हर शाख पे उल्लू बैठा है…..

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हमारे देश में राष्ट्र-निर्माण की बातें अक्सर लोग अपने भाषणों में और अपनी परस्पर की चर्चा में करते हैं। देश के स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस की बेला पर यह चर्चा और भी तीव्र हो जाती है। कई लोग चरित्र-निर्माण की बातें करते हैं। उसी में राष्ट्रनिर्माण को लाकर जोड़ देते हैं, तो कई चरित्र-निर्माण और राष्ट्र-निर्माण को अलग-अलग करके देखने का प्रयास करते हैं। वस्तुत: राष्ट्र-निर्माण और चरित्र-निर्माण दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, क्योंकि इन दोनों का मूल भी व्यक्ति है और लक्ष्य भी व्यक्ति है।

व्यक्ति को यदि निकाल दिया जाए तो न तो चरित्र-निर्माण की बातें हो सकती हैं और न ही राष्ट्र-निर्माण की बातें हो सकती हैं। इसलिए चरित्र-निर्माण के लिए व्यक्ति पर चर्चा करनी अपेक्षित होगी। राजनीतिक अर्थों में या राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों के विषय में भी यह बात उतनी ही लागू होती है जितनी सामाजिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के विषय में लागू होती है। आज राजनीति में रहकर जो लोग देशद्रोहियों का खुलेआम समर्थन कर रहे हैं और देशद्रोहियों के विरूद्घ कार्यवाही करने वाली सरकार को ही देशद्रोही कह रहे हैं, उन्हें भी चरित्र निर्माण से राष्ट्र निर्माण का पाठ पढाया जाना अपेक्षित है।

व्यक्ति-निर्माण के लिए यदि हम चिंतन करें तो भारत की आश्रम व्यवस्था को समझने से व्यक्ति-निर्माण से राष्ट्र-निर्माण के सारे रहस्य स्वत: स्पष्ट होते जाएंगे। हमारी आश्रम-व्यवस्था पूर्णत: ‘सकारात्मक श्रम’ पर आधारित है, हर आश्रम ‘आ’ और ‘श्रम’ कर यह उद्घोष कर रहा है, हर आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम, और संन्यास आश्रम) कह रहा है कि प्रमाद मत कर, आज के कार्य को कल पर मत टाल, अपना कत्र्तव्य समझ और जो वर्तमान है उसे सुधार। इसी से व्यक्ति-निर्माण होने लगेगा।

पहला आश्रम ब्रह्मचर्याश्रम है, जैसे बच्चे को पाठशाला में उसका अध्यापक गणित में पहले ‘जोडऩे’ का सवाल समझाता है, वैसे ही यह आश्रम भी जोडऩे का, शक्ति के संचय का, ज्ञान की वृद्धि का आश्रम है। जिसके लिए श्रम ही श्रम है। पुरूषार्थ है, संयम शक्ति का बढ़ाने का वृहद संकल्प भाव है। इसके पश्चात अगला सवाल विद्यालय में अध्यापक अपने छात्र को ‘घटाओ’ का सिखाता है। इसका अभिप्राय है कि गृहस्थ जीवन जो कि मानव जीवन का दूसरा आश्रम है, वह भी ‘घटाओ’ का है, इसमें शक्ति का अपव्यय होता है, ज्ञान का भी अपव्यय होता है। इस प्रकार सावधानी बरतते-बरतते भी हमारा पतन (घटाओ) होता है। बड़े यत्न से इस आश्रम को सुधारकर व संभालकर चलाने की आवश्यकता है।

अब आते हैं, तीसरे वानप्रस्थ आश्रम पर और पाठशाला में अध्यापक द्वारा समझाये जाने वाले तीसरे ‘गुणा’ के सवाल पर। इस आश्रम में व्यक्ति को अपनी शक्तियों में पुन: गुणात्मक परिवर्तन करने की आवश्यकता होती है। पतन हुई शक्तियों को गुणात्मक वृद्धि के साथ और बढ़ाना और ज्ञान में वृद्धि करना, जिससे कि गृहस्थ में रहते हुए जो त्रुटियाँ हो गयी हों, उन्हें ठीक कर लिया जाए। जैसे एक बीज अंकुरित होकर जब धरती से बाहर आता है तो उसका रंग पीला होता है। इस प्रकार वानप्रस्थी के पीले कपड़े ‘उगने’ का संकेत करते हैं, कि अब मैंने अपने भीतर गुणात्मक परिवर्तन कर लिए हैं, और मैंने ‘उगने’ की क्षमता धारण कर ली है।

चौथा सवाल विद्यालय में ‘भाग’ अर्थात् बाँटने का होता है। इसी प्रकार हमारा चौथा आश्रम संन्यास भी ‘बाँटने’ का होता है। जीवन के सारे अनुभवों को और ज्ञानादि को समाज के लाभ के लिए सब में बाँट देना, सबको निर्लेप भाव से अपने अनुभवजन्य ज्ञान से लाभान्वित करने के लिए उसे सबको दे देना। माँगने पर भी देना और बिना माँगे भी देना-यह संन्यास आश्रम की व्यवस्था है। ऐसे ज्ञानवृद्ध लोग जो सबका भला चाहते हैं, सबके लिए आदरणीय हो जाते हैं समाज उनका सम्मान करता है, और उन्हें अपने लिए अनुपयोगी नहीं समझता। यह थी हमारी आश्रम व्यवस्था, जिसका अंतिम परिणाम व्यक्ति के चरित्र निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण के रूप में दिखता है। इसी को व्यष्टि से समष्टि की ओर बढऩा कहा जाता है। अभिप्राय स्पष्ट है कि व्यष्टि से ही समष्टि निर्माण होता है। इसी को राष्ट्र निर्माण कहते है। महर्षि दयानंद का प्रिय मंत्र था- ‘‘ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव:। यद् भद्रं तन्नासुव:।’’

अर्थात् हे परमपिता परमेश्वर आप कृपा करके हमारे संपूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुखों को हमसे दूर कर दीजिए और जो भद्र है मंगलकारी है, दूसरों के कल्याण के लिए आवश्यक है, ऐसे सभी गुण, कर्म, पदार्थ और स्वभाव को हमें प्राप्त कराइये।

महर्षि ने ‘भद्र’ शब्द की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि चक्रवर्ती सम्राट बनकर मोक्ष प्राप्त करना व्यक्ति का ‘भद्र’ हो जाना है। कितनी बड़ी साधना और कितनी बड़ी भक्ति का प्रतीक है यह भद्र शब्द। हर किसी को आप ‘भद्र पुरूष’ नहीं कह सकते। हमने किसी सीधे-सादे, भोले-भाले, अज्ञानी से व्यक्ति को ‘भद्र’ कहना आरंभ कर दिया। हमें नहीं पता कि ऐसा कहना ‘भद्र’ शब्द का अपमान करना है। यह भद्रता की साधना भी चरित्र-निर्माण और राष्ट्र निर्माण के हमारे संकल्प की ओर संकेत करती है। हमारे भीतर प्रवेश करने वाले सभी मंगलमय गुण, कर्म, पदार्थ और स्वभावादि हमें ऐसे भद्र का उपासक और साधक बना डालें, जिससे हम राष्ट्रनिर्माण कर सकें और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ एवं ‘कृण्वन्तोविश्वमाय्र्यम’ के अपने महान लक्ष्य की प्राप्ति कर सकें। हमारा चिंतन ऊँचा हो।

चिंतन की उच्चता और चिंतन की पवित्रता से ही व्यक्ति का निर्माण होता है। चिंतन में पवित्रता आती है-ब्रह्म जैसा आचरण और ब्रह्म जैसा खान पान कर लेने से। ब्रह्मचर्य शब्द में चर्य के ये दो ही अर्थ हैं। जिसका चाल-चलन और खानपान ब्रह्म जैसा हो जाए, वही ब्रह्मचारी है, और वही चरित्रवान है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य भी चरित्र निर्माण का और राष्ट्र निर्माण का एक संकल्प है। जिसे आश्रम व्यवस्था पूर्ण कराती है। राष्ट्र निर्माण के लिए भारत की इस व्यवस्था से उत्तम कोई व्यवस्था नहीं हो सकती।

जब भारत के अतीत और वर्तमान पर दृष्टि डालते हैं तो ज्ञात होता है कि हमारी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मान्यताओं में भारी परिवर्तन आ गया है। आज चिंतन की पवित्रता पर और चिंतन की उच्चता पर सभी धर्मों में प्रमुख राजधर्म कुछ भी ध्यान नही दे रहा है, राजनीति धर्म (कत्र्तव्य-कर्म) शून्य हो गयी है। सारा विपक्ष जब से भाजपा सत्ता में आई है, अपने कत्र्तव्यविमुख होने का कई बार परिचय दे चुका है, परंतु अब जेएनयू की घटना में संलिप्त छात्रों के विरूद्घ की गयी कानूनी कार्यवाही को लेकर जिस प्रकार विपक्ष ने मोदी सरकार को अपमानित करने का प्रयास किया है, यह प्रयास तो अब तक के सारे प्रयासों में निकृष्टतम रहा है। मोदी या भाजपा का विरोध यदि विपक्ष करता है तो समझ में आ सकता है, पर राष्ट्रद्रोही लोगों का साथ देकर तो विपक्ष सारे देश का ही अपमान कर रहा है। लगता है कि– ‘हर शाख पे उल्लू बैठा है,अंजामे गुलिश्तां क्या होगा?’

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