मान भी जाईये साहब ! ‘शोषण’ ही आज का नया ‘पेशा’ है…

शोषण

exploitationगजब है सियासत भी। आज राजनीतिक पार्टियों के इतर आम जिंदगियों में भी उतर आई है। कहीं न कहीं हर पेशे में अब सियासत दिखाई देने लगी है। दरअसल कुछ लोग अपने सह कर्मचारियों के साथ ही निचले तबके में कार्यरत् लोगों का भी शोषण एकदम जनता सरीखे करना चाहते हैं। जैसे कि कल तक ये शोषण के तमाम आरोप महज नेताओं तक सीमित करते आए हैं। आज संस्थान मायने नहीं रखता, मायने रखते हैं अपने उसूल। जो कि पूरी तरह से खोखले हैं। इन्हें पसंद है किसी भी काम फिर वो किसी भी वर्ग का ही क्यों न हो उसका क्रेडिट बत्ती बनाकर इनके सम्मान में तोहफो कूबूल करो टाइप से सौंपा जाए। और ये प्रेम पूर्वक अपने सीनियर यानि की मालिकान को अपनी दुकान को कुछ और वक्त चलाने का लाइसेंस देने का शुक्रिया चिपकाते हुए बाकियों को ये दर्शाएं कि असल में इनकी अवकात कितनी है।

इन्हें टैलेंट से मतलब नहीं है, इन्हें मतलब है हां हुजूरी करने वाले की, इनकी दुकान को दिन रात वाह-वाह का कमेंट देने वाले की। कितना तेज, कितना शानदार और कितना धारदार सब बकवास है, ये आपकी मेहनत के लिए एकदम आईएसआईएस के नुमाइंदे बन जाते हैं। फिर आप इनकी नजर में होते हैं नामुराद…। हां सफलता की अगर चाहत है तो फाउंडर, मैनेजिंग डायरेक्टर सरीखे कुछ लोगों के साथ आप भी यदि कुर्सी में कुर्सी जोड़कर बैठते हैं तो भले ही आपका कुछ भला हो जाए। नहीं तो निवालों को इज्जत का बनाकर ये आपको भी बोटी बताकर चबा जाएंगे।

बेरोजगारी के युग में नौकरी मिल जाए मतलब समझिए पिछले जन्म में कुछ बहुत बड़ा वाला दान किए थे। अगर मिल जाती है तो कभी सैलरी प्रॉब्लम तो कभी कुछ डायरेक्टर्स अपना फायदा तलाशने के लिए सारे कर्मचारियों को कुर्बान करने को तैयार हो जाते हैं। कुल मिलाकर दुकान बंद। अब नया संस्थान नयी कीमत लगाता है। अच्छी लग जाए तो किस्मती मान लीजिए वरना बद्किस्मती की फेहरिस्त में दुकान बंद होने के साथ ही नाम तो चढ़ ही चुका है। बाकी कई लोग विचारधाराओं की वजह से दुकान में एंट्री नहीं ले पाते। कहने का मतलब कुछ यूं है कि प्रवेश के साथ सवाल होता है कि आप किसके समर्थक हैं। निष्पक्ष कह दिया तो सबसे बड़ा पाप। बाकी विचारधाराओं में जिसका नाम आपने बताया गर दुकान उसके विरोधी की है तो पत्ता कट गया आपका, अगर सेम निकला तो दाल रोटी चल जाएगी। हां ये भी कह सकते हैं कि पलायन के लिए कुछ और वक्त मिल जाता है।

हालांकि कुछ लोगों के जहन में तमाम चेहरों को सबूत के तौर पर लिए हुए कई सवाल भी हैं कि ये भी तो हमारा बीता हुआ कल हैं देखिए कितना सारा कमा रहे है। बस इतना ही कहूंगा कि इनकी किस्मत, इनका काम इनकी रंगीन जुबानों के अनुरूप निकला है। इनकी दुकानों की असलियत शायद न आप जानते हैं न हम। बाकी सब मोह माया है ।

हां हताशा को खुद पर इन सबके बावजूद खुद पर सवार मत होने दीजिएगा। क्योंकि इन सब बातों से कई गुना बड़ा है आपका, हमारा विश्वास। जिसके दम पर हम अब तक चलते आए हैं। पेशे में किरदारों को नकल मत कीजिएगा। खुद को बनाईयेगा। एक अलग सा, जैसा जनता देखना चाहती है। मंजिल जरूर मिलेगी। विश्वास है…….। या तो हम खड़ी कर लेंगे एक नई मंजिल अपने विश्वास के दम पर।

हिमांशु तिवारी आत्मीय

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