ईवीएम संदेह के कुहांसे में

EVMकिसी ने आंख में लगा काजल चुराते हुए नहीं देखा है, फिर भी जब ऑंख का काजल चुराने की कहावत है तो इसका कुछ मर्म, सत्य भी होगा। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया है कि वह इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) की जांच कर बताए कि ईवीएम से छेडछाड़ किये जाने के आरोपों में क्या सच्चाई है। एक जनहित के मामले में याचिका करते हुए वीवी राव ने सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना की है कि ईवीएम की जांच के लिए विशेषज्ञ समिति गठित की जाए। शिव सेना के पांच बार सांसद रहे मोहन रावले ने तो पंद्रहवीं लोकसभा के नतीजों को ही निरस्त करने की मांग कर डाली। याचिका में ईवीएम की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाते हुए ईवीएम के बजाय मतपत्र की पुरानी पद्धति से चुनाव कराने का आग्रह किया गया है। याचिका में इस बात का खुलासा भी किया गया है कि ईवीएम के उपयोग को उन देशों ने भी खारिज कर दिया है, जो पहले इसे नई प्रौद्योगिकी में सिरमौर बनने के चक्कर में अपना चुके थे। पूर्व उपप्रधानमंत्री और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने पहले ही कहा है कि चुनाव आयोग को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पूरी तरह फूल प्रूफ है। यदि इनके इस्तेमाल में विश्वसनीयता की कोई कमी है, तो फिर आने वाले विधानसभा चुनाव महाराष्ट्र और अन्य प्रदेशों में ईवीएम का उपयोग हरगिज नहीं किया जाना चाहिए। लालकृष्ण आडवाणी के बयान के बाद कुछ लोगों ने इसे पराजय की कुंठा कहके सच्चाई पर आवरण डालने का प्रयास भी किया। लेकिन ईवीएम की विश्वसनीयता पर संदेह व्यक्त करने वाले अन्य दल भी इस बहस में पीछे नहीं रहे हैं। राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू यादव ने कहा कि जनता हैरान है कि उसका वोट कहां जा रहा है। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने भी बेल पेपर के इस्तेमाल की वकालत की है। उन्हें अफसोस है कि उनकी बात का पुरजोर समर्थन नहीं किया गया था। उनका कहना है कि चुनाव आयोग को आगे ईवीएम का उपयोग करने के पहले जन भ्रम का निवारण करना चाहिए। इससे लालकृष्ण आडवाणी के सुझाव को बल मिला है। अब ईवीएम के जरिए पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम शिरोधार्य करने के बाद भी ईवीएम की असंदिग्ध रूप से संदिग्धता पर से परदा उठाना एक चुनौती बन गयी है।

ईवीएम के बारे मे रोचक तथ्य यह है कि ईवीएम की खरीद पहले की गयी और इसके संचालन के नियम भी बाद में बनाए गए। जानकारों का मानना है कि ईवीएम के उपयोग के नियम 1997 में बनाए गए जबकि चुनाव आयोग ने 1989-90 में डेढ़ लाख ईवीएम की खरीद कर ली थी। ईवीएम की खरीद का आर्डर भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड, बंगलौर, इलेक्ट्रानिक्स कार्पोरेशन आफ इंडिया हैदराबाद को दिया गया था। इनकी खरीद में भी वित्तीय संहिता का उल्लंघन किया गया। टेंडर आमंत्रित किये जाने की आवश्यकता इसलिए नहीं समझी गयी क्योंकि समरथ को नहीं दोष गुसाई पुरानी कहावत है। मत पत्र मतपेटी में डालकर मतदान करने की प्रणाली को भी दोष मुक्त नहीं कहा जा सकता है। तब बूथ लूटने और जबरिया मतपत्र छापने की शिकायतें होती थी। ईवीएम मशीन के प्रयोग से इन शिकायतों पर अंकुश लगा है। लेकिन ईवीएम को लेकर जो शंकाएं उत्पन्न होने लगी है कि वे भी भारतीय लोकतंत्र की शुचिता और निष्पक्षता पर सवालिया निशान लगाती हैं। चुनावों को दोष मुक्त करने के लिए चुनाव सुधारों को लेकर बहसें चल रही हैं। इनमें स्टेट इलेक्शन फंडिंग भी शामिल है। इस बहस को चुनाव आयोग ने केन्द्र सरकार के पाले में डाल दिया है। चुनाव में पारदर्शिता की दृष्टि से पुनर्मतगणना की नौबत आज आम हो चुकी है। क्योंकि मतों का बिखराव यादा हुआ है। कम मतों से हार जीत ने पुनर्गणना को प्रोत्साहन दिया है। ईवीएम मशीन पार्टी वार गणना करने में बेजोड़ है। परंतु निजी मतों की दोबारा गिनती करने में बाधा है। जहां तक मत पत्रों द्वारा मतदान का सवाल है, वहां आप अनेक बार पुन: मतगणना कर सकते हैं। ईवीएम से दलगत वोटों की गिनती तो संभव है, लेकिन अमुक बूथ पर उम्मीदवार को कितने वोट मिले, यह पता लगाना संभव नहीं है।

मतदाता ईवीएम का नीले रंग का वटन दबाता है, तो लालबत्ती के साथ धीमी ध्वनि बीप सुनाई देती है, लेकिन मतदाता यह नहीं जान पाता कि उसका वोट किसके नाम दर्ज हुआ। वेलट पेपर पर तो वह मोहर लगाता है और संतुष्ट हो जाता है कि उसने मनपसंद उम्मीदवार का ही समर्थन किया है। वोट के बारे में यह संतुष्टि ईवीएम नहीं देती। एक बात यह भी है कि बूथ का अधिकार तो सीधे तौर पर मशीन का नियंत्रण करता है। इसलिए अनपढ़ मतदाता को यह भी संदेह बना रहता है कि उसका मतदान गुप्त रहा है, अथवा नहीं।

ईवीएम गुप्त और निष्पक्ष मतदान का सबसे बड़ा साधन तो है, लेकिन इसकी प्रामाणिकता पर निर्वाचन आयोग की ही मोहर है। जबकि ईवीएम नवीनतम प्रौद्योगिकी पर आधारित है, इस पर प्रौद्योगिकी के प्रामाणिक निकाय की मोहर अंतिम और असंदिग्ध हो सकती है। पहले पहले जब 1998 में ईवीएम के प्रयोग पर विचार हुआ तो तकनीकी विसंगतियों पर चर्चा हुई थी। लेकिन तब इन्हें गंभीरता से लिया ही नहीं गया। लोकतंत्र के हित में किसी भी मुद्दे पर जितनी खुली बहस होगी, उससे परिपक्वता लाने में मदद मिलेगी। इस दृष्टि से यदि इसके निर्माण के बारे में विचार करते तो कई विसंगतियां नजर में आती हैं। ईवीएम के बारे में भारतीय जनता पार्टी ने इसकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह तो व्यक्त किया है, लेकिन उसने यह नहीं कहा कि पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव को इन विसंगतियों ने कहीं प्रभावित किया है। इससे बहस को रचनात्मक दिशा मिलती है। भारतीय जनता पार्टी ने सिर्फ मशीन के माताफंकशनिंग और टेम्परिंग की आशंका व्यक्त की है। जिससे ईवीएम के फूल प्रूफ होने पर प्रश्न उठता है। दिल्ली के पूर्व मुख्य सचिव उमेश सहगल ने तो ईवीएम मशीन को निर्वाचन आयोग कार्यालय ले जाकर इसके उपयोग में गड़बड़ियों को व्यवहारिक रूप से उजागर किया है। उनका आरोप है कि निर्दिष्ठ उम्मीदवार को हर पांचवां वोट हासिल हो जाए। यहां एक बात उभर कर आती है कि ईवीएम में जो साफ्टवेयर उपयोग हो रहा है, क्या उसकी प्रामाणिकता से जांच की गयी है। ये मशीनें पांच, छ: वर्ष पहले बनायी गयी थी। इनके टेम्परिंग का पता लगाने में अरसा गुजर चुका है। इस पूरे विवाद में निर्वाचन आयोग के पास एक ही कवच है कि उसने सार्वजनिक उपक्रम बीईएल और ईसीआईएल से प्रमाण-पत्र हासिल किया है। लेकिन इसमें भी एक पेंच है जिसकी तरफ कदाचित ध्यान नहीं जाता है। सार्वजनिक उपक्रमों ने इस निर्माण और प्रमाणीकरण में अन्य सहयोगी संस्थानों को भागीदार बनाया है। अंतिम प्रमाणीकरण इनके ही प्रमाण और इनकी जांच पर निर्भर है। इससे यह अनुमान भी सत्यता हो सकती है कि निर्वाचन आयोग और सार्वजनिक उपक्रमों ने निजी तौर पर इन ईवीएम की प्रामाणिकता को प्रौद्योगिकी के सही धरातल पर परखा ही नहीं है। बिना अंतिम और अधिकारिक जांच के मशीनें काम में आ रही हैं।

यहां तक आशंका भी पैदा होती है कि इन सार्वजनिक उपक्रमों के पूरक संस्थान कुछ खेल करने की गुंजाइश आसानी से सुझा सकते हैं। इन आशंका को वस्तुगत आधार पर जांचे जाने की गुंजाईश से इंकार नहीं किया जा सकता है। फिर एक बात यह भी है कि इन मशीनों में जो माइक्रोचिप्रस इस्तेमाल किये जाते हैं, वे विदेशी उत्पाद है। इस समग्र जांच की अनदेखी करते हुए करोड़ों मतदाता ईवीएम के जरिए अपना मतदान कर रहे हैं। यह जानबूझकर की गयी गलती भले तो कही जाएगी। इसकी जवाबदेही से देश के वे सार्वजनिक उपक्रम बीईएल और ईसीआईएल भी मुक्त नहीं है जिन्होंने देश की निर्वाचन प्रणाली को पारदर्शी, स्वतंत्र बनाने के लिए ईवीएम की पूर्ति की है।

यहां देश के उन तकनीशियनों और इंजीनियर की उस अवधारणा को भी सिरे से खारिज करने का कोई कारण नहीं दिखता, जो अरसे से कह रहे हैं कि ईवीएम में इस्तेमाल किया जा रहा है, साफ्टवेयर रिगिंग की संभावनाओं से मुक्त नहीं है। 2004 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ईवीएम की विश्वसनीयता पर दाग लग चुका है।

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में निर्वाचन प्रक्रिया की शुचिता दुनिया में सर्वमान्य है। मतपत्रों के उपयोग में आई गड़बड़ियों के बाद काफी सोच विचार कर निर्वाचन आयोग ने ईवीएम का उपयोग किया है। इसे तत्काल पलटे जाने का जोखिम उठाना संभव नहीं है तथापि देश के जानकार इंजीनियरों ने जो आशंकाएं व्यक्त की हैं, उनका जवाब खोजना लोकतंत्र के हित में होगा। ईवीएम के साथ छेड़छाड़ को लेकर सबसे पहली भ्रांति प्रोगेसिंग की है, इसमें बटन कहीं भी दवे, 70 प्रतिशत वोट निर्दिष्ठ प्रत्याशी के पक्ष में दर्ज हो सकते हैं। सिस्टम में हेराफेरी करने के लिए ईवीएम को वायरलेस ट्रांसमीटर लगाकर इंटरनेट से जुड़े कम्प्यूटर से हेक किया जा सकता है। डाटा में फेरबदल ईवीएम कंट्रोल यूनिट में अतिरिक्त सीरियल पोर्ट लगाकार किसी दूसरे कम्प्यूटर की मदद से प्रोग्रामिंग ही नहीं डाटा बदला जा सकता है। हेकिंग साफ्टवेयर से पूरी इलेक्ट्रानिक डिवाइस से ईवीएम और वोटों की गिनती में इस्तेमाल होने वाले कम्प्यूटर से दुनिया के किसी भी कोने से छेड़छाड़ की जा सकती है। मेमोरी से छेड़छाड़ करना आसान है। फर्जी मत जोड़े जा सकते हैं। निर्वाचन आयोग इतना सुनिश्चित करे कि मतदाता आश्वस्त हो कि वह जिस मतदाता को समर्थन कर रहा है, उसका मत उसी के खाते में दर्ज हो।

– भरतचन्द नायक

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