वंदेमातरम का बहिष्कार अलगाववादी मानसिकता

vandematramप्रमोद भार्गव

राष्ट्रगीत का बहिष्कार संसद और संविधान के अपमान के साथ अलगाववादी मानसिकता का प्रतीक है। यह मामला तब और गंभीर हो जाता है, जब संसद में एक निर्वाचित सांसद वंदे मातरम की उपेक्षा करे। क्योंकि सांसद न केवल बहुधर्मी और बहुजातीय मतदाताओं के बहुमत से संसद में पहुचता है, बलिक धर्म व जातीयता से उपर उठकर देश व जनहित की शपथ लेकर अपने कर्तव्य का पालन शुरू करता है। लिहाजा यह मुददा धर्म और राजनीति से परे राष्ट्रीय गरिमा और सोच से जुड़ा मसला है। यदि राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान करने वाले लोगों के विरुद्ध कड़ी कार्रवार्इ नहीं की गर्इ तो इससे अलगाववाद की संकीर्ण मानसिकता को विस्तार मिलेगा और जनता में गलत संदेश जाएगा। इसलिए इस्लाम के बहाने वंदेमातरम का विरोध करने वाले सांसद शफीकुर्रहमान बर्क यदि माफी नहीं मांगते तो उन्हें संसद की सदस्यता से तो बर्खास्त किया ही जाए, पूर्व सांसदों व विधायकों को मिलने वाले विशेषाधिकार व सुविधाओं से भी वंचित किया जाए। राष्ट्रीय गरिमा को प्रधानता देते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती को भी इस अपमान पर गौर करने की जरुरत है। मालूम हो कुछ समय पहले व्यंग्य चित्रकार असीम त्रिवेदी ने राष्ट्र के प्रतीक अशोक चिन्ह के साथ छेड़छाड़ करते हुए जो कार्टून बनाया था, तो उन्हें महाराष्ट्र पुलिस ने हिरासत में लेकर जेल में डाल दिया था। यह अच्छी बात है कि लोकसभा अध्यक्ष मीराकुमार ने इस मुददे को गंभीरता से लिया है।

बंकिम चंद्र चटर्जी के बांग्ला भाषा में लिखे उपन्यास ‘आनंद मठ से राष्ट्रगीत के रुप में स्वीकारा गया यह गीत कोर्इ मामूली गीत नहीं है। भारत को उसकी व्यापक राष्ट्रीयता की पहचान और स्वाभिमान इसी गीत से प्राप्त हुए। नागरिक सभ्यता की विरासत, अभिव्यकित की स्वतंत्रता और मानव सेवा के मूल्यों के उत्स इसी गीत के समवेत स्वर की उपज हैं। अंग्रेजों के विरुद्ध भिन्न जातीय और धर्म-समुदायों को संगठित करने के अभियान में इसी गीत की भूमिका बुलंद थी। तय है, वंदे मातरम क्रांति के स्वरों में नींव का पत्थर था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की रक्त धमनियों में विद्रोह की उग्र भावना इसी गीत की देन है। 1942 में महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन को देशव्यापी धरातल इसी गीत के बूते मिला था। और वह यही आंदोलन था, जिसमें गांधी ने ‘करो या मरो का नारा दिया था। सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज के फौजियों ने भी इसी गीत को गाते हुए मातृभूमि की बलिवेदी पर प्राण न्यौछावर किए। 14 अगस्त 1947 की मध्य-रात्रि में जब देश आजाद हो रहा था, तब इस मंत्र गीत का गायन श्रीमती सुचेता कृपलानी ने किया और वहां उपसिथत लोग इस गीत के सम्मान में गीत खत्म न हो जाने तक खड़े रहे। 15 अगस्त 1947 को जब स्वतंत्रता का सूर्योदय हो रहा था, तब आकाशवाणी पर पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने इसे बड़े ही रोचक ढंग से गाया। आखिरकार 24 अगस्त 1948 को जन-गण-मन के साथ इस गीत को भी राष्ट्र गीत की प्रतिष्ठा मिली। लेखक और दार्शनिक युगद्रष्टा होते हैं, इसलिए बंकिम बाबू ने इस गीत को लिखे जाने के वक्त ही अपनी दिव्यदृष्टि से अनुभव कर लिया था कि यह गीत राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनकर लोकप्रियता के शिखर चूमेगा, इसीलिए उन्होंने इसे बंगाली भाषा में न लिखते हुए संस्कृत में लिखा। मूल और संपूर्ण गीत की केवल नौ पंकितयां बंगाली में हैं। इस गीत का जो संपादित अंश राष्ट्रगीत के रुप में स्वीकार किया गया है, वह केवल आठ पंकितयों का है।

वंदे मातरम को इस्लाम विरोधी जताया जाना कोर्इ नर्इ बात नहीं है। जब कांग्रेस ने इसे प्रार्थना गीत के रुप में स्वीकार किया था, तब भी इसकी खिलाफत हुर्इ थी। तब 1937 में कांग्रेस कार्यकारिणी ने आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इसमें मौलाना आजाद पंडित नेहरु और सुभाषचन्द्र बोस जैसे प्रखर संस्कृति मर्मज्ञ सदस्य थे। समिति को जिम्मेबारी सौंपी गर्इ थी कि वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर से मशविरा कर वंदे मातरम के संबंध में दो टूक सलाह दें। समिति द्वारा रवीन्द्रनाथ से परामर्श के बाद जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया, उसके उपरांत कांग्रेस कार्यकारिणी ने फैसला लिया कि हरेक राष्ट्रीय व सार्वजनिक सभा में वंदे मातरम के केवल दो पद गाये जाएं। ऐसे अवसरों पर भारत विभाजन के जनक मोहम्मद अली जिन्ना भी इस गीत को आदर के साथ खड़े होकर गाया करते थे। तय है गीत पर विवाद का समाधान स्वतंत्रता से पहले ही हो चुका था।

बाद में देश के विभाजन के लिए जिम्मेबार मुस्लिम लीग के नेताओं ने जरुर वंदे मातरम को बुतपरस्ती, मसलन मूर्तिपूजा के लिए विरोध किया। इस बहाने लीगियों ने अल्पसंख्यकों को खूब उकसाया। नतीजतन 1938 तक कांगेस के जो प्रमुख मुस्लिम नेता इस गीत की राष्ट्रीय गरिमा का ख्याल रखते चले आ रहे थे, वे भी दबी जुबान से इस गीत का विरोध करने लग गए। इसकी प्रतिकि्रया सवरुप बहुसंख्यक हिंदू और सिख हठपूर्वक इस गीत की महिमा के बखान में लगे रहे। बाद में साझा सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने के नजरिये से उदर्ू के उदारवादी कवियों व राजनीतिकों ने वंदे मातरम का अनुवाद ‘ऐ मादर, तुझे सलाम करता हूं किया, अर्थात हे माता, तुझे सलाम करता हूं। मुल्क को गुलामी से आजाद कराने की इस इबादत में गलत क्या है ? अरबी फारसी के भी अनेक कवियों ने भी देश को ‘मां कहकर संबोधित किया है। लिहाजा राष्ट्र के प्रति अपनी भावनाओं व उदगारों को प्रचलित रुपकों अथवा प्रतीकों में प्रगट करना मूर्तिपूजा या बुतपरस्ती कतर्इ नहीं है। वंदे मातरम एक मौलिक रचना है, इसकी व्याख्या धर्म नहीं, केवल साहित्य के संदर्भ में होनी चाहिए। इसे यदि कोर्इ सांसद इस्लाम विरोधी जताता है, तो उसका मकसद धर्म के बहाने राजनीतिक रोटियां सेंकना है, जो अलगाववादी राजनीति की संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक है।

खुद बंकिमचन्द्र ने लिखा है कि ‘ हिन्दू होने पर ही कोर्इ अच्छा नहीं होता है, मुसलमान होने पर कोर्इ बुरा नहीं होता और न ही मुसलमान होने पर कोर्इ अच्छा होता है या हिन्दू होने पर कोर्इ बुरा होता। अच्छे बुरे दोनों जातियों में हैं। यही हाल संसद में है। संसद में बर्क ऐसे सांसद हैं, जो इस्लाम के बहाने जिस राष्ट्रीयता का अपमान करते हैं, उसी राष्ट्रीयता के सम्मान में अन्य मुस्लिम सांसद सुर में सुर मिलाते हैं। ऐसे ही चंद सिरफिरे मुसिलमों ने आजाद हिंद फौज के नारे, ‘ जय हिंद का भी विरोध किया था, जब दैनिक अखबार ‘डान ने वंदे मातरम की आलोचना की तो महात्मा गांधी को कहना पड़ा, ‘वंदे मातरम कोर्इ धार्मिक नारा नहीं है, यह विशुद्ध राजनीतिक नारा हैं। यही नारा था, जिसने सोये हुए भारत को जगाने का काम करके, आजादी हासिल करार्इ थी।

वंदे मातरम नहीं गाकर, कोर्इ गुनाह नहीं करने का दावा करने वाले बर्क चार मर्तबा विधायक और चौथी बार बसपा सांसद हैं। इससे पहले सपा से सांसद थे। हैरानी इस बात पर भी है कि इस मसले पर सपा और बसपा दोनों ने मुंह सिल रखे हैं। राजनीतिक स्वार्थ के लिए राष्ट्र हितों को दरकिनार करना राष्ट्रघाती सोच है। बर्क वंदे मातरम का विरोध करने के आदी हो गए हैं। उन्होंने 1997 में संसद की स्वर्ण जयंती के अवसर पर भी अपना विरोध दर्ज कराया था। कुछ समय पहले देश के दिग्गज सांसदों ने सर्व-सम्मति से निर्णय लिया था कि संसद के सत्र का शुभारंभ राष्ट्रगान यानी जन-गण-मन…से होगा और सत्रावसान राष्ट्रगीत वंदे मातरम से। इस फैसले के वक्त कोइ्र एक धर्म विशेष के सांसद संसद में मौजूद नहीं थे, बलिक सभी धर्मों के थे, लिहाजा यह फैसला सब धर्मावलंबियों को मान्य था। ऐसे में जरुरी हो जाता है कि संसद की गरिमा को पलीता लगाने वाले और राष्ट्रीयता के प्रतीक गीत का अपमान करने वाले सांसद को कानून के दायरे में सबक सिखाया जाए। जिससे संसद में संकीर्ण सोच का विस्तार न हो। सांसद बहुमत से लिए निर्णयों का आदर करने के लिए हैं, न कि निरादर के लिए ?इस लेख की संदर्भ सामग्री विश्वनाथ मुखर्जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘वंदेमातरम का इतिहास’ से ली गयी है।

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