अदालतों से बंधती उम्मीदें

0
145

lawअरविंद जयतिलक

अकसर राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक मंच से मुनादी पीटा जाता है कि राजनीति का अपराधीकरण लोकतंत्र के लिए घातक है। वे इसके खिलाफ कड़े कानून बनाने और चुनाव में दागियों को टिकट न देने की हामी भरते हैं। लेकिन जब उम्मीदवार घोषित करने का मौका आता है तो दागी ही उनकी पहली पसंद बनते हैं। दरअसल वे मान बैठे हैं कि दागियों के चुनाव जीतने की गारंटी है। जो जितना बड़ा दागी उसकी उतनी ही अधिक स्वीकार्यता की थ्योरी ने भारतीय लोकतंत्र को मजाक बनाकर रख दियाा है। भारतीय लोकतंत्र के लिए इससे अधिक शर्मनाक क्या हो सकता है कि संसद और विधानसभाओं में पहुंचने वाला हर तीसरा सदस्य दागी है। उसपर भ्रष्टाचार, चोरी, हत्या, लूट और बलात्कार जैसे संगीन आरोप हैं। भारत में ऐसे राजनीतिज्ञों की संख्या ऊंगलियों पर गिनने लायक रह गयी है जिनपर अवैध तरीके से धन कमाने के आरोप नहीं हैं। पंचायत स्तर से लेकर केंद्र सरकार और विधायिक के स्तर तक लगभग प्रत्येक राजनीतिज्ञ के पास उसके ज्ञात स्रोतों से अधिक संपतित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के 66 वर्षों में भारत ने आर्थिक विकास के मामले में जितनी भी उपलबिधयों हासिल की है, वे इससे भी अधिक ऊंची हो सकती थी, बशर्ते इस देश में भ्रष्टाचार की जड़े गहरी और दागियों को राजनीति में आने का मौका नहीं मिला होता। ताज्जुब यह है कि इस मसले पर एक अरसे से बहस हो रही है, लेकिन अभी तक राजनीतिक दलों द्वारा ऐसा कोर्इ प्रभावी कानून नहीं बनाया गया जिससे भ्रष्टाचार से निपटा जा सके या दागियों को संसद और विधानसभाओं में पहुंचने से रोका जा सके। एक अरसे से देश में लोकपाल और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवार्इ की मांग उठ रही है। पिछले दिनों समाजसेवी अन्ना के नेतृत्व में देश सड़क पर भी उतरा। लेकिन नतीजा सिफर रहा। राजनीतिक दलों ने लोकपाल की मांग को पलीता लगा दिया है और जनता की आवाज को कुचल दिया है। मतलब साफ है कि उनकी दिलचस्पी राजनैतिक भ्रष्टाचार खत्म करने या दागियों को संसद या विधानसभाओं में पहुंचने से रोकने की नहीं है। एक अरसे से चुनाव आयोग भी चुनाव सुधार के लिए राजनीतिक दलों को तैयार करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हैं। किस्म-किस्म का बहाना गढ़ रहे हैं। उनके रुख को देखते हुए अब उनसे किसी तरह की सकारात्मक पहल की उम्मीद नहीं रह गयी है। लेकिन सर्वोच्च अदालत की बढ़ती सक्रियता ने उम्मीद जरुर पैदा की है। उसने एक ऐतिहासिक फैसले में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को निरस्त कर दिया है, जिसकी आड़ में निचली अदालतों से दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों को उच्च न्यायालय में याचिका लंबित होने के आधार पर अयोग्यता से संरक्षण मिल जाता था। अब इस फैसले के बाद दागी सियासतदान संसद और विधानसभाओं में बैठकर कानून नहीं बना पाएंगे। इस फैसले से आम आदमी और जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच भेदभाव करने वाला प्रावधान खत्म हो गया है। न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि संसद को ऐसा कानून बनाने का अधिकार नहीं है। फैसले के मुताबिक अब निचली अदालत से कोर्इ भी सांसद या विधायक आपराधिक मामलों में दोषी करार दिया जाता है तो उसकी सदस्यता निलंबित होगी। और अगर कहीं किसी मामले में उसे दो साल से ज्यादा की सजा हुर्इ तो उसकी सदस्यता रदद होगी। अदालत ने साफ कर दिया है कि जिस दिन सजा सुनायी जाएगी, उसी दिन से उन्हें अयोग्य मान लिया जाएगा। इस फैसले के मुताबिक उन सांसदों और विधायकों की सदस्यता खत्म नहीं होगी जिनकी अपीलें अदालत में लंबित हैं। लेकिन जेल में बंद वे लोग जरुर चुनाव लड़ने से वंचित होंगे जो मतदान के लिए अयोग्य हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला जनमानस की भावना के अनुरुप है। लेकिन इससे राजनीतिक दलों की बेचैनी बढ़ गयी है। हालांकि वे अभी इस फैसले विरोध नहीं कर रहे हैं लेकिन जब दागियों के विकेट गिरने शुरु होंगे तो वे लामबंद होने की कोशिश कर सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे सूचना अधिकार कानून की परिधि में आने से बचने के लिए वे लामबंद होकर अध्यादेश लाने की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन उनका यह प्रयास आत्मघाती होगा। इससे देश में संदेश जाएगा कि वे भ्रष्टाचार को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके अलावा कहीं दागी सदस्यों के बचाव में मुखर होते हैं तो उनकी छवि और धुमिल होगी। यह किसी से छिपा नहीं रह गया है कि चुनाव लड़ने से पहले चुनाव आयोग के समक्ष दाखिल अपने हलफनामें में कुल 1460 सांसदों और विधायकों ने स्वीकार किया है कि उनके खिलाफ आपराधिक मामले हैं। उल्लेखनीय यह कि अपराधिक मामले के आरोपी 162 सांसदों में तकरीबन 76 ऐसे हैं जिनपर चोरी, हत्या बलात्कार और अपनहरण जैसे संगीन आरोप हैं। अगर राज्यवार विष्लेशण करें तो इन आरोपी सांसदों मेंएक तिहार्इ सांसद उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र राज्य से निर्वाचित होकर आए हैं। उत्तर प्रदेश के 31 और महाराष्ट्र राज्य के 23 सांसदों के खिलाफ अदालतों में गंभीर मामले लंबित हैं। कुछ इसी तरह के गंभीर आरोप बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश से चुनकर आए सांसदों पर भी है। एक आंकड़े के मुताबिक 2004 के चुनाव में 128 सांसदों के खिलाफ अपराधिक मामले लंबित थे जो 2009 में बढ़कर 162 हो गयी। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स (एडीआर) और नेशनल इलेक्षन वाच (एनइडब्लू) ने 4807 वर्तमान सांसदों और विधायकों की ओर से दाखिल किए गए हलफनामों के विष्लेशण से यह उदघाटित किया है 688 यानी 14 फीसद सांसदों ने अपने खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले होने की घोषणा की है। इसी तरह 4032 मौजूदा विधायकों में से 1258 यानी 31 फीसद ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। एडीआर विष्लेशण से यह भी उदघाटित हुआ है कि झारखण्ड मुकित मोर्चा के टिकट पर निर्वाचित 82 फीसद सांसदों और विधायकों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए। इसी तरह लालू प्रसाद यादव के नेतृत्ववाली राजद के 64, समाजवादी पार्टी के 42, भारतीय जनता पार्टी के 32 और कांग्रेस के 21 फीसद सांसदों और विधायकों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले कबूल किए हैं। देखा जाए तो आज की तारीख में कोर्इ भी राजनीतिक दल दुध का धुला नहीं है। सभी दागियों को चुनाव लड़ाने और गले लगाने को तैयार हैं। लेकिन तय है कि सर्वोच्च अदालत अपनी आंख बंद किए नहीं रह सकता। याद होगा पिछले दिनों पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह की याचिका की सुनवार्इ करते हुए न्यायमूर्ति पी सतषिवम की अध्यक्षता वाली पीठ ने डेढ़ सौ सांसदों के खिलाफ अदालतों में लंबित आपराधिक मुकदमों को ‘बेहद परेशान करने वाला करार दिया। साथ ही केंद्र और सभी राज्यों को नोटिस भी थमाया। लेकिन विडंबना है कि राजनीतिक दलों द्वारा न्यायालय की भावना का सम्मान करने की दिशा में कोर्इ सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया। चंद रोज पहले चुनाव सुधार की दिशा में कदम उठाते हुए उसने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह चुनावी घोषणापत्रों में मुफ्त उपहार की लोकलुभावन घोषणाओं पर रोक लगाने के लिए दिशा निर्देश जारी करे। उसने कहा है कि भले ही यह लोकलुभावन घोषणाएं जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्टाचार की परिधि में नहीं आती हो लेकिन इससे निश्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव की प्रक्रिया प्रभावित होती है। अदालत का मानना है कि संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत निश्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव कराने और विभिन्न उम्मीदवारों के बीच बराबरी का मौका स्थापित करने के लिए चुनाव आयोग को आदर्श चुनाव संहिता जैसे दिशानिर्देश जारी करना चाहिए। आयोग से यह भी कहा है कि वह राजनैतिक दलों को नियमित करने के लिए अलग से कानून बनाए। अदालत के इस फैसले से राजनीतिक दलों को सांप सूंघ गया है। वे इस फैसले की मुखालफत की हिम्मत तो नहीं दिखा रहे हैं लेकिन यह जाहिर करने से भी नहीं चूक रहे हैं कि चुनावी घोषणापत्रों में लोकलुभावन घोषणाएं करना उनका लोकतांत्रिक अधिकार हैं। सर्वोच्च अदालत ने सीबीआइ को भी सरकार के चंगुल से मुक्त करने की बात कही है। कैग की कार्यप्रणाली पर सरकार के नुमाइंदों द्वारा उठाए गए गैरवाजित सवालों को लेकर उन्हें लताड़ लगाया। जनहित के मसले पर भी वह अनेकों बार सरकार की कान उमेंठ चुकी है। न्यायालय की यह सक्रियता लोकतंत्र को मजबूत करने की उम्मीद पैदा करती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here