हर रात

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-रवि कुमार छवि-

poem

वो हर रात मेरे साथ सोती है
कभी तकिया बन कर तो कभी चादर बनकर
वो मेरे बदन से
ऐसी लिपटती मानो चंदन के पेड़ पर सांप
वो कभी प्रेमिका बनती
कभी माशूका
कभी चकले की वो लड़की जिसके जिस्म को कईयों ने
अपनी नज़र में तराशा
उसकी शरारत
सोने नहीं देती
बैचेन हो उठता हूं
जब बिस्तर पर वो आती नहीं
रुठ जाती है वो
अचानक जब उठ जाता हूं
वो झांकती है कमरे में
चुपके से पलकों को बंद कर देती है
मेरे मासूम चेहरे पर
अपनी पहचान छोड़ देती है
आंखें खोलता हूं
तो खुद को तन्हा पाता हूं
वो हर रात फिर से आती है
मेरे साथ सोने आती है
मेरी ‘नींद’ बनकर

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