“आँखे, झरोखें और उष्मा”

love in nightकुछ आँखें थी सपनों को भरे अपने आगोश में.

कुछ झरोखें थे

जो पलकों के साथ हो लेते थे

यहाँ वहां.

आँखें झरोखों से आती किरणों में

अक्सर तलाशती थी

उष्मा को.

बर्फ हो गए सपनों के संसार में

उष्मा की छड़ी लिए

चल पड़ती थी आँखें

और बर्फ से करनें लगती थी वो संघर्ष अनथक

और करती थी नींद से उलझन-

कि, वो क्यों आती है?

नींद में नहीं होना चाहती थी वो आँखें

अपनें से ही बेखबर

झरोखों के सरोकारों को

वो जीना चाहती थी मन भर,

उड़ना चाहती थी आकाश भर

और

पुरे आकार के उस आकाश को छू लेना चाहती थी

अपनी सुकोमल अँगुलियों से.

झरोखों से कभी आती तो कभी झांकती

उष्मा को वो चूमना चाहती थी

अपना प्रिय बनाकर.

झरोखें और आँखें अंतर्द्वंद ही तो थे

ऐसे ही जैसे

तुम न यहाँ हो न वहां

जहां मिलनें का तुमनें वादा किया था.. प्रवीण गुगनानी

 

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