अपेक्षाओं और आशंकाओं के बीच ‘आप’ की सरकार

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arvind-हिमकर श्याम-

देश का जनमानस बदल रहा है। हाल के चुनाव नतीजों और उसके बाद के राजनीतिक परिदृश्य इस बदलाव की ओर इशारा करते हैं। दिल्ली की जनता ने जहां 15 सालों से शासन कर रही कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया वहीं बीजेपी को सरकार लायक बहुमत न देकर सबक सिखाया। सत्ता की राजनीति और भ्रष्ट व्यवस्था से ऊब चुके जनमानस ने आम आदमी पार्टी पर अपना भरोसा जताया है। ‘आप’ एक उम्मीद बन कर जनमानस के सामने आयी है। अपनी राजनीतिक पारी का आगाज ‘आप’ ने जिस तरह किया है उससे भाजपा और कांग्रेस सकते में हैं। दोनों पार्टियां आत्ममंथन के लिए मजबूर हो गई हैं। ‘आप’ की सफलता के बाद लगने लगा है कि देश में साफ-सुथरी राजनीति की गुंजाइश बची हुई है। ‘आप’ की सरकार भारतीय लोकतंत्र के लिए एक ऐतिहासिक परिघटना साबित हो सकती है। सरकार गठन की प्रक्रिया के बीच ‘आप’ और कांग्रेस में बगावती स्वर सुनाई देने लगे है। देखना दिलचस्प होगा कि बेशुमार चुनौतियों और आशंकाओं का भार लिए ‘आप’ अपने वायदों को कितना और किस तरह से अमल में लाती है।

‘आम आदमी पार्टी’ आम आदमी की भावनावों का प्रतीक बन कर उभरी है। घिसी-पिटी राजनीति में लोगों को अपनी समस्याओं का समाधान नजर नहीं आता है। हमारी राजनीतिक-संवैधानिक व्यवस्था बुरी तरह सड़-गल गई है। आम जनता को नेताओं की नीयत और मौजूदा व्यवस्था पर भरोसा नहीं रह गया है। छह दशक पहले देश के सामने जो चुनौतियां थीं, वह आज भी उसी रूप में खड़ी हैं। बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी की समस्या बड़ी चुनौती के रूप में बरकरार है। हमारी गणना विश्व के सबसे भ्रष्ट देशों में होने लगी है। दुनियाभर के देशों में भ्रष्टाचार की स्थितियों का आकलन करनेवाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने अपनी हालिया रिपोर्ट में भारत में इसकी भयावह स्थिति का जिक्र किया है। देश में गरीब और अमीर के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीरों का पैसा लगातार बढ़ता जा रहा है। गरीबी रेखा से नीचे जीनेवालों की संख्या भारत में सर्वाधिक है। भारत के गांव आज भी बदहाल हैं। एक-तिहाई जनता कुपोषण का शिकार है। सरकार का महंगाई पर कोई नियंत्रण नहीं है। आम आदमी का जीवन सुरक्षित नहीं है। इस स्थिति के लिए जिम्मेवार कौन है? पिछले दशकों में इस व्यवस्था में जो भयावह विसंगति पैदा हुई है उसने देश को यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि राजनीतिक, संवैधानिक व्यवस्था हमारी आवश्यकताओं-आकांक्षाओं के अनुरूप है या नहीं?

‘आप’ का उदय पूरे देश की मौजूदा राजनीति व्यवस्था को एक चुनौती है। वर्तमान राजनीति में ईमानदारी एक सिरे से गायब है। हमारे नेताओं का मूल्यों और मुद्दों से कोई वास्ता नहीं है। राजनीतिक दलों ने उन मुद्दों को भुला दिया है जो देश के असल मुद्दे हैं। आम आदमी की बात, विकास की बात, रोजी-रोटी और सड़क की बात कोई नहीं करता। इन नेताओं के लिए राजनीति जनकल्याण का माध्यम न होकर अर्थ साधना एवं भोग का माध्यम है। पद और गोपनीयता की शपथ लेने के बाद जनप्रतिनिधियों के तेवर बदल जाते हैं। जनता की समस्याओं को भूला कर उनकी सारी चिंता अपनी सुख-सुविधाओं को बढ़ाने तक ही सीमित रह जाती है। जनकल्याण और विकास के लिए जनप्रतिनिधियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है लेकिन विसंगति है कि हमारे जनप्रतिनिधि अपने दायित्वों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। जनता की आवश्यकताओं और समस्याओं से किसी को मतलब नहीं है। राजनीतिक दल जनकल्याण की बातें केवल राजनीतिक नारों के लिए करते हैं। दलों की कोशिश यही रहती है कि चुनाव में उसके अधिक से अधिक सदस्य विधानसभाओं और संसद में पहुंचे ताकि वह सरकार बना सके, सत्ता में आ सके। सत्ता में आने के लिए जोड़-तोड़ और खरीद-फरोख्त से कोई परहेज नहीं करता। सत्ता पक्ष और विपक्ष सब एक रंग में रंगे नजर आते हैं। जनसेवा से प्रेरित और सिद्धांतों पर आधारित राजनीति बीते युगों की बात जैसी लगती है। जनता व्यवस्था और उसे चलानेवाले को बदलना चाहती है। ‘आप’ की कामयाबी में भ्रष्टाचार, मंहगाई, गरीबी और बेरोजगारी जैसे मुद्दों का अहम योगदान रहा है। दरअसल ‘आप’ की सरकार व्यवस्था के विरोध से उपजे जनाक्रोश का प्रतिनिधित्व करती है।

व्यवस्था के विरूद्ध कोई आंदोलन खड़ा करना जितना मुश्किल है, उससे ज्यादा कठिन है उसे संपूर्ण भावना के साथ बरकरार रखना और उसे मजबूती प्रदान करना। देश में जितने आंदोलन हुए हैं उनका अंत एक सा ही रहा है। सारे आंदोलन अंत में राजनीति की बलि चढ़ गये। व्यवस्था परिवर्तन के लिए शुरू की गयी मुहिम सत्ता परिवर्तन तक ही सीमित रह जाती है। भ्रष्टाचार पर लोग तभी तक गंभीर दिखते हैं जब तक वे सत्ता से दूर रहते हैं। सत्ता मिलते ही सबकुछ पूर्ववर्ती सरकारों की तर्ज पर ही चलने लगता है। सत्ता व्यक्ति को भ्रष्ट और निरंकुश बनाती है। अप्रत्याशित जीत के बाद ‘आप’ नेताओं के बयानों और व्यवहारों में अहंकार झलकने लगा है। सत्ता में आने के बाद बदलाव के इन नायकों का दंभ और निरंकुशता बढ़ सकती हैं। उन्हें इनसे बचना होगा और खुद को मजबूत रखना होगा।

दिल्ली की जनता को ‘आप’ से ढेरों अपेक्षाएं हैं। उसे लगता है कि केजरीवाल स्वच्छ प्रशासन और उत्तरदायी शासन दे सकते हैं। केजरीवाल और उनकी टीम की राह में चुनौतियां भी बेशुमार हैं। मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें सस्ती बिजली, मुफ्त पानी, अनाधिकृत कॉलोनियों का नियमितीकरण और बेहतर सुरक्षा सुनिश्चित करनी पड़ेगी। जिनका वादा जितना आसान है, पूरा करना उतना ही मुश्किल। व्यवस्था में रहकर व्यवस्था की खामियों को दूर करना आसान नहीं है। ‘आप’ की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि उसके पास पूर्ण बहुमत नहीं है। केजरीवाल को अपने विधायकों को एकजुट रखना होगा। ‘आप’ ने हाथ की सहायता से व्यवस्था की गंदगी पर झाड़ू चलाने को जो निर्णय लिया है उसने आशंकाओं को तो जन्म दे ही दिया है। आनेवाला समय ‘आप’ और भारतीय राजनीति दोनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। बहरहाल, दिल्ली के नतीजों से भारतीय राजनीति के स्थापित दलों को सबक तो मिल ही गया है।

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