यहां आज भी लोग गुफाओं में रहते हैं

 आशुतोष शर्मा

देश के महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक फैले मॉल, गांवों गांवों तक पहुंची मल्टीनेशनल कंपनियों के कोल्ड ड्रिक्स की बोतलें और महंगे मोबाईल फोन रखने वाले ग्रामीणों को देखकर ऐसा लगता है कि रोटी, कपड़ा और मकान अब लोगों की बुनियादी आवश्यकता नहीं रह गई है, बल्कि यह सब गुजरे जमाने की बातें मालूम होती हैं। लेकिन इसके बावजूद धरती का स्वर्ग कहे जाने वाली रियासत जम्मू-कश्मी र के कुछ हिस्सों में आज भी ऐसी बस्तियां आबाद हैं जो इंसान जिदगी की बुनियादी आवश्यतकताओं से भी कोसों दूर है। इनकी रोजमर्रा की जिंदगी को देखकर लगता है कि यह 21वीं सदी के नहीं बल्कि हड़प्पा और मोहनजोदाड़ों युग के निवासी हैं। मुझे विश्वा स है कि इस आलेख को पढ़ने के बाद पाठकों के मन में यदि कभी कश्मी र घुमने का इरादा होगा तो वह यकिनन 21वीं सदी के इस आदिम युग में जी रहे लोगों को देखना चाहेंगे। बल्कि मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि स्वंय इस राज्य के हुकुमरां और निवासियों को भी इस हकीकत का अबतक पता नहीं होगा।

जम्मु कश्मीेर के विकास में केंद्र और राज्य सरकार काफी गंभीरता से प्रयास करती रही है। इसके बावजूद ऐसा लगता है कि विकास का पहिया किश्तकवार जिला हेडक्वाटर्र से महज चंद किलोमीटर के फासले पर जाकर रूक जाता है। देश के दूसरे क्षेत्रों की तरह यह इलाका भी काफी पिछड़ा हुआ है। यहां डोगरी, पहाड़ी और किश्तदवारी समुदाय के अतिरिक्त गुर्जर और बकड़वाल कबीले के लोग बड़ी तादाद में आबाद हैं। जो अन्य समुदाय की अपेक्षा आर्थिक रूप से अत्याधिक कमजोर है। यह लोग अधिकतर खानाबदोश की जिंदगी बसर करते हैं। खास बात यह है कि अपनी कोई पहचान नहीं होने के कारण अब भी यह लोग जंगलों से घिरे पहाड़ों में प्राकृतिक तौर पर निर्मित गुफाओं में जिंदगी बसर करते हैं। किश्तगवार जिले के पदीर तहसील में पहाड़ों की उंचाईयों पर ऐसे बसेरे बड़ी तादाद में मौजूद हैं। कष्मीर की मशहूर नदी चनाब से पदीर की तरफ यात्रा करते हुए किनारे पर आपको गुफाओं में बने इनके मकान बड़ी आसानी से दिख जाएंगे। यह क्षेत्र घने जंगलों और बादलों से छुपे खूबसूरत पहाड़ों से घिरा हुआ है। प्राकृतिक संपदा से भरपूर इस क्षेत्र की काली मिट्टी में भरपूर उत्पादन करने वाले खेत और झरने से बहने वाले साफ पानी यहां आने वाले को ठहरने पर मजबूर कर देते हैं। लेकिन यहां आबाद किसी भी इंसान को अपनी जमीन मयस्सर नहीं है। यहां की स्थानीय जार पंचायत की करीब आधी आबादी प्राकृतिक तौर पर पहाड़ों की गुफाओं में बने घरों में रहते हैं। जिन्हें स्थानीय लोग ‘कोडू‘ कहते हैं। पिछले कई दहाईयों से यह लोग जिंदगी की बुनियादी आवश्याकताओं से खुद को जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं लेकिन हर बार इन्हें नाकामी ही हाथ लगी है। इस क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों के बहुतायात होने के बावजूद लेई, कजाई, कुंदल, कंथूलु, चैकी, देदी, चुनाईस, सुखना शाशु, चिरडी और भमानी जैसे गांवों में गरीबी और भुखमरी के गंभीर हालात हैं। जिसमें पलकर यहां की नई पीढ़ी कुपोषण का शिकार हो चुकी है। पहाड़ की गुफा में अधिकतर मकान लंबे और सीधे बने हैं जिसमें यहां रहने वालों के अलावा कोई भी बाहरी व्यक्ति जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है।

पत्थरों के बने इन गुफाओं में हर वक्त नमी बनी रहती है। इसके अतिरिक्त इसमें आक्सीजन की कमी और सूर्य की रौशनी का भी अभाव होता है। जो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से खतरनाक ही साबित हुए हैं। खराब मौसम में यहां के निवासी गुफा के अंदर ही खाना बनाने को मजबूर होते हैं। जिससे पूरे गुफा में धुआं भर जाने के कारण इनमें रहने वालों का सांस लेना भी दूभर हो जाता है। इसी कठिनाईयों ने यहां के नई पीढ़ी को भी दमा का मरीज बना दिया है। दूसरी ओर गुफाओं में आसानी से प्रवेश करने वाले सांप और दूसरे जहरीले प्राणियों से भी इन्हें सामना करना पड़ता है। घर के निर्माण के नाम पर इन लोगों ने बाहर से लकड़ी के दरवाजे लगा रखे हैं और बाकी हिस्सों को पत्थरों से ढंक दिया है। बारिश और बर्फबारी के समय इनकी गुफाओं में इंसान और जानवर एक साथ एक कोने में दुबके रहते हैं।

चरवाहे जैसी जिंदगी गुजारने वाले यह लोग चिनाब नदी के मुहाने पर रहते हैं जिसे पार करने के लिए इनके पास पुल तक नहीं है। ऐसे में यह लोग अपनी जिंदगी को खतरे में डालकर (देखें चित्र) नदी के उपर तने तारों से गुजरने को मजबूर हैं। इन पहाड़ों में ऐसी कई जगह हैं जहां आवागमन के लिए इसी प्रकार तारों का आज भी इस्तेमाल किया जाता है। कुछ क्षेत्रों में प्रशासन की ओर से तारों के मध्य लकड़ी के डोले लगाए गए हैं जो एक बार में केवल दो व्यक्ति का ही बोझ सहने की शक्ति रखता है। लेकिन तेज बारिश से नदी में आने वाले उफान के बाद एकमात्र बचा यह रास्ता भी बंद हो जाता है। सुखना शाशु के फरीद अहमद कहते हैं कि ‘लकड़ी के इन कमजोर डोलों का प्रयोग केवल बीमार और गर्भवती महिलाएं ही करती हैं।‘ लेकिन इनके टूटने के बाद गांव वाले एक बार फिर से उन्हीं रस्सी के सहारे नदी पार करने को मजबूर हो जाते हैं। अब तक कई लोग उफनती नदी को पार करते हुए मौत के शिकार हो चुके हैं। कजानाला (मौत का नाला) गांव के रफीक इन पहाड़ों में रहने के अपने अनुभव बताते हुए कहते हैं कि ‘हम यहां बहुत ही खतरनाक परिस्थिती में जीवन गुजारने पर मजबूर हैं। यदि कोई बीमार पड़ जाए तो हम उसे तहसील अस्पताल तक चारपाई पर भी डाल कर नहीं ले जा सकते हैं क्योंकि पहाड़ी दर्रों के मध्य रास्ते बहुत ही पतले और छोटे हैं। जब हमें इन पहाडि़यों पर चढ़ना या उतरना होता है तो हम चीटियों की तरह रेंगते हुए आते जाते हैं।‘

यह लोग पिछली कई पीढि़यों से जंगलों में तो जरूर रहते आ रहे हैं लेकिन प्रशासनिक रूप से यह इनका स्थाई ठिकाना नहीं है। क्योंकि जगलों पर अधिकार केवल वन विभाग का होता है। इस संबंध में सैफुउद्दीन कहते हैं कि ‘हम इन जंगलों में सदियों से रहते आए हैं लेकिन इसके बावजूद जंगलों और इनमें होने वाली पैदावार पर हमे कोई मालिकाना हक नहीं प्राप्त नहीं है। हम अस्थाई बसेरा बनाने के लिए भी लकडि़यों का प्रयोग नहीं कर सकते हैं। जिन लोगों के पास मवेषी हैं वह गर्मियों में पहाड़ों के उपर चले जाते हैं, इस दौरान भी वह गुफाओं में ही रहने को मजबूर होते हैं क्योंकि वहां भी अपना कोई मकान नहीं होता है।‘ जार इलाके के सरपंच मूलराज राठौर कहते हैं कि ‘केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश का कहना है कि वर्तमान में केंद्र सरकार के सामने सबसे बड़ा चैलेंज लोगों को शौचालय उपलब्ध करवाना है। लेकिन मैं उन्हें इस क्षेत्र में आमंत्रित करता हूं कि वह यहां आकर देखें और बताएं कि किस चीज की सबसे अधिक आवश्यलकता है।‘ उनका कहना है कि यहां के लोग सरकारी योजनाओं से न सिर्फ महरूम हैं बल्कि उन्हें इसके बारे कोई विशेष जानकारी नहीं होती है।

हालांकि सरकार ऐसे ही समाज के कमजोर लोगों के लिए ढ़ेरों योजनाएं बनाती है। जिसमें करोंड़ों रूपए खर्च करने का प्रावधान होता है। लेकिन साल के अंत में यह कहकर राशि लौटा दी जाती है कि इनका फायदा उठाने वाला कोई नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि उन्हें योजनाओं से अवगत कराने वाला ही कोई नहीं होता है।‘ राठौर कहते हैं कि ‘राज्य के चरपंथियों के कारण इन्हें सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ा है। इसके साथ साथ समय समय पर होने वाली प्राकृतिक आपदा के कारण भी इन लोगों को काफी तकलीफ उठानी पड़ती हैं। ऐसे में सरकार का फर्ज बनता है कि वह इनके पुर्नवास के लिए इन्हें उचित मुआवजा दे।‘ इसी गांव के 25 वर्शीय एक नवयुवक अशफाक अहमद बताते हैं कि ‘इन लोगों के पास कोई रोजगार नहीं होता है। इसलिए यह लोग अपने मवेशी के माध्यम से रेत और नदी के किनारे पत्थर निकालने का काम करते हैं। इस काम में इनका शोषण किया जाता है।‘ क्षेत्र के विधायक सज्जाद अहमद कचलू कहते हैं कि ‘मुझे विश्वा स नहीं होता कि मेरे क्षेत्र में लोग अब भी गुफाओं में रहते हैं। हालांकि मेरे क्षेत्र के अस्सी प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करती है। जिनके लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। लेकिन ऐसे लोगों के बारे में अबतक कोई जानकारी नहीं थी। यदि ऐसा है तो मैं उन्हें भी सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने का हर संभव प्रयास करूगां।‘

मगर प्रश्नक यह उठता है कि किसी क्षेत्र में लोग सदियों से ऐसी परिस्थिती में रह रहे हैं और वहां के जनप्रतिनिधि को इसकी खबर भी नहीं है, तो ऐसे में हम प्रभावशाली लोकतंत्र की कल्पना कैसे कर सकते हैं? खैर ‘देर आयद, दुरूस्त आयद‘ की तर्ज पर यदि सरकार और जनप्रतिनिधि गुफाओं में रहने को मजबूर ऐसे लोगों के विकास के लिए कोई कदम उठाते हैं तो इस बात का यकिन किया जा सकता है कि यह लोग हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो सभ्यता से निकलकर विकासशील सदी में जिंदगी गुजारने की सुविधा पा सकेंगे। (चरखा फीचर्स)

1 COMMENT

  1. जब विधायक महोदय को ही पता नहीं की उनके क्षेत्र में ऐसे लोग भी रहते हैं तो जन कर आश्चर्य होता है., सब को वोते और पैसे की पड़ी है,राज्य सरकार तो आतंक वादियों को खुश करने में लगी है,राज भवनमें बैठने वालों को उनका क्या ध्यान, और क्यों करे कोई काम.जब पूरा देश ही इस द्धारे पर चल रहा है, तो किस का क्या कसूर .

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