अभिव्यक्ति पर लगाम

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पूजा शुक्‍ला

क्या अब दिल्ली में भी लोग शार्ट-टर्म राजनैतिक चढाई करके नेतागिरी का लायसैंस पायेंगे? वैसे ये राजनीति के लिए नया नहीं है पर उत्तर भारत में अभी तक ऐसे स्टंट नहीं हुए थे? प्रशांत भूषण पर हमला क्या वाकई क्रांति है या भूषण की हायप्रोफाइल कानूनी बाजीगरी का जमीनी जवाब?

प्रशांत भूषण को कौन नहीं जानता और कौन उनके पिता व् उनके द्वारा उठाये मुद्दों को नहीं जानता. प्रशांतजी एक प्रसिद्द न्यायविद के साथ साथ सामाजिक कार्यकर्ता रहे है, उनके जैसे व्यक्तित्व अगर समाज में आमूल चूल परिवर्तन नहीं करते तब भी सामजिक क्रियाशीलता को बढ़ावा तो देतें ही है. जिस प्रकार अंग्रेजी दवाओं के साथ साइड एफ्फेक्ट जुडे होतें है उसी प्रकार हर बुद्धिजीवी की कई मान्यताएं समाज द्वारा स्थापित मानको से परें होती है यानी समाज के द्वारा बुद्धिजीवियों के कुछ विचारो से समन्वय ना बिठा पाने के कारण कुछ विचारो को साइड एफ्फेक्ट समझ तिलांजलि दी जाती है. सदियों से ऐसा हो रहा है ऐसा होता रहेगा बुद्धि जब चलेगी तो उसका रास्ता कभी पक्ष कभी विपक्ष का होगा पर उस पर प्रहार कर एक दिशा में डालना हठधर्मिता क्रूरता व् क्रियाविहिनता है. जिस प्रकार प्राचीन समाज में राजा अपने सलाहकारों के पक्ष व् विपक्ष के विचारो को सुन फैसले करते थे ठीक उसी प्रकार समाज भी बड़ी सूक्ष्मता से जो उसके लिए अच्छा है उसको ग्रहण करता है.

प्रशांत भूषण भी कोई जुदा नहीं है अगर वे जनमत संग्रह कराने की बात कह लोकपाल की हिमायत कर राष्ट्र को आंदोलित कर सकते है तो वही कश्मीर मुद्दे पर जनमत संग्रह के मांग रख उसी राष्ट्र को आक्रोशित भी, समाज ने दोनों ही बातो को जिस प्रकार लेना था उसी प्रकार लिया यानी एक को अंगीकार किया तो दुसरे को अप्रासंगिक कर दिया. सुप्त सरकार को अशांत हो चुके कश्मीर, की ज्वलंत समस्यों के खात्मे हेतु जनमत संग्रह कर वह की अवामी सोच का जायजा लेने की मांग करने वाले वे पहले व्यक्ति नहीं, पर उनकी खता यह है की वे नेता नहीं ना ही उनके पास कार्यकर्ता की फ़ौज है जिससे डरकर कोई उनसे हिंसा का दुस्साहस ना करें. बुद्ध्जिवीयों का इस समाज में गुंडई से सामना पहली बार हुआ हो ऐसा भी नहीं एन अस यु आई, ए बी वी पी, शिवसेना, आर पी आई, मनसे आदि ये उत्पात मचाते रहे है फिर चाहे भंडारकर संस्थान में तोड़फोड़ कर प्रतिलिपिया क्षतिग्रस्त करना हो या फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री उपिन्दर सिंह की पुस्तिका के विरोध में दिल्ली विश्वविद्यालय में विरोध हो या फिर चित्रकार हुसैन का देश निकाला हो.

कांग्रेस भाजपा समेत अधिकतर राजनैतिक दल, संविधान के तहत कश्मीर में जनमत संग्रह के तर्क से सहमत नहीं है। कांग्रेस व् भाजपा इस तरह की मांग को कई बार खारिज कर चुकी है तब ऐसे में प्रशांत के विचारों का समर्थन लगभग नगण्य है. इसका मतलब की यह मांग लोकतान्त्रिक तरीके से ख़ारिज हो चुकी है, तब ऐसे कौन से डर के कारण इन नवयुवको ने ऐसी हिंसक कार्यवाही को अंजाम दिया. आईये इन कारणों का पतालगाया जाना नितांत आवश्यक है.

हमारे देश में एक कानून है, धारा १४४ ये अक्सर संवेंदंशीलता के माहौल में लगाई जाती है, जब लोग इकट्ठे हो कर अन्य लोगो को भड़काते हुए कोई हिंसक कार्यवाही की कोशिश करने वाले हो.इन्टरनेट जैसे ‘वर्चुअल स्पेस’ के जन्म से पूर्व संगठित हो कुछ तत्वों के उपद्रव से बचने के लिए ऐसे क़ानून सरकारों द्वारा लगातार सफलता पूर्वक उपयोग में लाये जा रहे थे जो अब इन वर्चुअल मीटिंग्स की वजह से निष्प्रभावी हो गए है. आज जब भी लोगो को मिलना होता है, विचारों में उबाल लाना होता है तो उसके लिए आमने सामने बैठना जरूरी नहीं पोस्टर चिपकाना न्योता देना जरूरी नहीं क्यूंकि इन बातो से सरकारी ख़ुफ़िया तंत्र सतर्क हो जता है. वे लोग सुचना क्रांति के युग में कही भी बैठ ऐसा कर सकतें है मसलन आर्कुट, फेसबुक , ब्लॉग, आदि. यहाँ विमर्श से लेकर भड़काऊ भाषणों से लेकर पोर्न विडियो तक चोरी छिपे सब उपलब्ध होता है. विमर्श की प्राचीन संस्कृति से विमुख घरो में बैठ कुंठित हो रहे नवयुवक अपनी दिन भर की भड़ास इन विमर्शो में निकालते है. जिन जगह पर ऐसे विमर्श होते है वहां सवाल- जवाब भी काफी अतिरेकी, एकतरफा और भड़काऊ किस्म के होते है मसलन तेजिंदर के फेसबुक पेज पर किसी ने लिखा था की ” क्या प्रशांत भूषण देशद्रोही नहीं है ?? आखिर देशद्रोह की क्या परिभाषा क्या होनी चाहिए ? सरकार देशद्रोह मे मामले मे प्रशांत भूषण पर कोई कदम नहीं उठती है तो इस देश मे युवाओ का खून खौलना स्वाभाविक है क्या इस देश का कोई भी नागरिक खुलेआम इस देश की अखंडता और संप्रभुता पर सवाल उठा सकता है ? क्या मौलिक अधिकारों के नाम पर कोई भी कुछ भी बोलने को आजाद है ? अगर किसी राज्य को भारत से अलग करने की बात कहना राजद्रोह या देशद्रोह नहीं है तो खालिस्तान के ४३ समर्थक जिन्होंने कभी कोई हिंसा नहीं की सिर्फ उन्होंने अपने कलम के माध्यम से खालिस्तान का समर्थन किया था उन्हें ५ साल जेल की सजा क्यों दी गयी ? क्या कश्मीर प्रशांत भूषण के बाप की जागीर है ? या प्रशांत को कश्मीर दहेज मे मिला है ? मेरे राय मे प्रशांत भूषण पर हमला एकदम जायज है ..अगर .. लेकिन मुझे अफ़सोस इस बात का है कि ऐसे देशद्रोही की बत्तीसी अब तक सलामत क्यों है”

अब अगर गौर से देखा जाए तो इस व्यक्ति के प्रश्नों का सरलता से उत्तर दिया जा सकता था, परन्तु इसके जवाब नहीं मिलने के कारण इसका पक्ष मजबूत होता चला गया और लोगो में धारणा बनी की यह जो कह रहा है सत्य कह रहा है, इन एक तरफ़ा कुतर्को से युवाओं में आक्रोश उपजता है जिससे हिंसा भाव जागृत होता है. ठीक इसी प्रकार का काम कुछ कुछ मिस्र में हुआ जहा संघर्ष तो सत्ताच्युत करने का था पर सत्ता के स्वरुप पर कोई सकरात्मक सोच नहीं थी, हाल के इंग्लैंड के दंगो में हुआ, कश्मीरी पत्थरबाजो के फेसबुक पर हुआ. इस प्रकार के असंतुलित तर्कों की वजह से युवा मन दिग्भ्रमित होता है, सरकारें चाह कर भी इन विमर्शों या वर्चुअल मीटिंग को रोक नहीं सकती ना ही हर जगह संतुलित विचार रखे जा सकतें है. अतःएव ये विमर्श के मोडरेटर की जिम्मेवारी बनती है की वो इन प्रकार के बहस के स्वरुप को अहिंसक, ययार्थवादी बनाएं रखें. तेजिंदर सिंह ऑरकुट की बहुप्रसिद्ध ‘इंडिया कम्युनिटी’ का काफी समय से मेम्बर है उनके थ्रेड काफी संवेदनशील तथा देशभक्ति से लबरेज रहते है, इस कम्युनिटी के ग्यारह लाख से अधिक युवा सदस्य उनकी इन्ही बातो से अभिभूत होतें हैं. ये एक प्रकार से इन्टरनेट क्रांति का एक हिस्सा है जो तेजिंदर जैसो को रातो रात प्रसिद्द करता है और वे भी उसी बात को पूरा करने के लिए कोई भी स्टंट करने से नहीं चूकतें, अभी इनसे किसी प्रकार के सरकारी कल्याण कार्यक्रमों पर विचार रखवा लीजिये या राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस करवा लीजिये वहा ये टाय टाय फ़िस हो जायेंगे. सरकारें ऐसी कम्यूनिटी को मोडरेट नहीं कर सकती पर कुछ क़ानून तो अवश्य बना सकती है जिससे अतिरेक विचारो को हटाये जाने का दबाव तो मोडरेटर पर बनाया जा सकें, वैसे भारत चीन या पाकिस्तान नहीं की अपनी ‘सोशिअल साइट्स’ को बैन करता रहेगा इन्टरनेट की वैचारिक स्वतन्त्रता पर कुठाराघात करेगा. ये जिम्मेवारी हम सब की है की हम अपनी सरकार को सख्ती के लिए मजबूर ना करें.

अब इस ताजा तरीन हमले के मूल वजह की बात करें तो सवाल उठता है क्या कश्मीरियों के हक में बोलना पाप है? कश्मीरी भी हमारा हिस्सा है वो इतने ही हिन्दुस्तानी है जितने ये तांडवकर्ता. क्या राज्य के द्वारा किये जा रही अतिरेकी कार्यवाही के खिलाफ कुछ कहना गुनाह है यह कैसा राष्ट्रवाद है जो अपने लोगो को कुचलने दमन करने को अच्छा मानता है? कश्मीर में सारे मरने वाले वहाबी कट्टरवादी तो नहीं, कुछ निर्दोष भी है, तो फिर उन निर्दोषो का क्या जो राज्य की प्रतिहिंसा के चपेट में आ जातें है क्या उनकी बात को कहना किसी भी प्रकार से ‘अभारतीय’ काम है? क्या अपने लोगो की बात को उठाना गुनाह है, अगर ये गुनाह है तो बहुतो ने ये गुनाह किया है.

हम हमेशा से ही भारत की गंगा- जमुनी संस्कृति पर फख्र करते रहे है हमरा इतिहास में भी हिंसक की तुलना में गाँधी बुद्ध महावीर को ज्यादा याद किया जाता है, तो फिर क्या कारण है की उसी राष्ट्र को बचाने के लिए उसके मूल्यों को तिलांजलि देकर हम अतिवादी कार्यवाही करने लगते है. भारत के इस मूल स्वरुप को अगर कोई बिगाड़ रहा है तो वे इसी तरह के तथाकथित क्रांतिकारी बिगाड़ रहे है. आज उनके कारण अन्ना, प्रशांत भूषण जैसे लोगो को सिक्यूरिटी कवर में अपनी बात रखनी पड़ रही है. कहां अपनी सुरक्षा के खिलाफ अन्ना बोल रहे थे, कहा इस घटना के बाद अन्ना ने प्रशांत भूषण को सुरक्षा उपलब्ध कराए जाने को जरूरी बताया है। वैसे अन्ना को देश के युवाओं से बड़ी उम्मीद है और उन्होंने पूर्व में भी भ्रष्टाचार मुद्दे पर युवाओं का आह्वाहन किया था. इस मुद्दे पर भी उन्होंने युवाओं से अपील की है की ” किसी मुद्दे पर नाराजगी को व्यक्त करने का हिंसा सही तरीका नहीं है। कानून को हाथ में लेना उचित नहीं है। जो युवा कानून हाथ में ले रहे हैं मैं कामना करता हूं कि उन्हें सद्बुद्धि मिले। ये हमारी परंपरा और संस्कृति नहीं है।” फैसला अब युवाओं को करना है की प्रशांत भूषण, प्रकाश झा जैसे सोफ्ट टार्गेट पर अभिव्यक्ति को लेकर हमला करना है या सही मायनों में भ्रष्टाचार, अपराध, अशिक्षा जैसी बुराइयों के खिलाफ अपने युवा बल का प्रयोग करना है.

 

1 COMMENT

  1. कायरों का काम है ये …अगर हिम्मत है तो उनको कुछ सबक सिखाके दिखाओ जो रोज ही कश्मीर व् दिल्ली में ऐसा कहते हैं ..शिव सेना के कायर भी केवल महाराष्ट्र में ही आवाज निकाल सकते हैं कश्मीर की गली में बोल कर दिखाओ तो शेर वर्ना.?????

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