नाकामी का मूल्यांकन इतिहास के हवाले

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-अरविंद जयतिलक-  manmohan

फर्ज कीजिए कि जब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का इतिहास परक मूल्यांकन होगा तो वे कहां खड़ा नजर आएंगे ? उन प्रधानमंत्रियों के बीच जिन्होंने राष्ट्रीय चुनौतियों का दृढ़ता से सामना किया अथवा उनके बीच जिन्होंने सत्ता मोह में राष्ट्रीय हितों को दांव पर लगा दिया? साढ़े नौ वर्ष के शासन में मीडिया से तीसरी बार मुखातिब प्रधानमंत्री ने अपनी उपलब्धियों और नाकामियों को वर्तमान कसौटी पर कसने के बजाए इतिहास के हवाले कर दिया है। विश्वास व्यक्त किया है कि समकालीन मीडिया की तुलना में इतिहासकार उनके प्रति ज्यादा उदार रहेंगे। उनके इस आत्मविश्वास का आधार क्या है, यह तो नहीं बताए लेकिन 10 वर्ष तक गठबंधन सरकार चलाने को महान उपलब्धि गिना अपनी पीठ जरुर थपथपा लिए हैं। लेकिन इतिहास जब भी उनकी सरकार का मूल्यांकन करेगा। कसौटी पर वे ही होंगे। प्रधानमंत्री ने बड़ी चतुराई से महंगाई, भ्रष्टाचार, बदहाल अर्थव्यवस्था, नीतिगत अपंगता और कमजोर नेतृत्व से जुड़े सवालों को खारिज कर अपने सरकार का बचाव किया। लेकिन देश उनके जवाबों संतुष्ट नहीं है। इसलिए कि किसी भी सवाल का उन्होंने ईमानदारी से जवाब नहीं दिया। वह बताने की जरूरत नहीं समझे कि जब वे कमजोर प्रधानमंत्री नहीं हैं तो फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ मौन क्यों हैं? हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह पर इस्पात इंडस्ट्री से रिश्वत लेने के गंभीर आरोप हैं। लेकिन देखा गया कि मीडिया के सामने राहुल गांधी के बगल में बैठकर भ्रष्टाचार विरोधी प्रवचर में सुर मिला रहे थे। आखिर प्रधानमंत्री उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं कर रहे हैं? सवाल यह भी कि आदर्श हाऊसिंग घोटाला की जांच रिपोर्ट को पूर्णतः स्वीकारने के बजाए महाराष्ट्र सरकार शुतुर्गमुर्गी रुख क्यों अपनाए हुए हैं? वह भी तब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी झिड़की दे चुके हैं। आखिर प्रधानमंत्री उचित कदम क्यों नहीं उठा रहे हैं? सवाल और भी हैं।

मसलन क्या वजह है कि खुद प्रधानमंत्री एक ख्यातिलब्ध अर्थशास्त्री हैं, के बाद भी अर्थव्यवस्था गोता लगा रही है? विदेशी निवेशक बाजार छोड़कर भाग रहे हैं। क्या वजह है कि अभी भी सैकड़ों परियोजनाएं अधर में हैं? अगर सरकार की नीति सही है तो फिर महगांई पर लगाम क्यों नहीं लग रहा है? क्या कारण है कि पड़ोसी देशों से संबंध लगातार बिगड़ते जा रहे हैं। उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री इन सवालों का तार्किक जवाब देंगे। लेकिन वे सवालों से बचते नजर आए। हालांकि उन्होंने कबूल किया है कि उनकी सरकार महंगाई थामने, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और रोजगार के अवसर बढ़ाने में अपेक्षित सफलता हासिल नहीं की। लेकिन इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। इसलिए कि सरकार की नाकामी की वजह से देश में नक्सल और आतंकी घटनाएं बढ़ी है। सामाजिक-आर्थिक मोर्च पर कई तरह की समस्याएं निर्मित हुई हैं। गरीबी और बेरोजगारी का विस्तार हुआ है। लाखों किसानों को आत्महत्या करना पड़ा है। उचित होता कि प्रधानमंत्री इन ज्वलंत मसलों पर अपनी सरकार का रुख स्पष्ट करते। लेकिन सच्चाई यह है कि मीडिया के समक्ष उनका अवतरण देश को संतुष्ट करने के लिए नहीं बल्कि अपने हाईकमान के निर्देश पर तीसरी बार प्रधानमंत्री का पद न संभालने की घोषणा करने, राहुल का रास्ता सुगम बनाने और भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवर नरेंद्र मोदी पर हमला बोलने के लिए हुआ था। निःसंदेह प्रधानमंत्री इस खेल में सफल रहे। उन्होंने घोषणा कर दी है कि अगले चुनाव के बाद मैं नए प्रधानमंत्री को जिम्मेदारी सौंप दूंगा। मैं दौड़ से बाहर हूं और राहुल गांधी इसके सुयोग्य उम्मीदवार है। साथ ही मोदी पर भी हमला करने से नहीं चूके। उन्होंने मोदी पर हमला बोलने वाले अभी तक के सभी बात बहादूरों को पीछे छोड़ दिया है। भविष्यवाणी की है कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बने तो यह देश के लिए (डिजास्टरस) विनाशकारी होगा। पता नहीं प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से कांग्रेस को राजनीतिक लाभ पहुंचाया उसकी मुश्किल बढ़ गयी, लेकिन आम जनमानस में प्रधानमंत्री की आलोचना जरूर तेज हो गयी है।

लोग हैरान हैं कि जिस व्यक्ति को गुजरात की जनता ने तीन बार मुख्यमंत्री चुना, जिसके विकास का डंका देश-दुनिया में बज रहा है उसका प्रधानमंत्री बनना देश के लिए विनाशकारी कैसे हो सकता है? प्रधानमंत्री और उनकी आक्रमणकारी टीम के पास इसका ठोस जवाब नहीं है। उचित होता कि प्रधानमंत्री ऐसी भविष्यवाणी से पहले गौर कर लेते कि देश-दुनिया में राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी या स्वयं उनके बारे में क्या आकलन हो रहा है। अभी कुछ माह पहले ही मशहूर विदेशी पत्रिका द इकॉनोमिस्ट ने राहुल गांधी को कन्फ्यूज्ड यानी भ्रमित नेता बता उनकी आलोचना की। कहा कि कोई नहीं जानता कि राहुल कितने काबिल हैं। इससे पहले वे अमेरिकी राजदूत से यह कहकर कि इस्लामिक आतंकवाद से ज्यादा खतरा हिंदू कट्टरवाद से है, अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय दे चुके हैं। खुद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की देश-दुनिया में अच्छी छवि नहीं रह गयी है। पिछले दिनों अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने कहा कि डॉ. मनमोहन सिंह नाकाम और असहाय प्रधानमंत्री हैं। साथ ही यह भी कहा कि उनकी सरकार सबसे भ्रष्ट सरकार है। दुनिया की जानी-मानी अंतरराष्ट्रीय पत्रिका टाइम भी उन्हें फिसड्डी करार दे चुकी है। इसी तरह ब्रिटेन के अखबार ‘द इंडिपेंडेंट’ ने भी उनपर जमकर चुटकी ली। उसने अपने ऑनलाइन संस्करण में उन्हें सोनिया गांधी का पालतू, कठपुतली और अंडरअचीवर कहा। जबकि इससे इतर देश-दुनिया में मोदी की लोकप्रियता की धूम मची है। दुनिया की नामचीन अमेरिकी पत्रिका ‘टाइम’ ने प्रतिष्ठित ‘पर्सन ऑफ द इयर 2013’ अवार्ड के लिए दुनिया भर से जिन 42 चेहरों की सूची बनायी उसमें भारत से अकेले नरेंद्र मोदी रहे। अमेरिकी-भारत बिजनेस काउंसिल के अध्यक्ष रोन समर्स पहले ही कह चुके हैं कि गुजरात प्रगतिशील नेतृत्व का आदर्श मॉडल है और मोदी उसके नायक हैं। विकिलीक्स के एक खुलासे से भी जाहिर हो चुका है कि अमेरिका भी मोदी की विकासवादी छवि से प्रभावित है। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लायड इकॉनामी रिसर्च के प्रमुख अर्थशास्त्री अबु सलेह शेरिफ अपने एक सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण में पाया है कि गुजरात में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति देश के अन्य राज्यों से बेहतर है।

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय निवेश बैंकर गोल्डमैन षैक्स ने देश में शीर्ष राजनीतिक पद के लिए मोदी की उम्मीदवारी का समर्थन किया है और विदेशी ब्रोकरेज कंपनी नोमूरा की मानें तो मोदी विकास के पर्याय हैं और भारत में उनकी लहर चल रही है। ऐसे में प्रधानमंत्री का मोदी को देश के लिए विनाशकारी बताना समझ से परे है? उचित होता कि मोदी को विनाशकारी बताने के बजाए प्रधानमंत्री उनकी नीतिगत आलोचना करते। लेकिन राजनीतिक प्रतिद्वंदिता की बिसात पर विकास के सच को दफनाना कांग्रेस अपनी राजनीतिक मर्यादा समझ ली है। लेकिन यह उचित नहीं है। प्रधानमंत्री ने एक पूछे गए सवाल के जवाब में यह भी कहा कि ‘सशक्त होने का क्या मतलब है? गुजरात में नरसंहार और अहमदाबाद की सड़कों पर खून बहते देखना? अगर कोई ऐसा मानता है तो मैं इससे सहमत नहीं हूं।’ बेशक इससे कोई भी सहमत नहीं हो सकता। लेकिन इस सच की भी अनदेखी नहीं होनी चाहिए कि आज तक किसी भी अदालत ने गुजरात दंगे के लिए मोदी को कसूरवार नहीं माना है। हाल ही में अहमदाबाद की एक मेट्रोपोलिटन अदालत ने मोदी को क्लीन चिट दी है। यह जानते हुए भी प्रधानमंत्री ने डायलॉग डिलिवरी के जरिए गुजरात दंगों के बहाने मोदी को घेरने की कोशिश की है तो उन्हें यह भी जवाब देना होगा कि जब असम में बंगलादेशी घुसपैठिए सड़कों पर खून बहा रहे थे तो वे किन कारणों से मौन रहे? मुजफ्फरनगर दंगे के समय उनकी सरकार ने उचित कदम क्यों नहीं उठाया? इन सवालों का जवाब न तो प्रधानमंत्री के पास है न उनकी कांग्रेस के। बहरहाल प्रधानमंत्री के प्रेस कांफ्रेंस से प्रमाणित हो गया है कि उनके और उनकी सरकार के बारे में अभी तक देश-दुनिया ने जो आकलन किया है गलत नहीं है। यह भी साबित हो गया कि सत्ता के दो केंद्र हैं और किसी भी निर्णय के लिए डॉ. मनमोहन सिंह को दस जनपथ के इशारे को समझना पड़ता है। इतिहास के दहलीज पर खड़े डॉ. मनमोहन सिंह इतिहासकारों की उदारता को लेकर चाहे जितना आश्वस्त हों, लेकिन इतिहास उनका मूल्यांकन निर्ममता से ही करेगा।

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