जा‍तीय जनगणना समतापूर्ण समाज के लिए उपयोगी

-अरुण माहेश्‍वरी

भारत में वर्ण-व्यवस्था की प्राचीनता अब बहस का विषय नहीं है। वर्ण-व्यवस्था सनातन धर्म का मूलाधार रही है। इतिहासकारों ने इस विषय पर भी काफी गंभीर काम किये हैं कि वर्ण-व्यवस्था के ढांचे के अंदर ही जातियों के लगातार विभाजन और पुनर्विभाजन के जरिये कैसे यहां एक प्रकार की सामाजिक गतिषीलता बनी रही है। इस बारे में खास तौर पर डा. डी.डी.कोसांबी और आर.एस.शर्मा के कामों को याद किया जा सकता है।

इसी सिलसिले में हमारे लिये बहस और विचार का एक विशय यह भी है कि अभी हमारे समाज में जिस प्रकार का जातिवाद दिखाई दे रहा है, उसका कितना संबंध उस प्राचीनकालीन वर्ण-व्यवस्था से है और कितना कुछ अन्य नयी चीजों से है जिन्होंने पिछले 100 वर्षों में हमारे समाज में प्रवेश किया है।

आज के जातिवाद को हजारों वर्षों के भारतीय समाज के इतिहास से जोड़ना समस्या की जड़ों तक जाने की दिशा में एक सही कदम होने के बावजूद, मुझे लगता है कि इस मामले में कुछ आधुनिक विचारधाराओं के प्रभाव को भी निष्चित तौर पर नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है नस्लवाद (Racism) की विचारधारा, जो एक प्रकार का जातिवाद ही है। यह एक ऐसा विचार है जो यह मानता है कि आदमी की कुछ खास विषेशताएं और उसकी योग्यताएं उसकी नस्ल से निर्धारित होती है। 19वीं सदी से ही ‘वैज्ञानिक नस्लवाद’ (Scientific Racism) की तरह की विचारधारा चल पड़ी थी जिसमें आदमी की नस्ल को ही उसकी बुद्धि, उसके स्वास्थ्य और यहां तक कि उसमें अपराध की प्रवृत्ति से भी जोड़ कर देखा जाता था। फ्रांसीसी विचारक जोसेफ आर्थर कोम्टे द गोबिनो की प्रसिद्ध भारी-भरकम कृति ‘मानव नस्लों की असमानता पर एक निबंध'(1853-1855) के षीर्शक से प्रकाषित हो गयी थी जिसमें आर्यों को शासक जाति बताने के नस्लवादी सिद्धांत को स्थापित किया गया था। इसी जातीय श्रेष्‍ठता के तत्व को हिटलर के नाजीवाद ने उसके चरम और वीभत्स रूप तक पहुंचाया और जर्मन राष्‍ट्र की सर्व-श्रेष्‍ठता के सिद्धांत के बल पर दुनिया के अन्य सभी राष्‍ट्रों को कीड़े-मकोड़ों की तरह रौंद डालने को जर्मन राष्‍ट्र का जन्मसिद्ध अधिकार घोशित किया। भारत में आरएसएस की आधारशिला भी इसी प्रकार के भ्रामक, ब्राह्मणों को आर्य और शासक नस्ल का मानते हुए जातीय श्रेष्‍ठता के सिद्धांत पर रखी गयी थी।

बहरहाल, देखने की चीज यह है कि पश्चिम के इस नस्लवाद के सिद्धांत ने भारत की प्राचीन काल से चली आ रही वर्ण-व्यवस्था के साथ मिल कर समग्रत: हमारे समाज पर कैसा प्रभाव डाला और यहां की जाति-व्यवस्था को कौन सा नया रूप दिया। जब हम जातियों के आधार पर जनगणना के औचित्य-अनौचित्य के मुद्दे पर विचार करते हैं, तब हमें अपने इधर के इतिहास के इन पक्षों का भी थोड़ा अध्ययन जरूर करना चाहिए।

जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं, पश्चिम के प्राचीन समाज में भले ही वर्ण व्यवस्था की तरह की कोई चिरंतर व्यवस्था न रही हो, लेकिन 19वीं सदी के आधुनिक काल में पश्चिम का शासक वर्ग एक खास प्रकार के जातिवाद (नस्लवाद) के सिद्धांत पर प्रयोग कर रहा था। विभिन्न समुदाय के लोगों की चमड़ी और आंख की पुतली के रंग, उनके ललाट और मस्तक के माप आदि के कथित वैज्ञानिक तौर तरीकों से इस सिद्धांत का ईजाद किया था और उसी के जरिये समाज तथा शासन के क्रम-विन्यास में विधि ने किसके लिये कौन सी जगह तय की है, इसे अनंत काल के लिये स्थिर कर देने का उन्होंने बीड़ा उठाया था। वे नस्ल (जाति)(Race) को इतिहास की कुंजी मानते थे।1

कहना न होगा कि हमारे देश में भी ब्रिटिश शासन के पैर जमाने के साथ ही अंग्रेजों की इसी ‘वैज्ञानिक’ खुराफात के प्रयोग ने इस समाज पर कम रंग नहीं दिखाया। भारत में 1901 की जनगणना का आयुक्त राबर्ट रिस्ले कहता है, ” जाति भावना … इस सचाई पर आधारित है कि उसे वैज्ञानिक विधि से परखा जा सकता है; कि उससे किसी भी जाति को संचालित करने वाले सिद्धांत की आपूर्ति होती है; कि यह शासन के सर्वाधिक आधुनिक विकास को आकार देने के लिये गल्प अथवा परंपरा के रूप में कायम रहती है; और अंत में उसका प्रभाव उसके द्वारा समर्थित खास स्थिति को तुलनात्मक शुद्धता के साथ संरक्षित रखता है।

(…race sentiment…rests upon a foundation of facts that can be verified by scientific methods; that it supplied the motive principle of caste; that it continues, in the form of fiction or tradition, to shape the most modern developments of the system; and, finally, that its influence has tended to preserve in comparative purity the types which it favours. )

जाहिर है कि अंग्रेजों ने भारत की वर्ण व्यवस्था को यहां नस्ली शुद्धता को चिरंतर बनाये रखने के पहले से बने-बनाये एक मुकम्मल ढांचे के रूप में देखा और यहां अपनी शासन व्यवस्था के विकास लिये इसका भरपूर प्रयोग करने का निर्णय लिया। उनकी इसी दृश्टि ने भारत में 1871 का जरायमपेशा जातियों का कानून बना कर कुछ तबकों को हमेशा के लिये दागी घोषित कर दिया। और यही वह नजरिया था जिसके चलते 1891 की पहली मर्दुम शुमारी में सिर्फ जातियों की गणना नहीं बल्कि उनकी परिभाषा और व्याख्या को भी शामिल किया गया। इतिहास में वे सारी कहानियां दर्ज है कि जातियों की इन उद्देश्‍यपूर्ण पहचान की कोशिशों ने भारतीय समाज में ऐसा गुल खिलाया कि यहां के विभिन्न जातीय समुदायों में जनगणना के खातों में अपनी जाति को अपने खास ढंग से परिभाषित-व्याख्यायित कराने की होड़ सी लग गयी। जो लोग अंग्रेजों के मंसूबों को समझ रहे थे, ऐसे ‘समझदारों’ को यह जानते देर नहीं लगी कि इसीसे यह तय होना है कि आने वाले दिनों में अंग्रेजी शासन की पूरी व्यवस्था में कौन सा समुदाय किस पायदान पर खड़ा होगा; शासन की रेवड़ियों के बंटवारे में किसके हाथ कितना लगेगा। और इस प्रकार, भारतीय वर्ण-व्यवस्था इस नये पष्चिमी नस्लवादी सिद्धांत से जुड़ कर एक अलग प्रकार की जाति-चेतना के उद्भव का कारण बनी। यही वजह है कि आज हम जिस जातिवाद से अपने को जकड़ा हुआ पाते हैं, उसके बहुत कुछ को भारत में अंग्रेजी शासन की देन कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 19वीं सदी के पहले के इतिहास में जो ब्राह्मण विरले ही कहीं बलशाली, वैभवशाली दिखाई देते हैं; सदा राज-कृपा के मुखापेक्षी और उसी के बल पर यदा-कदा भौतिक दुनिया में भी किंचित महत्व पाते रहे हैं, वे अंग्रेजों की ‘जाति-गणना’ में संगठित रूप में दखल देकर ब्राह्मणों को आर्य और ‘शासक जाति’ घोषित कराके हमारे समाज के भौतिक और आत्मिक, दोनों जगत के परंपरागत रूप में पूर्ण अधिकारी बन गये। और, इस प्रकार नई शासन व्यवस्था से उनका अपना एक खास रिष्ता बना, वे भी अंग्रेजों के ‘कानून के शासन’ के एक प्रमुख स्तंभ बन गये।

आज जब जनगणना में जातियों की गणना के प्रश्‍न पर इतनी बहस चल रही है, उस समय हमारे लिये इतिहास के इन थोड़े से पृष्‍ठों को पलट कर देखना नुकसानदेह नहीं होगा। फिर किसी जाति को जरायमपेशा अथवा शासक जाति घोषित करवाने अथवा किसी जाति को पूरी शासन व्यवस्था में किसी निश्चित पायदान पर स्थायी तौर पर रखवा देने, अथवा सरकारी कृपा की एकमात्र अधिकारी घोषित करवाने आदि की तरह की गैर-जनतांत्रिक होड़ और तनाव में हमारा समाज न जकड़ जाए, इसके प्रति सावधान रहने की जरूरत है। अन्यथा सामाजिक न्याय के लक्ष्य को पूरी तरह से हासिल करने के लिये, कमजोरों को सहारा देकर ऊंचा उठाने के लिये किसी भी प्रकार की गणना आदि से किसी भी न्यायप्रिय व्यक्ति को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। हमारा यह मानना है कि सतर्क ढंग से प्रयोग करने पर इस प्रकार की गणना एक समतापूर्ण और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिये काफी उपयोगी साबित हो सकती है।

5 COMMENTS

  1. or ha me kahana nahi chah raha tha par jra savtantrta andolan me ladane valo ki list utha kar dekh lijiyega,pahala naam mangal pande ka milega jo apake mat me अंग्रेजों के ‘कानून के शासन’ के एक प्रमुख स्तंभ tha???or savrkar,tilak,hedgevar jeso ka to kya kahana???

    mere sare hindu bhayi mujhe maf kare mene sirf lekhak ko saty naam diye he{taki usaki galat fahami dur ho} ye sare mahapurush hindu ke liye lade bharat ke liye lade or apane dharm ke liye lade v jiye the kisi jatiy abhiman ko banane ke liye nahi.

  2. agar ap esa sochate he to me apako apaki hi bhasha me uttar deta hu mujhe mere dusare sabhi hindu bandhu es jativad ko felane ke liye kshma kare.
    me koe esa nam nahi likhunga jisako pramanit krana pade.
    1.sare ke sare bodh achary budh ko chhod kar kon the??
    2.puri bodh stta ko nestnabut karane vale kumaril bhatt kon the??
    3.pure bharat ko ekata ke sutr me pirone vale achary shankar kon the???
    4.aj tak sabase vistrit hindu samrajy khada karane vale chandra gupt ko pag pag par marg dikhane vale chanky kon the??
    5.vidhyarny swami kon the??
    6.ashok ko margdarshan karane vale upgupt kon the??
    7.kaldas kon the??
    8.brahamgupt,arybhatt,bhaskrachary,varahmir,chark,sushurt kon the??
    9.dahir sen kon the??
    10.maratho ke rajy ke samy sare peshv kon the???
    ye mene bahut chand nam likhe he,apko pata hi hoga ye kon the??me to enhe ek hindu manata hu par apake liye bata du sare ke sare “brhaman” upadhi vale the,ha brahman ek upadhi thi na ki jati,pichhale 1000 varsho me ye janm adharit jati bani he or rahi bat sangh ki to sangh ka sabse majabut kam abhi kerala me he jaha apaki theory ke hisab se “ary” he hi nahi,kyu???etane varsh ho gaye shakha me jate huve ye theory to pahali bar suni,par yah samjh me nahi aya ki apaki es theory ko ger brahaman svymevak kyo nahi samjhate he???jabki ap to bahut vidhavan he.kaya mast gappe mari he,apane communist bhaeyo ke tejshvi karname bhul gaye kya,jinako baba shab ambedakar ji ne “brahaman socialium” kaha tha.

  3. MaheshwarI ji: हमारा यह मानना है कि सतर्क ढंग से(?)प्रयोग करने पर……
    M, uvach: —–? This has not happened so far. What makes you expect that?
    Maheshwari ji :”इस प्रकार की गणना एक समतापूर्ण और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिये काफी उपयोगी साबित हो सकती है।”
    M. Uvach: You can not help the UNIFYING PROCESS by dividing.(SEE YOUR CONTRADICTION?) You can not evolve friendship by arousing enmity– which is what is happening. Tamas (sanskrit term) arouses Tamas. Sat (Sanskrit) aouses Sat…..says RamKrishna Paramhans. You are arousing Tamas, which will escalate Tamas (not Sat) in a society and will destroy the brothherhood left.
    Good escalates good.

  4. ” भारत में आरएसएस की आधारशिला भी इसी प्रकार के भ्रामक, ब्राह्मणों को आर्य और शासक नस्ल का मानते हुए जातीय श्रेष्‍ठता के सिद्धांत पर रखी गयी थी।”—— Arun Maheshwari

    THIS SHOWS YOUR LACK OF KNOWLEDGE.

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