अति सर्वत्र वर्जयेत् की प्रासंगिकता

सूरदास

डा. राधेश्याम द्विवेदी
अति रूपेण वै सीता चातिगर्वेण रावणः।
अतिदानाद् बलिर्बद्धो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्।।
अत्यधिक सुन्दरता के कारण सीता हरण हुआ।
अत्यंत घमंड के कारण रावण का अंत हुआ।
अत्यधिक दान देने के कारण रजा बाली को बंधन में बंधना पड़ा।
अतः सर्वत्र अति को त्यागना चाहिए।.
अति कभी भी अच्छी नहीं होती फिर वह किसी भी कारण से हो। कहते हैं-
अति भली न बरसना अति भली न धूप।
अति भली न बोलना अति भली न चुप॥
यह दोहा हमें समझा रहा है कि यदि वर्षा अधिक होगी तो चारों ओर जलथल हो जाएगा। बाढ़ के प्रकोप जान-माल की हानि होगी। बीमारियाँ परेशान करेंगी। अनाज बरबाद होगा और मंहगाई बढ़ेगी। इसी तरह सूर्य के प्रकोप से चारों ओर गर्मी की अधिकता होगी। सूखा पड़ेगा और हम दाने-दाने के लिए तरसेंगे।
दूसरी पंक्ति में कवि चेतावनी दे रहा है उन लोगों को जो बहुत बोलते हैं। अनावश्यक प्रलाप करते समय वे प्रायः मर्यादा की सीमा लांघ जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि वे न कहने वाली बात कह देते हैं जो झगड़े-फसाद का कारण बनती है। ऐसा व्यक्ति हवा में रहता है और झूठ-सच भी करता है। शुरू-शुरू में तो हो सकता है उसकी वाचालता अच्छी लगे परंतु कुछ समय बीतने पर वह भार लगने लगता है।
इसके विपरीत बिल्कुल चुप रहने वाले को भी लोग पसंद नहीं करते। उसे घमंडी, अव्यवहारिक और न जाने क्या-क्या कहते हैं। यह सत्य है- ‘एक चुप सौ सुख’ या ‘एक चुप सौ को हराए’। चुप रहना बहुत बड़ा गुण है। यह हमारे धैर्य व सहनशीलता का प्रतीक है पर अति चुप हमारा अवगुण बन जाता है।
इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, धन लिप्सा, पद लालसा, आदर्शवादिता, सच्चाई, ईमानदारी, आग्रह-विग्रह आदि में से किसी भी गुण-अवणुण की अति बहुत दुखदायी होती है।
हर गुण की जीवन में आवश्यकता है पर जब अति होकर वह हमारे लिए झंझाल बन जाए तो उसका त्याग करना चाहिए। क्योंकि- ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ अर्थात् अति को हर जगह छोड़ देना चाहिए या यूँ कहें यथासंभव अति से बचना चाहिए।
क्या ‘अति’ प्रत्येक स्थान बुरा है ?
मुझे ‘अति’ शब्द की प्रासंगिकता पर भी संदेह होने लगा। कई बार ‘अति सर्व़त्र वर्जयेत्’ विषय पर चर्चा होती है और कहा जाता है कि अति हर वस्तु के लिए बुरी होती है। लेकिन क्या वास्तव में ‘अति’ हमेशा ही बुरी होती है? इस विषय पर बहुत ही गहराई से जाया जाए तो लगता है कि अति कई स्थानों पर अच्छी भी होती है। जैस भगवान् राम की अति पितृभक्ति, भीष्म पितामह का अति राष्ट्रप्रेम, दानवीर कर्ण की अति दानवीरता, क्योंकि इन महापुरुषों ने अति करके ही उच्च कोटी का मान-सम्मान पाया है और इन्हें भगवान् एवं महापुरुषों की श्रेणी में लाता है।
‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ संस्कृत के इस श्लोक को हमारे महापुरुषों ने कई स्थानों पर अच्छी व्याख्या की हैं। उनके द्वारा की गई व्याख्या को न तो मैं चुनौति दे सकता हूं और न ही मेरे पास इस व्याख्या को चुनौति देने की बौद्धिकता। यह श्लोक आज इतनी सदियों के बाद भी अपनी प्रासंगिकता पर खरा उतरता है। यह श्लोक कई मायनों में आज भी अपना विशेष महत्त्व रखता है। लेकिन इस श्लोक को दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो इसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। जैसे कि यदि कोई व्यक्ति देशभक्ति में आकण्ठ डूबा हुआ है अथवा अपने धर्म और राष्ट्र को और अधिक प्रभावशाली एवं विश्वव्यापी बनाने को कार्य करता है तो क्या वह गलत है ?
देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय हमारे देश के कई क्रान्तिकारी आकण्ठ भाव से देशभक्ति में डूबे हुए थे इनका ‘अति’ देश प्रेम उनकी आत्मा को छू रहा तो क्या वे देशभक्त गलत थे, क्या उनकी देशभक्ति ही गलत थी, क्योंकि उन्होंने देशभक्ति की ‘अति’ कर दी थी। यदि वे ऐसा नहीं करते तो आज देश शायद आजाद भी नहीं होता है। इसलिए ‘अति सर्वत्र वर्जयत्’ कई स्थानों पर उचित भी नहीं है। ‘अति’ केवल दैनिक मानवीय क्रियाओं तक ही उचित प्रतीत होता है न कि देशप्रेम अथवा अन्य भावों में। अति सर्वत्र वर्जयेत्- अच्छी बात है, पर हमारी संस्कृति, हमारे आत्मसम्मान की कीमत पर नहीं अर्थात् अपनी कायरता को अब नैतिकता की चादर में ढकने का प्रयास करने लगे है। एक सनातन धर्मी प्राकृतिक रूप से सहिष्णु ही होता है पर उसे अपने आत्म सम्मान तथा संस्कृति, धर्म और राष्ट्र की रक्षा के प्रति अपने उत्तरदायित्व को भी समझना चाहिए। सहिष्णुता की आड़ में अपने जड़ों पर कुठाराघात सहने वाले सहिष्णु नहीं, कायर हैं।
वस्तुतः यदि देखा जाय तो मुझे ऐसा प्रतीत होने लग गया है कि सत्यता और नैतिकता की जिस ऊँचाई पर कोई नहीं पहुँच सकता तो यह कह दिया जाता है कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’। अतः हमारे लिये ये जानना आवश्यक है कि ‘अति’ कहते किसको हैं। अति से तात्पर्य है रावण ने अति अहंकार में भगवान् राम को चुनौति दे डाली और वह मारा गया, लेकिन इसका उसे यह लाभ भी मिला कि वह भगवान् के हाथों मारे जाने के कारण उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई। अतः ‘अति’ शब्द यहां पर भी अभी प्रासंगिकता खो रहा है। इसलिए सारांश में यह कहा जा सकता है कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ को केवल मानवीय क्रियाओं तक ही सीमित रखना उचित होगा। लेकिन जहां देश और धर्म की बात आ जाए तो वहां ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ से आगे निकल कर कार्य करना चाहिए उसी से देश एवं धर्म की रक्षा हो सकती है। अतः इस शब्द का तात्पर्य कहीं स्थान पर उचित प्रतीत होता है तो कही पर यह अनुचित भी प्रतीत होता है।

4 COMMENTS

  1. जो समाज चुप रहनें का आदी हो जाता है वो समाज धीरे-धीरे कमज़ोर बन कर अपनें खो देता हैं।

  2. अति सर्वत्र वर्जयेत, ये एक सत्य है और सत्य पूर्ण होता है, किन्तु परन्तु नही होता।
    आपने जो अप्रासंगिकता की बात कही है ,
    मेरे विचार से, जैसे,
    जोश बिना होश के,
    विद्या बिना विवेक के घातक सिद्ध हो जाती है
    उसी प्रकार अति बिना जति (जतन) के, या
    अति बिना मति के विपरीत फल प्रदान करती है।
    उदाहरणार्थ,
    राजा हरिश्चंद्र की सत्य निष्ठा,
    क्या निष्ठा का अतिरेक नही था जो उन्हें स्वप्न भी ऐसे ही आने लगे और उन्होंने स्वप्न में अपने राज्य को एक याचक को दान कर दिया।
    क्या वो अति, बिना जतन के, एक मनो विकार नही बन गयी थी?

  3. Jin atiyon ko aap bhalayi ki or ki gayi ati hai, vastav me un ghatnaon ka boiling point par pahunch jana hai,han jab iska atikraman hota hai to vah ati ki or badhne lagta hai. Sita haran ho ya Draupadi ka chiirharan, paristithi ka apne krant bindu par pahuchna tha. Ati ek pravah mayi ghatnaon ka kram hai, jisme krant bindu bhi hai ya is tarah kahe ki boiling point bhi hai, jisase aage bhi ja sakte hai. Yah anthiin hai.

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