रहे हैं। आए बन भयंकर बमों व मिसाइलों का परीक्षण, परमाणु परीक्षण, सरकारी लापरवाहियों के चलते आयुध भण्डारों में लगने वाली आग, समुद्री युद्ध परीक्षण, सरकारी गोदामों का सड़ा गला व विषैला खाद्य-भण्डार समुद्र के हवाले करना, समुद्री दुर्घटनाएं आदि सब प्रदूषण को रोकने की प्रतिबद्धता की पोल खोल रहे हैं। पिछले वर्षों में जो कई देशों द्वारा परमाणु परीक्षण किए गए और अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान व इराक में जो बड़े भारी भयंकर व विनाशकारी बमों की वर्षा की गई, वो सब भी विश्व पर्यावरण प्रदूषण को उसकी चरम सीमा पर पहुंचाने की बराबर जिम्मेदार घटनाएं हैं। पिछले वर्षों में सॉर्स ने पूरे विश्व में कोहराम मचाया, वह भी एक देश द्वारा किए जाने वाले जैविक बम के परीक्षण को सन्देह के दायरे में लाया जा चुका है। कैटरिना जैसे समुद्री तूफानों ने भी भयंकर कहर बरपाया है।

कहने का अभिप्राय यह है कि सैकड़ों देश प्रतिवर्ष इक्कठे बैठकर पर्यावरण प्रदूषण पर जो चिन्ताएं व्यक्त करते हैं और उससे निपटने के लिए जो बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाते हैं, उन्हें वास्तविकता में तब्दील करने की कड़ी आवश्यकता है, वरना सभी देशों की यह सब गतिविधियां मात्र एक ढ़कोसले के सिवाय कुछ भी नहीं होंगी।

विश्व के देशों की सरकारों के साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति को भी पर्यावरण प्रदूषण के प्रति जागरूक होना होगा और पर्यावरण प्रदूषण के प्रति अपनी लापरवाही, अज्ञानता व स्वार्थता पर एकदम अंकुश लगाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि जन-जन को अधिक से अधिक पेड़ लगाने का दृढ़ संकल्प लेना होगा और लगे हुए पेड़ों के संरक्षण पर भी बराबर ध्यान रखना होगा। कुल मिलाकर, पर्यावरण प्रदूषण के लिए जिम्मेदार कारकों पर तुरन्त अंकुश लगाना, अधिक से अधिक पेड़ लगाना और उनकीं रक्षा करना ही पर्यावरण प्रदूषण के प्रकोप से बचने के अचूक उपाय हैं।

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